गुरुवार, 30 जून 2011

ताज़ी क्षणिकाएं

कुछ नयी क्षणिकाएं
खुदा भी आजकल मुझपर ,
कुछ मेहरबान ज्यादा है –
उसको पता है आजकल मैं,
सिर्फ तेरी ही इबादत करता हूँ।
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सितारे सुलग रहे ,
रात के माथे पे यूं -
तेरे माथे पे जैसे,
पसीने चुहचुहा रहे।
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तेरे माथे से जो पसीने को –
अपने हाथों से पोछा मैंने,
हजारों जुगनू मेरी हथेली पे,
रक्स करने लगे ।
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मेरे पाँव खुद ब खुद-
तेरे दरवाजे तक मुझे ले आते,
आज कल मुझे मंदिर जाने की –
आदत सी हो चली है।
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मैं आजकल अपने चेहरे पे –
कई चेहरे लगा लेता हूँ,
जो जैसा देखना चाहे मुझे –
उसे वैसा ही चेहरा दिखा देता हूँ।
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हंस मोती चुगता है ,
जैसे ही उसने ये सुना –
मेरी हथेली पे अपनी आँख के,
मोती टपका दिये।
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वो रात को चुपके से ,
अंधेरा ओढ़ लेता है –
दिन के उजाले उसे,
सूरज बना देते हैं।
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रेत पे लिखता है नाम ,
अपनी उँगलियों से वो –
वक़्त पानी का रेला है,
हर नाम मिटा देता है।
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हर सुबह घर से वो ,
निकलता है ये सोचकर –
शायद कभी अपने घर का,
रास्ता वो भूल जाये।
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हर चेहरे मे ढूँढता है,
खुद का चेहरा हर समय –
जब भी घर से निकलता है,
तो आईना पहन लेता है वो।
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बादल को अगर तुम –
ज़ोर से रुलाना चाहो,
सूरज की आग को,
फिर से हवा दो।
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अपनी मुट्ठी मे –
गुच्छे भर अमलताश लिए,
सोचती रही रात भर की,
धूप उसकी मुट्ठी मे कैद है।
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थरथराते होंठों से –
वो नाम ले रहा है मेरा,
उसको भी वक़्त ने
बोलना है सिखा दिया।
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उसके चेहरे पर जो –
पल भर को झुका मैं तो,
लोगों ने कहा देखो –
आंशिक चंद्रग्रहण है लग गया।
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मंगलवार, 21 जून 2011

जय जय हे सरकार

जय जय हे सरकार

कुछ सालों मे ही कर डाला देश का बंटाधार।
जय राजा, जय परजा जय जय हे सरकार॥

भाव चढ़े बाज़ार में ऐसे,
सुरसा मुंह खोले हो जैसे,
कुंभकरण की नींद सो रहे,
तुमको है धिक्कार।
जय जय हे सरकार॥

जाति द्वेष को फिर बढ़ाया,
अधर्म का पाठ पढ़ाया,
देश जाये पर कुर्सी न जाये,
यही है तेरा विचार।
जय जय हे सरकार॥

आत्मदाह करत लड़कण सब,
धिक्कारत तुमको बड़कण सब,
तुम तो ले डूबे हो भैया,
हमरी नाव मँझधार।
जय जय हे सरकार॥

कभी दक्षिण कभी वामपंथ हो,
कभी कुरान कभी वेद ग्रंथ हो,
समय देख कर चाल हो चलते,
जैसे कोई मक्कार ।
जय जय हे सरकार॥

धर्म भेद का बोया है काँटा,
देश को है टुकड़ों मे बांटा,
जिस दाल पर बैठे हो भैया,
उसी पे किया प्रहार।
जय जय हे सरकार॥

प्रजा निरीह निर्जीव तंत्र है,
असत्य और हिंसा मूल मंत्र है,
सूचना का अधिकार है लेकिन,
सेंसर हॉत समाचार।
जय जय हे सरकार॥

बहुत हुआ है दूर का दर्शन,
बहुत हुआ है गर्जन तर्जन,
अब तो बंद करो अपना तुम,
सब असत्य प्रचार।
जय जय हे सरकार॥

मस्त मलंग निहार बोले,
गर तुम्हरे दिल मे हो शोले,
मत उसको पानी बनने दो,
बनने दो अंगार।
जय जय हे सरकार॥

-नीहार

गुरुवार, 16 जून 2011

मन की पीड़ा व्यक्त करना चाहता हूँ...

मन की पीड़ा व्यक्त करना चाहता हूँ...
मैं तुम्हारे अधर में गुम्फित हो के आज,
अपने वेदना को स्वर देना चाहता हूँ....
मन तो है अविरल सलिल की धार सा,

अपनी उद्दाम वासना के वेग के अतिरेक में,
तोड़ डाले है भुजंग सा सर पटक,
रास्ते की हर शिला को....
मैं तुम्हारे तन से यूँ लिपटा हुआ,
जैसे लोहित सूर्य से उसकी किरण,
मैं चकित हूँ देखता तुमको अपलक,
ज्यूँ बधिक को देखता कोई हिरन...
मैं तप्त होकर घूमता बेचैन सा,
और फिर ज्वाला सी धधक कर फूट जाता हूँ....
मैं तुम्हारे बदन की रागिनी से ,
रंग के निर्झर सा फिर टूट जाता हूँ...
मैं तुम्हे जब भी कभी अपलक देखूं,
रूप की अराधना का मार्ग होता है प्रशस्त,
भर के तेरे रूप को अपनी आँख में फिर,
आसुओं की धार सा बहता हूँ मैं...
तुम सुरीली यामिनी की चन्द्रमा सी,
खिल के हरती हो मेरा सारा तिमिर,
मैं तुम्हारी सांस की वीथियों से गुज़रकर,
तुमको एक रंग और रूप देना चाहता हूँ...
मैं तुम्हारे केश में उलझे मेघ सा,
टूट कर सावन सा बरसना चाहता हूँ...
कौन है जो रोकता है मुझको आज,
कौन है जो मेरी बाहों को बाँध लेता है...
कौन है जो बादलों की ओट से ,

आवाज़ देता है मुझको हर घडी ...
मैं किसी राका की उजियारी किरण ,
मैं तुम्हारी आँख में जलना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारे काँधे पर रख कर अपना सर,
आखरी नींद फिर मैं आज सोना चाहता हूँ।


-नीहार

सोमवार, 13 जून 2011

क्षणिकाएं -2

वो आँख में जलता है -
तो आंसू हो जाता है ,
आग को पानी होते हुए-
कई बार मैंने देखा है।
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जब भी मैं तुम्हारी नज़रों में -
उठने की कोशिश करता हूँ,
अपनी ही नज़रों से गिर जाता हूँ
अश्रु हरदम अधोमुखी होते हैं ।
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आज कल वो अपनी पलकें -
खोलता नहीं,
उसे पता है-
मुझे उसकी आँखों में कैद होना ,
अच्छा लगता है।
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बस यूँ ही -
करवट बदलते,
मेरी रात गुजरी है...
तकिये की सिलवटों में -
मैं अपने चेहरे की,
झुर्रियां ढूंढता रहा।

शनिवार, 4 जून 2011

क्षणिकाएं

रुई के फाहे पहने थी -
जब पेड़ों की हर डाल,
मौसम के मिजाज़ की खबर -
मुझको ठंडी हवाओं ने दी।
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बर्फ से जब भाप -
उठती देखा तो ये सोचा मैंने,
उसके सीने में भी-
कोई आग धधकती तो है।
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बस तेरा ख्याल पूनो के चाँद सा -
खिला रहा था रात को....
वरना, जिंदगी में अँधेरे के सिवा -
कुछ भी नहीं...
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यूँ सुलगती है आग,
तेरी यादों की कुछ इस तरह -
जैसे पहाड़ों पे जमे बर्फ,
सूरज की रौशनी में सुलग जाते हैं।
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मैं तुम्हे छूता हूँ ,
तो आग हो जाता हूँ -
वरना, मेरे भीतर कुछ नहीं,
है बस राख के सिवा।
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दीवार पे सर पटक कर,
कह रहा है खुद से वो -
अपने भीतर के सर्प(दर्प) का,
यूँ फन कुचल रहा हूँ मैं।
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सूरज हूँ -
धूप उगलता हूँ....
दूसरों की खातिर मैं -
अपनी ही आग में जलता हूँ।

- नीहार