यह जीवन है एक भार प्रिये।
थी तृषा जगी मन में मेरे,औ' प्यास कहाँ बुझ पाती है,
जल की चाहत में भटक रहा,मन पाता है अंगार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
जो दूर कहकशां सा दिखा, तो मन मयूर सा नाच उठा,
पर पास जो जाकर देखा तो,पाया मरू का सा सार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
सोचा था एक दिन आएगा, मेरे जीवन में भी बसंत,
समय बीतता ही जाता है, पर आया नहीं बहार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
मेरे मन के अंधे कोने में,जो ज्योति सदा से जलती थी,
एक तनिक हवा के झोंके ने, मन किया मेरा अंधार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
मैं स्वाति बूँद की आशा में, चातक बन बैठा हूँ अब तक,
टपका कर अपना स्नेह बूँद,कर लो मुझको स्वीकार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
- नीहार
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मन व्यथित बहुत अब होता है।
जब सन्नाटों की सीटी गूंजे,तब मन ही मन आँखें मूंदे,
यह दिल बेचारा जी भर रोता है।
मन व्यथित बहुत अब होता है।
जब कोयल ताने तान सखी,तब झूम झूम मन प्राण सखी,
अपना सुध बुध सब खोता है।
मन व्यथित बहुत अब होता है।
मेरी आँखों के बंद कटोरों में,मेरे तन मन के पोरों पोरों में,
एक दर्द का सागर अब सोता है।
मन व्यथित बहुत अब होता है।
तुम बिन सब कुछ है उदास, बुझ नहीं रही अनबुझी प्यास,
प्यासा मन हरदम अब रोता है।
मन व्यथित बहुत अब होता है।
- नीहार
**************************************************
मैं दर्द के सागर में जीता।
मेरी वाणी जो मुखर कभी थी,गूंगी हो दम तोड़ रही है,
मेरे दिल की जीवित धड़कन,मेरा ही संग छोड़ रही है,
बाहर भीतर हर तरह से मैं हो चुका हूँ रीता ।
मैं दर्द के सागर में जीता।
मैंने जितने भी सपने देखे, सब चूर चूर हो बिखर गए,
तेज़ हवा के झोंको में, कुछ इधर गए कुछ उधर गए,
उन सपनो को खोकर मैं तो हो गया हूँ रीता।
मैं दर्द के सागर में जीता।
वाणी से मूक,आँख से अंधा और हाथ पाँव से लूला हूँ,
अल्लसुबह जो भटक गया तो, देर शाम तक भूला हूँ,
दर्द ही भोजन है मेरा, और दर्द ही मैं हूँ पीता।
मैं दर्द के सागर में जीता।
-नीहार
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थी तृषा जगी मन में मेरे,औ' प्यास कहाँ बुझ पाती है,
जल की चाहत में भटक रहा,मन पाता है अंगार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
जो दूर कहकशां सा दिखा, तो मन मयूर सा नाच उठा,
पर पास जो जाकर देखा तो,पाया मरू का सा सार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
सोचा था एक दिन आएगा, मेरे जीवन में भी बसंत,
समय बीतता ही जाता है, पर आया नहीं बहार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
मेरे मन के अंधे कोने में,जो ज्योति सदा से जलती थी,
एक तनिक हवा के झोंके ने, मन किया मेरा अंधार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
मैं स्वाति बूँद की आशा में, चातक बन बैठा हूँ अब तक,
टपका कर अपना स्नेह बूँद,कर लो मुझको स्वीकार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
- नीहार
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मन व्यथित बहुत अब होता है।
जब सन्नाटों की सीटी गूंजे,तब मन ही मन आँखें मूंदे,
यह दिल बेचारा जी भर रोता है।
मन व्यथित बहुत अब होता है।
जब कोयल ताने तान सखी,तब झूम झूम मन प्राण सखी,
अपना सुध बुध सब खोता है।
मन व्यथित बहुत अब होता है।
मेरी आँखों के बंद कटोरों में,मेरे तन मन के पोरों पोरों में,
एक दर्द का सागर अब सोता है।
मन व्यथित बहुत अब होता है।
तुम बिन सब कुछ है उदास, बुझ नहीं रही अनबुझी प्यास,
प्यासा मन हरदम अब रोता है।
मन व्यथित बहुत अब होता है।
- नीहार
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मैं दर्द के सागर में जीता।
मेरी वाणी जो मुखर कभी थी,गूंगी हो दम तोड़ रही है,
मेरे दिल की जीवित धड़कन,मेरा ही संग छोड़ रही है,
बाहर भीतर हर तरह से मैं हो चुका हूँ रीता ।
मैं दर्द के सागर में जीता।
मैंने जितने भी सपने देखे, सब चूर चूर हो बिखर गए,
तेज़ हवा के झोंको में, कुछ इधर गए कुछ उधर गए,
उन सपनो को खोकर मैं तो हो गया हूँ रीता।
मैं दर्द के सागर में जीता।
वाणी से मूक,आँख से अंधा और हाथ पाँव से लूला हूँ,
अल्लसुबह जो भटक गया तो, देर शाम तक भूला हूँ,
दर्द ही भोजन है मेरा, और दर्द ही मैं हूँ पीता।
मैं दर्द के सागर में जीता।
-नीहार
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2 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर और गहरी भावनाए है आपकी तीनो रचनाओं में.....बधाई !!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
bahut hi sunder rachna..
abhaar
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