मंगलवार, 29 मई 2012

मैं - अजल से गाता रहा ..... तुम – अजल से सुनती रही



मैं पिघल रहा था ,
उसके बदन के ताप से –
और वो रात भर लिपटी रही,
मुझको चन्दन किए हुये।
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मैं –
आकाश हूँ ....  
झुक जाता हूँ,
तुमपे हरदम .....
तुम –
पृथा हो कर ,
 हर वक़्त मुझे –
थामे रहती हो।
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यादें –
समंदर हुयी जाती हैं ,
आँखों  के अंदर......
मैं –
उन्हे पलकों पे,
आने की –
 इजाजत नहीं देता ।
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धूप –
झुलसा गयी ,
भीतर तक मुझे.....
लेकिन –
तेरी खुशबू ए याद ने,
मरहम सा संवारा मुझको......
जब भी –
मुझको सुनाई देती है,
मंदिर में बजती घंटी.....
यूं लगता है –
जैसे की ,
तुमने है पुकारा मुझको ।
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मेरे बदन का ज़र्रा ज़र्रा -
याद करता बस तुम्हें ही....
मैं - अजल से गाता रहा ,
तुम – अजल से सुनती रही ।
हर्फ़ दर हर्फ़ –
हारसिंगार हो झड़ते रहे.....
और पत्ते पत्ते पे –
गजल लिखती गयी।
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हर दिन
तुम मुझमे उतर जाती हो,
धूप सी ...
हर रात –
मैं बस तुममें ही,
बीत जाता हूँ।



 - नीहार