सोमवार, 30 मई 2011

हिम अच्छादित शिखर सलोना...

हिम आच्छादित शिखर सलोना,
हुआ आह्लादित हृदय का कोना,
बन कर तुरंग मन सरपट भागे,
उछले कूदे बन कर मृग छौना।।
कल कल नदिया है बहती जाती,
सरगम के सप्त सुर हमें सुनाती,
सूरज की किरने जाती नाच नाच ,
मौसम हो जाता बसंत सुहाना ।
मन ठगा ठगा रह जाता है जब,
सूरज पहाड़ों के पीछे छुप जाता,
फिर आकाश के सूने आँगन में,
निखर जाता बन चाँद सलोना।
मन आवारा बादल है बन कर ,
भटक रहा देखो नील गगन में,
प्रकृति है सबसे बड़ी जादूगरनी,
करती है हम पर जादू टोना।

बुधवार, 18 मई 2011

रौशनी का प्रतिनिधि




मुझे - यानि सिर्फ मुझे -


एक अँधेरे ने जकड़ रक्खा है ,


अपने मजबूत हाथों में पकड़ रक्खा है।


वे जानते हैं की मैं समरथ हूँ -


सूरज अपनी हथेली पर उगा सकता हूँ,


और, धूप की चाशनी में खुद को पका सकता हूँ।


वो ये भी जानते हैं कि ,


जिस दिन सूरज कि खेती शुरू हो जाएगी,


उस दिन उनकी अस्मिता ही खो जाएगी।


लोग अँधेरे कि आड़ ले सूरज उगायेंगे ,


और -


अपने हथेलियों पर सरसों सी धूप खिलाएंगे ।


और जब, हथेलियों पर उगा सूरज -


अपनी रौशनी चारों ओर बिखेरेगा , तो -


अँधेरे का देवता कर जाएगा कूच, और तब ही -


सही अर्थों में समाजवाद आएगा ।


समाजवाद यानी वह 'वाद ', जहाँ सूरज कि धूप -


सबको बराबर मिलेगी/ हर चेहरे पर हंसी बराबर खिलेगी।


अँधेरे के देवता यह भली भांति जानते हैं कि,


'समरथ को नहीं दोष गोसाईं ,


समरथ होत खुदा कि नाईं ।'


- समरथ को यह मालूम है कि,


युद्ध और प्रेम में सब जायज है- सब सही है,


और -


समरथ के हाथ में ही किस्मत की बही है।


इसलिए अँधेरे ने जकड़ रक्खा है समरथ कि बाहें ,


अंधी कर दी है उसकी दूर देखने वाली आँखें,


क़तर डाली हैं उसकी नर्म नाज़ुक पांखें।


पर कब तक? कितने दिनों तक?......


कल फिर नए पंख उगेंगे....


आँखों में नयी चमक फिर से कौन्धेगी...


बाहें शक्तिशाली हो फिर से फरकेंगी...


और, तब -


समरथ- यानि मैं


चीड़ डालूँगा अँधेरे कि छाती को- और,


उसके रक्त से , अपनी हथेली कि ज़मीन सींच,


सूरज उगाऊंगा ....


सही अर्थों में,


मैं ही रौशनी का प्रतिनिधि कहलाऊंगा।


बुधवार, 4 मई 2011

सुख का बीज मंत्र

कल ही तो मैंने - एक घरौँदा बनाया था ,
और , आज उसे तोड़ डाला (या तोड़ने को मजबूर हुआ)।
यानि - जिंदगी को एक अनजाने राह पे मोड़ डाला(यूँ खुद से दूर हुआ)।
स्तब्ध हूँ मैं - अशांत भी,
यानि - मेरे भीतर और बाहर का कोना कोना
- रो रहा है, अपनी किस्मत का रोना।
आंसू बहते नहीं - खून भी सफ़ेद हो गया है।
कल तक का महाभारत - आज से चारों वेद हो गया है।
कुछ समझ में नहीं आता - समझना चाहता भी नहीं।
क्यूँकि जानता हूँ - व्यक्ति और व्यक्ति के बीच की जो दूरी है,
वही हर व्यक्ति कई अपनी मजबूरी है।
और कुछ भी बातें हैं-जो भीतरघातें हैं ।
पर, दरअसल - मेरी समझ की दानी बहुत छोटी है,
सीधे सपाट लहजे में, मेरी अक़ल थोड़ी मोटी है ।
तो - जो वह कल का घरौँदा था,
आज मेरे सामने ही मुंह औंधा था।
यानि, न घर बचा था न घाट ,
चारों तरफ बाट ही बाट - सपाट सपाट।
उसी सपाट बाट पर - और उस बाट के चौराहे पर,
मुझे मिला एक ग्यानी/पंडित -
जिसके अनुसार - समय कर रहा था मुझे दण्डित।
हँसते हुए उन्होंने मुझसे कहा की ऐ वत्स
तुमने जो घरौंदे का सपना जो पाल रक्खा था,
उसे बनाने के लिए तुम निकल गए वक़्त से आगे -
इसलिए, आज तुम खुद को पा रहे अभागे।
तुम जो सोचते हो - वही रोचते हो।
पर कुछ लोग जो रोचते हैं , वो सोचते नहीं।
तुम्हारा घर कुछ लोगों की दोतरफा सोचों का नतीजा थी ,
इसलिए भरभरा के बालू के मकान सा,
आ गिरी थी हवा के हलके झोंको से।
तुमने सोच और रोच को एक किया ,
काम कई नेक किया।
जिस किसी की आँख में आंसू देखा,
उसे उँगलियों की पोरों से उठा , भर लिया अपनी आँख में,
और उनके भीतर की आग को पी - बदल दिया यसे राख में।
तुम दूसरों की सुख शान्ति के लिए जिए-
दूसरों के हिस्से का ज़हर तुम ही पिए।
जब तुमने यह सब किया , तो सचमुच तुम ने जिंदगी को जिया है।
यह तुम समझ लो की तुम्हारा घर टूटा नहीं - विस्तृत हो गया है - बड़ा हो गया है।
विस्तृत नभ - फैली हुयी धरती के बीच,
तुम्हारा "मैं" सिमट कर छोटा हो गया है।
घरौंदा/घर टूटने का अब गम, नहीं करना है,
क्यूँ की तुम्हारे लिए तो सबका घर अपना है - सुख अपना है -
दुःख अपना है - और यह सब,
उनके लिए बस सपना है,
जो सोच और रोच को अलग करते हैं -
वो रोज़ एक नयी मौत मरते हैं।
तुम रोओ मत - दुखी मत हो -
सुख का बीज सर्वत्र बोओ ।
अपने पाप दूसरों के पुण्य से धोओ

एक के घर में पैर - दूसरे के घर में सर,
तीसरे के घर में धड रख कर -
चैन की नींद सोओ।