रविवार, 29 अगस्त 2010

ख्याल और उनसे उभरते चंद सवालात

यूँ ही ख्याल आता है मुझको की जो तू मेरा कुछ भी नहीं तो फिर आँखें तुम्हे हर जगह तलाशती क्यूँ हैं,क्यूँ पत्तों की सरसराहट में मुझे तुम्हारे क़दमों की चाप सुनायी देती है,क्यूँ शाम के आईने में मुझे तुम्हारा अक्श चाँद सा उभरता दिखाई देता है....क्यूँ तुम्हारे साँसों की खुशबु मेरे इर्द गिर्द बुनती है एक घेरा जो मुझे हर वक़्त किसी मंदिर में जल रहे लोबान की खुशबु का एहसास कराती है....

एक निःशब्द आवाज़ है जो मुझसे कहती है की कहीं हो तुम मेरे आस पास , खिलखिलाती धुप सी....मचलती सागर की लहरों सी....बरसती सावन की बूंदों सी....उमरती घटाओं सी....हर वक़्त मेरे आस पास हो तुम...मुझमे ही कहीं हो गुम।.....

तुम्हारी सुगबुगाहट में मुझे सूरज के निकलने का अन्देशा होता है....तुमहारी जुल्फें जब बिखरती हैं तो शाम उतर आती है....तुम्हारी आँखों की पुतलियाँ जब नृत्य करती हैं तो मेरे दिल की धडकनों में संगीत के सुर सजाती हैं.....बस जो तुम हो तो सब है....जो तुम नहीं तो कुछ भी नहीं।

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अपने आप से अपेक्षाएं रखना बुरी बात नहीं, पर शायद उनका पूरा न होना कहीं तोड़ता है भीतर ही भीतर....शनैः शनैः ....आदमी का मेरुदंड धीरे धीरे गलत जाता है....उसका खुद पर से विश्वास कह्तं होता सा जाता है और वह हो जाता है गूंथे हुए आटे की माफिक , जिसे जो जैसा चाहे वैसा रूप देकर, नाम देकर , पका डालता है वक़्त के गर्म तवे पर.....अपने ही हिसाब से।

इसलिए अपेक्षाएं रक्खे बिना ही जीना ज्यादा अच्छा है। न तो मेरुदंड गलता है ... न ही विश्वास ख़त्म होता है खुद पर से , और न ही वह आदमी गूंथे हुए आटे में तब्दील हो जाता है।पर ऐसा नहीं होता...आदमी तो आदमी ही है...खुद से वह अपेक्षाएं रक्खेगा ही....प्रयासरत रहेगा ही और एक मकड़ी की तरह धीरे धीरे ऊपर चढ़ेगा ही...जाल बुनेगा ही।

और....फिर एक दिन ....इतनी मिहनत और मशक्कत के बाद जब वह मकड़ी नुमा आदमी अपने फैलाये मकड़ जाले में जब चैन की नींद सो रहा होगा , तो सदियों से इंतज़ार करते किसी गिरगिट(काल) की लपलपाती जिह्वा के गोंद्जाल से चिपक उदरस्थ हो जाता है वह अदना सा आदमी।

मुझको जला के खुशबु की वो बारिश सा कर गया

मुझको जला के खुशबु की वो बारिश सा कर गया,
शाख से टूटे हुए पत्तों सा वो मुझपे बिखर गया।
वो हजारों हाथ से बस मांगता है दुआ मेरे लिए ,
नंगे पाँव तपती धूप में मंदिर वो चल कर गया।
हर तरफ है घुप अँधेरा और तीरगी बियाबान सी,
उसने जुगनू को पकड़ कर रौशनी को घर किया।
है आग का दरिया मेरे भीतर और बाहर हर तरफ ,
यह जान कर ही उसने तो खुद को है समंदर किया।
बस गया है एक मूरत सा मेरे दिल में वो मेरे खुदा,
मेरी रूह को छूकर उसने मेरे जिस्म को मंदिर किया।
- नीहार

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

प्रश्न और उत्तर

यूँ सपने पकड़ना बुरी बात नहीं - पर,

असफल होने पर रोना या दुखी होना बुरी बात है।

मैंने बचपन से अपने तसव्वुर में कई सपने पाल रक्खे थे...

कुछ रंगीन... कुछ सफ़ेद... कुछ गीले...कुछ सूखे...

जवानी का सूरज चढ़ता गया - सपनो की बर्फ गलती गयी।

पर मुझे न तकलीफ होना था... न हुआ।

मुझे लगा ही नहीं की दुक्खों ने मुझे छुआ।

मुझे सदा ये लगता रहा की दुःख मुझे माँज रहे हैं,

या - फिर मैं ही दुक्खों को माँज रहा हूँ।

पर, शायद मैं यह नहीं जान पाया

की -

मांजने और मंज्वाने की इस क्रिया प्रक्रिया में -

कहीं न कहीं मैं -

भीतर से दरक रहा था - टूट रहा था।

मेरा संग खुद से ही छूट रहा था।

और, अचानक जब दर्द की एक लहर - मुझे सर से पाँव तक चीर गयी

तो लगा -

कि इन सबसे मुक्ति पाने की कगार पर हूँ -

मुक्ति?

और किस से ?

प्रश्न बहुत सारे हो सकते हैं - और उत्तर भी।

उत्तर मेरे प्रश्नों को बहरा कर सकते हैं- या,

मेरे प्रश्न - उत्तरों को नंगा कर सकते हैं।

पर, सच तो यही है - कि,

चाहे प्रश्न कि जीत हो या उत्तर की ,

दरकेगा - कसकेगा - रिसेगा ,

मेरा ही कोई कोना - मेरे ही अन्तः का कोई एक भाग।

और, इसलिए अपने को हार जीत की सीमा से ,

परे मैं रखता हूँ और रखना चाहता हूँ।

और ,

इस कोशिश में -

कुछ न कुछ - कहीं न कहीं से दरकता हूँ।

टूटता हूँ - छूटता हूँ - खुद ही खुद को लूटता हूँ।

रविवार, 22 अगस्त 2010

कुछ उदगार

रिश्तों का संभवतया कोई रंग नहीं होता और रिश्ते न ही रूपवान होते हैं। रिश्ते तो बस रिश्ते हैं - चाहे जैसे भी हों। उनमे रूप और रंग ढूँढने की काबिलिअत हम में कहाँ है ? और अगर है भी तो हम उसे ढूंढ कर करेंगे भी क्या?
मुझे तो लगता है की व्यक्ति और व्यक्ति - परक सोचों से हर व्यक्ति को - या व्यक्ति विशेष को मतभेद होना स्वाभाविक है। तो क्या मतभेदों की वजह से या उनके कारण रिश्तों का अस्तित्व खत्म हो जाए। कभी नहीं - रिश्ते जितने मुलायम होते हैं - रिश्तों की नींव उस से भी ज्यादा मजबूत होनी चाहिए।
- पर पता नहीं क्यूँ - सारे प्रश्न अधूरे होते हैं - उत्तर भी होते हैं - पर अधूरे ही। - रिश्ते भी अधूरे ही रह जाते हैं शायद - पूर्णता की हद किसने जानी है?
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प्रश्न और उत्तर ? समस्या और समाधान ? - बहुत बडी उलझनें हैं। अस्तित्वहीनता के बोझ से दब जाता हूँ - डर जाता हूँ और फिर उस डर से उबरने की कोशिश में लड़खड़ा भी जाता हूँ। कुछ नहीं सूझता - मन भटकता रहता है , जंगल आकाश वन .... भागता रहता है मीलों नंगे पाँव ,रेत - पानी - कंकडों के ऊपर - नंगे पाँव - लहूलुहान पाँव से भागता मन थक सा जाता है - दूर कहीं शायद कोई बोलता है - अभी तो शुरुआत है - और मन की आँखें भर आती हैं - मन रोता है... शांति खोता है.... सो जाना चाहता है थक कर - आराम से - वो नींद जहाँ जगने की नौबत ही न आये...
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कभी कभी मन अजीब से दहशतों की कैद हो जाता है। अगर मैं जो तेरा कुछ भी नहीं- तो ......!!!!पूरा अस्तित्व हवा हो जाता है - जिस्म में किरचें खराश सी उग आती हैं...जीस्त को ये एहसास छेद डालते हैं। ..... कितना बेबुनियादी है ये एहसास - पर बेबुनियादी क्यूँ?.....जिंदगी के फैसले आप से आप नहीं होते - उनकी धाराओं को समयानुसार मोड़ने की ताकत हमारे बाजुओं में होनी चाहिए - पर 'गर बाजू ही न हों? या हों भी तो मजबूत न हों...या मजबूत हों तो टूट गए हों....तो ये सारे डर एक साथ मिलकर मेरी मानसिकता पर सर्प का दंश करते हैं ...... कहाँ हो त्रिलोचन? क्यूँ नहीं पी लेते सारा विष मेरे मानस का और कर देते मुझे विषमुक्त? आ जाओ त्रिलोचन और इस नागदंश से मुझे मुक्त तो करो।
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कभी कभी मुझे ऐसा लगता है की मैं एक ऐसे अंधे मोड़ पर खड़ा हूँ , जहाँ सिवाय मौत के और कोई रास्ता नहीं खुद के बचाव का.....अकेलापन ....ठंडी चेतना को जड़ बनता है,मन को ताप दे तन को साध जाता है - यही अकेलापन है जो मुझे सर से पाँव तक या पाँव से सर तक , निःशब्द काटता है....धीरे धीरे ....जैसे सूखी लकड़ी को टुकड़ों में बांटती आरा मशीन।
यह अकेलापन का जो अभिशाप है- वह मेरे लिए ही है...सर्वथा मेरे लिए ....जंगल में रहूँ या भीड़ में ...अकेला ही रहना होता है। नियति ही यही है....इसे झेलना ही है....किसी न किसी तरह।
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शून्य का विकल्प क्या हो?ओर शून्य का प्रयोजन क्या है? क्या है आखिर इस शून्य का चरित्र?और क्या है इसका प्रारब्ध?.....सच पूछो तो इन अनुत्तरित प्रश्नों के दायरे के भीतर रह कर भी मैं - दायरे से बाहर हूँ - इसलिए नहीं की इस शून्यता को मैं नहीं झेलता, वरन इसकी तो मुझे आदत सी हो गयी है।
सोचता हूँ की जिस दिन धरती काँप उठेगी उसी क्षण हम सबको अपना सर लेकर भागना होगा, उस आकाश के नीचे, जो गिर चुका हो।
मैं तो हर उस जगह अपने आप को पाता हूँ जहाँ शून्यता का एहसास गाता है राग गान्धार और भीड़ की भीड़ मांदर की थाप पर राग भैरव की अहीरी तान सुनती है - ( नाराज तो नहीं हो कृष्ण?)...मन कैसे शांत हो ... मन की पीड़ा क्या वृथा है? ओर अगर है, तो फिर उसकी शान्ति का उपाय क्या है?
मृत्यु!!!!! शायद यही उत्तर हो....शायद.....
- नीहार

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सोमवार, 16 अगस्त 2010

बिखर जाता हूँ जब टूट के पत्तों पे मैं नीहार.......

कुछ बातें तुम में हैं ऐसी जो मुझको खींचा करती हैं,
तुम्हारी खिली सी हसीं हर पल मेरी पीडाओं को हरती हैं।
मैं सागर की लहरों सा हर पल बस साहिल से टकराता हूँ,
मैं चीड वनों की मदमाती सी झुंडों में बस गुम हो जाता हूँ,
मैं स्वप्न लोक में विचरण करता हूँ तुमको अपने संग लिए,
तेरी यादें फूलों सी मुझ पर फिर बिखर बिखर कर झरती हैं।
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मुक्त हो आकाश में मन मेरा कर रहा विचरण प्रिये,
सांझ की बेला में मैं करता नित पी का सुमिरन प्रिये।
चक्र है बस समय का जो चल रहा देखो पल पल प्रिये,
सांस तेरी घुल गयी है मुझमें जैसे घुली धड़कन प्रिये।
तुम खिली हुयी चांदनी बन छिटकी हुयी हो इस समय,
मैं हुआ विस्तृत तुझको समेटे जैसे हो नील गगन प्रिये।
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बिखर जाता हूँ जब टूट के पत्तों पे मैं 'नीहार' ,
कुछ लोग मोती समझ उठा लेते हैं मुझको।
लेते ही हाथों में जो हो जाता हूँ मैं बस पानी ,
फिर धीरे से हथेली से गिरा देते हैं मुझको।
मैं बादल बन भटकता रहा मन के गगन में,
कोई भी हवा अपने संग उड़ा लेती है मुझको।
मैं नदी की पवित्र धार सा बहता रहा अविरल,
वक़्त जहाँ चाहे वहां से मुड़ा देती है मुझको।
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-नीहार (जमशेदपुर , अगस्त १२)

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

चेहरे

" चेहरे ", यह चित्र मैंने सन १९९८ में अपने जमशेदपुर प्रवास के दौरान बनाया था।
- नीहार