बुधवार, 8 अप्रैल 2015

अँधेरे की पाँखें ...

मील भर चल कर -
अँधेरें ने पाँखें फैला दी,
और थकी हुई सी जलती बुझती आँखें -
धुँए में लिपट सी गई...
एक सन्नाटे का चुप -
हज़ार झरनों के फुहारों में बज उठा।
अक्सर मैंने -
ख़ुद को अकेले ही से जूझते देखा है...
और जब थक जाता है यह अकेलापन,
तो तूलिकायें बोलने लगती हैं-
रंगों की भाषा बड़ी विचित्र होती है,
उसे समझने के लिये -
ख़ुद रंगहीन होना पड़ता है।
सूखे पत्तों की सरसराहट,
बदलते मौसम का लिबास है... 
तूलिकायें जब सूख जाती हैं,
तब कैनवास पर जो रंग उभरता है -
वह सिर्फ़ बंद आँखों से ही देखा जा सकता...
लकीरों की भाषायें , 
सिर्फ़ फ़क़ीर ही समझ सकते...
इसलिये-
मन लागो मेरो यार फ़क़ीरी में ...
-नीहार

सोमवार, 16 मार्च 2015

दृष्टिकोण

तुम्हारी आँखें-
मुझे देखती नहीं...
वरन मुझसे ही देखती हैं,
मैं तुम्हारी दृष्टि हूँ -
और तुम मेरा दृष्टिकोण।
- नीहार
*********************
कुछ बुझे हुये दीपक ,
 जले हुये पतिंगों की राख-
मेरी हथेलियों पर,
सूरज ने सुबह सुबह-
 ये कविता लिख दी ।
-नीहार
****************************
संबंध- 
दिये की थरथराती लौ की तरह होते हैं...
हवा के हल्के झोंके,
उसकी लपक को -
धुँआ कर देने को काफ़ी हैं...
ज़रूरत है -
उन्हें प्रेम की ओट से बचाते रहने की अनवरत ।
- नीहार

बुधवार, 11 मार्च 2015

कविता १

तुम झोलियाँ भर भर ख़ुशियाँ बाँटती हो-
मुट्ठी मुट्ठी  मैं संभालता हूँ उन्हें ...
और ,
फिर भी मेरे हाथ -
कुछ नहीं लगता...
ख़ुशियाँ रेत हो कब,
मुट्ठी से सरक जाती-
पता ही नहीं चलता...
मैंने सीखा है -
ख़ुशियों को संभालने की ज़रूरत नहीं ...
बस उन पलों को भरपूर जीना चाहिये ,
जो खुशियों को आपके दरवाज़े तक -
बेआवाज ले आते हैं ...
ख़ुशियों को जीना ही पाना है-
ख़ुशियाँ पूँजी नहीं,
जो जमा होती रहें ...
- नीहार