शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

ख्वाब के पत्तों की बजती है झाँझरी.........

यूँ - 
चलता रहा मैं,
चाँद तलक आसमाँ की ओर.....
ये रात उदासी की -
फिर आये कि ना आये ।
ये ख्वाब के पत्तों की ,
बजती है झांझरी -
कोई हौले से ,
मेरे जिस्म को -
फिर पाक़ कर जाये ।
मेरी आँख को ,
बारिश की दुआ -
दे गया है वो....
डर है कि बहते आँसुओं में,
वो ही ना बह जाये ।
उसका मिलना -
पत्तों का हरा होना है,
वो जो जाये तो,
पतझड़ सा -
हमें कर जाये ।
होंठ चुप हैं -
कि आँखें बोलती हैं....
डूब के सुन कि,
क्या वो कह जाये ।
उसकी बाँहों में -
जिन्दगी करवट ले,
उसके सीने से लग के...
वो सोचता है कि मर जाये । 
- नीहार ( चंडीगढ़, २७ सिसंबर की सुबह  )

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

अश्रुदान....

ट्रैफिक सिगनल पे,
इंतजा़र के उन क्षणों में -
एक हाड़ मांस की पुतली....
सत्तर की उमर और चीथड़ों में,
खुद के स्वाभिमान की चाशनी लिये-
आ खड़ी हुयी मेरे करीब ,
काँपते हाथ बमुश्किल से फैलाये हुये ।
उसकी आँख सूखी रेत की सहरा सी विस्तार लिये -
पेट और पीठ के बीच,
सूत भर की भी जगह नहीं -
और  फैली हाथ की रेखा,
वर्षों की मिहनत की गवाहगार बनी हुयी ।
मैं उद्विग्न हो उठा ,और -
इससे पहले की अपने पर्स से,
चंद रूपये निकाल -
उसके फैले हथेली में रखता.....
मेरी आँखों के कोर ,
टपका पड़े अश्रु की एक बूँद हो ।
उसने मुटठी बंद कर,
स्वीकार किया मेरे उस दान को ।
फिर एक हाथ बढ़ा मेरे माथे को छुआ -
और कहा-
इससे कीमती दान मुझे आजतक नहीं मिला,
मैं इसके पीछे छिपी भावना समझती हूँ, और खुश हूँ -
कि मुझे किसी ने आज समझा तो ,
वरना -
बच्चों को अपना पेट काट खिलाने की आदत ,
मुझे सदियों से रही है -
हाँ, उनकी आँखों में अब मुझे अपने लिये -
आँसू नहीं दिखते....
मेरी लोरी सुने बिना ,
जो सोते नहीं थे कभी -
आज उन्हें मेरी ममता भरी आवाज,
शोर सी लगती है।
मैं भीख नहीं मांगती हूँ ,
फैला के ये हाथें -
मुझे तो इस भीड़ में कोई अपना सा चाहिये,
जो इस आँसू की एक बूँद ने -
मुझे मुझसे मिला दिया ।
- नीहार( चंडीगढ़,सितंबर २३ ,२०१३ की सुबह और माँ की याद )

रविवार, 22 सितंबर 2013

आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे..


याद आ गया हमें भी, 
 वो गुजरा हुआ ज़माना -
 एक संग जमीं पे बैठ कर, 
लिट्टी व चोखा खाना - 
फिर बैंक और देश की,
 पालिटिक्स पे बातें करना-
 मन का सारा विकार यूँ,
 हँसते हुये निकालना ... 
वो बच्चों की खिलखिलाहट, 
वो गृहणियों की चहचहाहट- 
हम उसमें सुन लिया करते, 
सपनों की गुनगुनाहट .... 
चलो पीछे ले चलें हम,
 समय को जरा घुमाकर - 
शायद ये हम जान पाएँ, 
कि हम कितना बदल गये हैं... 
ओढ़ रक्खें हैं हमने चेहरे, 
अपने चेहरे पे न जाने कितने -
 कि आईना भी हमसे अक्सर, 
हमारा पता पूछता है ।
 पलट लो जरा ये अल्बम, 
जो हमें हमारे होने का - 
है सबूत पेश करता । 
चलो उतार दें हम ये चेहरा, 
जिसने मशींदोज़ हमें किया है - 
हमें सुविधा भोगी करके,
 हमसे छीनी है हमारी पहचान....
 चलो फिर से उस जहाँ में, 
जहाँ रोटी नमक भी हमको -
 देती थी अगाध खुशियाँ.... 
जहाँ बच्चों की धमाचौकड़ी, 
में सुनते थे झरनों की झर झर- 
जहाँ पत्नियों के उलाहने में, 
रहता था प्यार का ही तेवर ....
 वही थी हमारी दनिया, 
जहाँ दीवार न थी कोई- 
हम आदमी से मिलते थे, 
बस आदमी ही होकर । 
ये तस्वीर मुझसे कहती, 
चल आ के मुझसे तू मिल ... 
मैं तुझे मिला दूँ तुझसे,
 जिसे तू कब से ढूँढ़ता था । 
- नीहार ( एक चित्र को देखकर अचानक उमड़े भावनाओं का ज्वार काव्य रूप में- आभार विकास रंजन । एवं सुशील प्रसाद )

वो मेरे ख्वा्ब की ख्वाहिश में सोयी रहती ......

मैं  उसके कर्ब की ख्वाहिश में जागा करता,
वो मेरे ख्वा्ब की ख्वाहिश में सोयी रहती ।
उसकी फितरत है कि वो चुप रहा करती है,
मैें ये समझा कि वो मुझमें ही खोयी रहती ।
मैेंनें जितना भी दिया दर्द उसे उन सबको,
वो अपनी आँख में मोती सा पिरोयी रहती ।
मुझ पे जब भी उछाला है कीचड़ किसी ने,
अश्कों से मेरे जीस्त को वो धोयी रहती ।
मैं भटकता हूँ तपी धूप सा होकर जब भी,
प्यार बरसा के वो मुझको भिंगोयी रहती ।
किर्चों में टूट के जब भी बिखरता है नीहार,
वो उन्हें चुन चुन के फिर से संजोयी रहती ।

- नीहार

शनिवार, 14 सितंबर 2013

मेरे भीतर एक मोगली रहता है ......

मेरे भीतर ,
दरका है कुछ -
शायद मेरा विश्वास,
मनुष्य के होने पर ।
सोचता हूँ कि,
सभ्य होना अगर - 
यही है कि ,
रक्षक ही हत्यारे हो जाएँ -
संत असंगत कार्यों में लिप्त ।
प्रजा का तंत्र -
प्रजा के लिये ही षडयंत्र हो,
और-
हर गरीब के मुँह की रोटी से ,
ज्यादा कीमती और पौष्टिक -
किसी अमीर के कुत्ते का बिस्कुट हो  ,
तो - 
मुझे नहीं रहना ऐसे सभ्य समाज का ,
हिस्सा हो ।
मुझे वापस किसी जंगल में छोड़ आओ,
जहाँ मुझे बड़े ही लाड़ दुलार से - 
पाला था शेर चीते हिरण और गजराज ने,
मुझे मोर,बंदर और न जाने कितने जानवरों ने -
अनुशासन और कायदे कानून सिखाये ।
मुझे हर प्रजाति के जानवरों का सम्मान करना सिखाया गया.....
मुझे यह बताया गया कि सभ्यता का अर्थ,
कमजोर से कमजोर का सम्मान करना है -
और ताकत का प्रयोग,
सिर्फ रक्षा के लिये किया जाता ।
मुझे नहीं रहना -
किसी ऐसे समाज का हिस्सा बन,
जहाँ मनुजता सिर्फ किताबों के पन्नों में पाई जाती - और,
हैवानियत बिना मोल के हर जगह लुटाई जाती ।
इससे बेहतर मेरा जंगल है- 
जहाँ न तो फसाद है - न दंगल है,
जो भी है ,
बस कुशल मंगल है ।
- नीहार ( चंडीगढ़, १४ सितंबर की सुबह - मेरे भीतर एक मोगली रहता है)



शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

चलो चलें गाँव की ओर......

कूकत कोयल नाचत मोर,
चाँद बुझा के आ गई भोर ।
टिन के छत पे बारिश बूँदें,
दय दय ताल करत हैं शोर ।
जंगल जंगल खबर है फैली,
नर नारी  हुये आदमखोर ।
आदम के नीयत का नहीं,
मिलता कहीं ओर या छोर ।
हर एक को नीचा दिखाने ,
यहाँ लगी है सब में होड़ ।
प्रगति का लेखा मत देखो,
ये देश चला रसातल ओर ।
हर नेता भाषण में कहता,
तारे लाएगा आसमाँ तोड़ ।
हर अमीर जी रहा पी कर,
यहाँ गरीब का खून निचोड़ ।
संसद का मत हाल तू पूछ,
लड़ते सब वहाँ कुर्सी तोड़ ।
कौन कितना बड़ा असंत है,
संतों में लगी इसकी है होड़ ।
टिकट उसे देगी हर पार्टी ,
जो चोरों का होगा सिरमौर ।
देश तरक्की पर है साहब,
रुपया भले हुआ कमजोर ।
शहर मिजाज़ बदल चुका है,
चलो चलें हम गाँव की ओर ।
- नीहार