सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

मुक्त छंद

बीता कल - सूना पल
मन चंचल - नैन छल छल
दिन बेचैन - रात बोझल
खुली आँख - स्वप्न ओझल
बहते अश्रु - जैसे अविरल
मन के अन्दर - तुमुल कोलाहल
यह जीवन - एक दलदल
-नीहार
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कच्चा घड़ा - मन बावरा
मिटटी हुआ - जब ठोकर पड़ा
फिर से चली - जब कुम्हार की चाक
हाथों ने कुछ गढ़े - मूरत बेबाक
एक सिमटी हुयी - खुद में खोयी हुयी
पलकों में ख्वाब - है पिरोई हुयी
कुछ जागी हुयी - कुछ सोयी हुयी
ठिठुरती हुयी - खुद से लिपटी हुयी
वो अभिसार के पल - से चिपटी हुयी
उसकी बाँहों में - जाये जिंदगी गुज़र
ख्वाब देखे सुनहरे - मेरी ये नज़र
फूल के पाँव से - वो आये चलती हुयी
खुशबुओं की दरिया - सी मचलती हुयी
हर तरफ उसकी आहट - मैं सुनता रहूँ
फिर नए ख्वाब रोज़ - मैं बुनता रहूँ
गुनगुनाता रहूँ - धूप सा बन के मैं
उसकी साँसों में - मैं फिर सुलगता रहूँ
काश ऐसा कोई पल - मिल जाए मुझे
मैं उसमे ही - जीवन बन पलता रहूँ
बूँद बूँद सा - उसमे मैं पिघलता रहूँ ।
-नीहार
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तुम और हम - आँखें पुरनम
बरसे खुलकर - झम झमाझम
अग्निशिखा सी - रक्तिम रातें
मन को बांधें - मन की बातें
अधर भींग कर - हुआ अमिय और
टपके जैसे - रात का शबनम
तनहा तनहा - मन बावरा हो
तोड़ रहा है - अपना संयम
तुम्हें समर्पित - मेरी पूजा
करता तुझको - मैं सबकुछ अर्पण।
-नीहार
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सांस -
महकी हुयी -
खोजती है तुम्हें ,
मन के अन्दर -
समर्पण की -
जगे भावना।
तुम -
जो होते हो पास -
तो मन की वीणा पे फिर,
करता रहता हूँ मैं -
नित्य दिन साधना ।
मैंने -
सीखा तुम्ही से -
योग और ध्यान सब,
मैंने -
सीखा तुम्ही से -
है मन को बांधना ।
मन -
के अन्दर जला कर -
एक लपट प्यार की ,
भस्म करता -
हूँ मैं -
अपने मन की वासना।
-नीहार

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गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...

तुम हो,तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...
आकाश की आँखों से टपकते अश्रु बूँद ,
चाँद के ढल जाने के गम में धरती को भिगो रहे......
तारे एक एक कर टूट रहे और समंदर में खुदकशी कर रहे...
आकाश के नंगे सीने पर अब कोई सजावट नहीं....
सूनापन उसे घेरे है।
रात ने पलक झपकते ही करवट लिया ,
और सुबह मचलती हुयी उफक पे रक्स करने को बेताब...
जितने भी सितारे समंदर की गहरायिओं में डूबे थे,
सभी मनो एकाकार हो नए सूरज के रूप में समंदर के गर्भ को चीर कर बाहर आते हैं।
पीले सरसों के फूलों सी सुकोमल धूप ,
अपनी बाहें पसारे मुझे अपने आगोश में लेने को व्याकुल....
हवा मेरे कानो में गुनगुन करती है और मुझे आश्वश्त भी ,
की तुम हो....यहीं कहीं ....मेरे आस पास...
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और भीगे है नयन....
झूमती हवा है,मचलती दरिया है और है शुभ्र नील गगन।
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खामोश सा माहौल और ख्यालों की बजती झांझरी...
आँखों के आगे रक्स करता तुम्हारा पूरा का पूरा बदन...
जैसे तपती रेत पर नाचती धूप की लहर।
अचानक...
जुल्फों के घने साए मुझपर सांझ कर देते...
तुम्हारी आंखें ,
मंदिर के दिए सी दीप्त हो जाती ।
एक खुशबु मुझतक आती हुयी...
तुमने मेरे चेहरे पे अपनी सांसें छोड़ी,
या ये तुम्हारे हाथ में आरती के थाल से उठती कपूर की खुशबु है....
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...
खिली चांदनी,मदमाती हवा और मिसरी की डली से तेरी हर बात है।
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अब एक सिर्फ बेआवाज़ सी ख़ामोशी है ,और...
तुम्हारे ख्याल की खुशबू।
कभी खुशबू की आहात सुनी है तुमने...
कुछ इस तरह बजती हैं ये,
मनो शांत झील पे नाचती हुयी चांदनी ।
जैसे सूरज के ढलने पर,
उतर रही हो निशा पाने पंख पसारे...
हौले ....हौले...
या नींद में बोझल पलकें,
सपनो की आहट पे क्षण भर को एक दूजे को चूम लें।
खामोश से लफ्ज़,
जैसे दिल में दौड़ते रुधिर की रवानगी।
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और उतरती शाम है...
तुम्हारी आवाज़ में ,
मंदिर की बजती घंटियाँ हैं या मस्जिद का अज़ान है।
-नीहार

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

शब के सन्नाटे मुझको हैं पसंद....

शब के सन्नाटे मुझको हैं पसंद,
मैं खुद के भीतर हो जाता हूँ बंद।
जलता है विचारों का दीप हरपल,
मन के भीतर चलता है एक द्वन्द।
मन आवारा हो भटकता है दर बदर ,
उसको बाँध लें और बुन लें नयी छंद।
पहनता है राख से बुने हुए कपडे वो,
उसके लिए हर समस्या है ज्वलंत।
सपने ओढ कर सोने की आदत है उसे,
देखता है रात दिन सपने वो मनगढ़ंत।
न सागर है, न ही अभ्र , न ही आब कहीं,
अपने भीतर वो ढूंढता रहता है मकरंद।
तिश्नगी उसकी बढती गयी बढती गयी,
चिंगारियां खाकर वो रहता मस्त मलंग।
-नीहार
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हम उसकी आँख में उतर के देखते हैं,
खुद को फिर बन संवर के देखते हैं।
सुना है जिसे छू ले वो फिर से जी जाए,
चलो एक दफा हम भी मर के देखते हैं।
वो चांदनी बन के रात हमारे घर उतरे,
हम धूप सा उसके घर पसर के देखते हैं ।
दुनिया से लड़ता है वो इंसानियत के लिए ,
चलो हम उसके लिए सबसे लड़ के देखते हैं।
वो बसा देता है हर घर उजड़ा जो तूफ़ान में,
चलो बसने के लिए हम भी उजड़ के देखते हैं।
-नीहार
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तुम जो आओगे तो मैं जी जाऊँगा,
फिर से प्यार के गीत गुनगुनाऊंगा।
तन्हा हूँ कहीं भी मैं आता जाता नहीं,
तू पुकारे तो मैं दौड़ा चला आऊंगा।
तेरी पलकों पे आंसू मोती सा लरज़ रहा,
मैं हंस बन तेरे ये मोती चुग जाऊँगा।
कई दिनों से मैंने खुद को भी देखा नहीं,
तू जो आ जाये तो मैं खुद को देख पाउँगा।
कुछ गीत लिखे कुछ धुन सजाये तेरे लिए,
कुछ मौसम से रंग ले तस्वीर मैं बनाऊंगा।
तू जिंदगी है मेरी और तुझसे ही मैं रोशन हूँ ,
जो तू नहीं तो मैं फिर अँधेरे से लिपट जाऊँगा।
-नीहार
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रविवार, 20 फ़रवरी 2011

मन हुआ पतंग

मन हुआ पतंग -
उड़ा दिग दिगंत।
पहुंचा पिया के गाँव -
और रंग गया बसंत।
गाते देवदार फिर झूम,
बदल धरती को लेते हैं चूम,
मन महके बन कर अगरुधूम,
फिर हो जाता सूरज का तुरंग।
मन हुआ पतंग।
जीवन में बस है यही चाह,
ले जाये तुझतक हरेक राह,
खुशियाँ तुझको मैं दूँ अथाह,
भर दूँ जीवन में राग रंग।
मन हुआ पतंग।
-नीहार
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नीम के गाँव की हवा ले लूँ,
आओ अपने जीने की दवा ले लूँ।
पत्तियों से सांस ले लूँ धूप की ,
फूलों से खुशबू ए सबा ले लूँ।
मैं तेरे साथ चलना चाहता हूँ,
पर तेरी भी तो मैं रज़ा ले लूँ।
जीने के वास्ते और क्या चाहिए,
बस तेरा प्यार और दुआ ले लूँ।
-नीहार
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सुनना चाहो तो सुन लो मुझको,
सुहाने ख्वाब सा बुन लो मुझको।
मैं तेरे लब पे गुलाब सा हो जाऊं,
अपनी साँसों से जो चुन लो मुझको।
हर वक़्त सिर्फ एक काम करता हूँ,
तुझको ही याद करूँ ये धुन दो मुझको।
शब् है सन्नाटा है और मेरी याद भी,
अपनी पलकों से तुम चुन लो मुझको।
-नीहार
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जिंदगी उसके बगैर जैसे एक बुरा ख्वाब है,
एक बहका सा दिन है,एक सहमी सी रात है।
फूलों की खुशबू खोयी सी और उड़े से सारे रंग।
बादल को पी के जिए जा रही ये कायनात है।
उसको खुदा से मांगते हैं हम रोज़ अपनी दुआ में,
वो अगर मेरे पास तो फिर रोज़ शब् ए बारात है।
-नीहार

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

प्रिये तुम्हारा ध्यान कर रहा...

प्रिये तुम्हारा ध्यान कर रहा।
अनजाने अनबुझे शहर में,
रात के इस शांत प्रहर में,
यादों के उठते गिरते लहर में,
तेरी खुशबु में मैं स्नान कर रहा।
प्रिये तुम्हारा ध्यान कर रहा।
क्यूँ लगता है मुझको ऐसा,
दबे पाँव चुपके से आकर,
मेरी दोनों आँखें दबाकर,
तू मेरे जीवन में मुस्कान भर रहा।
प्रिये तुम्हारा ध्यान कर रहा।
तेरी हर चाप धड़कन बन जाती,
तेरी हंसी मुझे संगीत सुनाती ,
तेरी आँखों के नीले समंदर में ,
मैं तिरोहित अपनी थकान कर रहा।
प्रिये तुम्हारा ध्यान कर रहा।
-नीहार
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खिली धूप -
ठंडी हवा...
दर्द फुगाँ -
आँख धुआं...
शब्द मंद -
मधुर गंध...
सुलग रहा -
केसर मकरंद...
बिखर गयी -
धूप पसर...
स्वर्ण मृग सी -
गयी उतर...
पादप सब -
झूम झूम....
धरती को -
रहे चूम...
फैल गया -
पुष्प गंध...
हवा गाती -
मधुर छंद...
उड़ चला -
लिए रागरंग...
मन हुआ -
जैसे पतंग...
ढल गया -
फिर बसंत...
फागुन मन -
दौड़ के...
बन जाता -
फिर तुरंग.....
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सर्द है मौसम -
चाँद ज़र्द है...
तारों की राह में -
कोहरे की गर्द है...
सिहरती है हवा सीटियों सी -
खामोश रात में...
शबनम को टूट कर -
बिखर जाने का दर्द है....
आंसू पलक पे -
मोतियों सा बर्फ हुआ है....
याद पिघल के लब पे मेरे -
एक हर्फ़ हुआ है...
जैसे की आँख ने फिर -
पहन लिया धुआं...
उजाले पे ज्यूँ छाया -
अँधेरे का गर्द है....
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मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

सूखे पत्ते की आवाज़

सूखे पत्ते -

झड़े पेड़ से...

और नवांकुर हंस दिए -

खिलखिलाकर।

कितना निरुपाय है यह पत्र...

है कितना शक्तिहीन,

कितना विवश।

खुद को सँभाल नहीं पाता,

और बिखर जाता है.....

टूट कर हवा में तिरता ये सूखा पत्ता।

डोलता हुआ....

अपनी भुजाओं को खोलता हुआ....

ज़मींदोज़ होने से पहले,

मृत्तिका को चूमने से पहले....

कमज़ोर आवाज़ में बोल पड़ा ,

की मैं अगर गिरकर...

मिटटी में न मिलूं -

तो फिर इस पेड़ को खाद कौन देगा...

जीने का स्वाद कौन देगा।

और,

अगर ये न जिया...

मेरे शरीर के निचुड़े रस को,

जो इसने न पिया....

तो फिर तुम्हे ये कैसे जन्म देता...

कैसे तुम्हे इतनी खूबसूरती बख्शता,

तुम्हारे रंग इतने चटकदार और तेजोमय न होते...

और न ही तुम गर्व से सर उठा सकते।

हे नवांकुर पत्र,

तुम्हे खूबसूरती देने को -

हमें सूखना पड़ता है...

हमें टूटना पड़ता है।

तुम्हारे जीवन के लिए ,

हमें मृत्यु का वरण करना पड़ता है।

जीवन चक्र का यही खेल है,

यही है प्रकृति का नियम।


जिस दिन तुम्हारे शावक पत्र,

अपनी कोंपलें फ़डफ़डाएन्गे....

सच कहता हूँ,

उस दिन आप भी....

यूँ ही टूट कर ....बिखर कर...

मिटटी में मिल जायेंगे।

-नीहार

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

झन झन झन बजे मन का सितार ....

झन झन झन बाजे मन का सितार

खन खन खन कंगन करे पुकार

सन सन सन बहता मदिर पवन

हुम्म हुम्म हुम्म बादल भरे हुँकार।

छम छम छम बिजली करती नाच

लह लह लह लहके मौसम की आंच

झर झर झर झरने गाते हैं छंद

कल कल कल बहती नदिया की धार।

झम झम झम बरसे घनघोर घटा

खिल खिल खिल जाए प्रकृति की छटा

कू कू कू कर कोयल छेड़े है मीठी तान

धक् धक् धक् धडके दिल का हरेक तार।

-नीहार

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उठो की मेरे दिल को करार मिले

उठो की तेरी आहट से हैं फूल खिले

उठो की तेरी पलकों से फूटे उजाले की किरण

उठो की फिर गुलशन का कारोबार चले।

उठो की तेरी खुशबु में मैं फिर नहा लूँ

उठो की तेरे गुलाब से लब से रंग चुरा लूँ

उठो की तेरी आवाज़ से मिले कोयल को सुर

उठो की बहती हुयी दरिया को धार मिले।

उठो की चिरियों को मिले मधुर तान

उठो की किसलयों को मिले मुस्कान

उठो की तितलियों को फिर मिले पँख

उठो की मेरे जीवन को फिर श्रृंगार मिले।

उठो की मुझको फिर मेरा प्यार मिले।

-नीहार

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उठो....

पलकें खोलो....

धूप बिखर जाने दो।

उठो...

अन्गराइयाँ लो ....

फूल खिल जाने दो।

उठो ...

सांसें लो....

खुशबु बिखर जाने दो।

उठो...

कुछ तो बोलो....

हवाओं को गुनगुनाने दो।

उठो...

गेसुओं को....

समेट लो और...

चाँद निखर जाने दो।

उठो...

ज़मीन पे...

पाँव रक्खो और...

चिराग जल जाने दो।

उठो...

एक बार फिर...

मुस्कुरा दो...

जिंदगी पा जाने दो।

- नीहार

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बसंत का है आगमन

खिल गया हरेक चमन।

तिग्म्रश्मियों के रंग से

रक्त वर्णी हुआ गगन।

पुष्प गंध बिखेर रहे

भ्रमर पुष्प छेड़ रहे

कोयल की कूक सुनके

पी को याद करे है मन।

यमुना तट पे धेनु लिए

नटखट श्याम घूम रहे

कदम्ब तले राधा खड़ी

भर के उनको अपने नयन।

-नीहार

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असहज रिश्तों की व्यथा का रंग

असहज रिश्तों की व्यथा का रंग मैंने उकेरने की कोशिश की है...

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

मैंने यह स्केच कुछ दिनों पूर्व यूँ ही बैठे ठाले बनाया और इसका नं दिया "रिश्ते".मुझे रिश्ते ऐसे ही पसंद हैं काले या सफ़ेद...पराकाष्टा चाहे वो रंगों की ही क्यूँ न हो...