सोमवार, 25 जून 2012

प्यार...


तुम लकीर के उस पार थी –
और,
मैं लकीर के इस पार...
न ही तुम सीता की तरह,
किसी लक्ष्मण के वचन से वद्ध थी –
और,
न ही मैं किसी काल के हाथों –
रावण रूपी कोई खिलौना था.....
न ही तुम्हें खुद को अपहरित करा,
किसी मर्यादा पुरुषोत्तम के विजयश्री का –
कारण बनना था....
और न ही –
मुझे किसी राम के हाथों मृत्यु का वरण कर ,
खुद को निष्कलंकित मोक्षत्व ही देना था....
हम बंधे थे अपने अपने,
परिष्कृत संस्कार से ...
और,
इसलिए तुम....ता -उम्र इंतज़ार करती रही मेरा,
की मैं कब उस लकीर को लाँघूँ...
और,
मैं इंतज़ार करता रहा तुम्हारा....
की कब तुम लकीर के इस पार आओ...
फर्क कुछ भी न था...
हमारा इंतज़ार ही हमारा प्यार था....
और-
जब हमने यह समझ लिया तो –
हमारे बीच की लकीर ,
खुद ब खुद मिट गई....
हम एकाकार हो गए....
-    नीहार (चंडीगढ़ ,जून 23, 2012)

शुक्रवार, 8 जून 2012

क्षणिकाएँ


क्षणिकाएँ
सुलग उठती हैं यादें,
जंगल में होकर पलाश –
मैं अपनी हथेलियों के बीच,
उनकी आग छुपाता फिरता।
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सोया रहा रात भर मैं,
ख़यालों की छाँव में –
याद तेरी हरसिंगार हो ,
झड़ती रही झड़ती रही।
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खुशबू जो तेरी याद की ,
आई शाम ए हवा के साथ –
तेरा  ख़त समझ के ,
मैंने पढ़ लिया उसे ।
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मुझको सुबह के उजालों ने ,
नीलाम  कर दिया –
वर्ना मैं चाँद बन के,
रातों को चमकता ।
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खुली जो आँख तेरी –
तो धूप पसरी है.....
वरना, तमस की पीड़ा –
बिखरी थी हर तरफ।
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कोई क़रीब आके मुझे -
बेनक़ाब कर गया .....
वरना, मैं ख़ुद को भी –
कभी पहचानता नहीं ।
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आओ कि आके तुम मुझे –
बाहों में भर लो आज .....
मैं हिमशिला पिघल कर ,
दरिया सा उफनना चाहूँ ।
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सुबह की धूप –
थोड़ी सी शरमा गयी.......
आपके चेहरे की रंगत ,
जब से उसने देख ली।
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खिड़कियाँ रात को,
ना खुली रखना....
मेरी याद चुपके तेरे –
सिरहाने आ बैठेगी ।
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