सोमवार, 23 अप्रैल 2012

उत्थान और पतन के बीच का द्वंद

उत्थान और पतन के बीच -
मनुष्य खो देता है अपने व्यक्तित्व को......
ऊंचाइयों का शौक  उसे, 
गिरने को कर देता है मजबूर -
वह हो जाता है अपनों से दूर  ,
और -
खुद से भी इतना दूर  कि, 
 आईना भी उसे पहचानने से -
 कर देता है इंकार,
एक काम का आदमी -
स्वयं को कर देता है बेकार....
इसलिए -
हे मनुष्य !
उत्थान और  पतन के द्वंद् से मुक्त हो ,
लीन रहो अपनी कर्म साधना में....
विजय और पराजय की चिंता के  बिना ,
कर्म पथ  पर निर्बाध चलते रहो....
कहीं ना कहीं -
कभी ना कभी तुम्हें,
मिल जाएगा वह चेहरा -
जिसकी खोप्ज में तुम,
रहे भटकते वर्षों से -
और जिसे पहन जब तुम,
आईने के पास जाओगे -
तो सच कहता हूँ ,
यसै वक़्त तुम -
खुद ही खुद को पाओगे। 

- नीहार 




मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

तमस की पीड़ा

नींद आ रही....
अधखिले पुष्प क़लियों के स्फुरण में -
उनके मुरझा के बंद होने की प्रक्रिया ,
पलकों में दुहराई जा रही.... ।
रात -
तमस की पीड़ा का  ,
विषपान करने -
मुझे अपने पास बुला रही ....
वह जानती है कि,
उसकी पीड़ा का -
मैं ही वरण कर सकता हूँ....
उसके दुख का मैं ही हरण कर सकता हूँ।
मैं -
बस अपनी आँखें  मूंदता हूँ , 
और -
रात एक ख्वाब कि तरह -
खूबसूरत हो  जाती है  ।
सुबह -
सूरज कि किरणों पे सवार ,
खुशियाँ आ जाती मेरे द्वार -
तमस कि पीड़ा हो जाती निर्विकार। 
- नीहार 





शनिवार, 7 अप्रैल 2012

यात्रा अनन्त हो....

न आदि हो और न अंत हो,
पर यात्रा अनंत हो ।
कर्म कुछ ऐसा करें कि,
गुंजायमान दिग दिगंत हो ।
रचें कुछ ऐसे चित्र कि ,
चहुँ ओर बिखरा बसंत हो ।
लेखनी में हो सामर्थ्य असीम ,
और विषय ज्वलंत हो ।
स्वप्न दर्शी हों हम सभी,
और हमारी कल्पना जीवंत हो ।
न ही झूठ कि खेती करें,
और न ही बातें मन गढ़ंत हो ।
- नीहार