बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

मैं ख्वाब की रेत बिछाता हूँ...

बहुत याद आते हो मुझे -
पलकें बंद करूँ तो,
ख्वाब सा देखूं तुम्हे मैं -
आँख खुलते ही तुम मुझे ,
हर शय में शामिल दिख रही हो....
यह प्यार मेरा प्रसश्त करता ,
आराधना का मार्ग जानम -
चल के जिसपे,
मैं पहुँच जाता हूँ तुम तक....
मेरे थके हारे मन का विश्रामस्थल,
मेरे जन्मों की तपस्या का प्रतिफल है

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मैं ख्वाब की रेत बिछाता हूँ,
और नंगे पाँव -
तुम तक भागा आता हूँ....
मेरे बदन से चूते हुए श्वेद कण ,
उस रेत पे रात के जुगनुओं की तरह -
दमक उठते हैं....
तुम उन्हें अन्जुरिओं में उठा,
अपनी आँखों में भर लेती हो -
मैंने तुम्हारी आँखों में,
अपने लिए असीम प्यार देखा है.....
मैं उस प्यार के महासागर में -
यूँ ही डूबा रहना चाहता हूँ....
हाँ ,
मैं जीना चाहता हूँ ......

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

भ्रमित भ्रमर का ज्ञान

पुष्प गुच्छ से लदा पादप,
भ्रमर रहत है अकुलान।
किन पुष्प मुख चूम के,
करूँ मैं रस का पाण ।।
भ्रमित भ्रमर को देख के,
गुन्चन सब मुसकाय।
मधुर गुंजन श्रवण को,
सबका मन ललचाय।।
उड़ जाता कभी उधर को,
फिर जाता इस ओर।
उड़ता रहता यूँ ही भ्रमर,
थामे लालच की एक डोर।।
एक पुष्प कहे विहँस के ,
प्रियतम आओ मेरे पास।
मैं तुमको आओ देती हूँ,
जीवन दायिनी श्वास॥
तभी दूसरी बोल उठी,
जाना तुम उत ओर।
मेरे पास आओ प्राण मेरे,
तुम हो मेरे सिरमौर॥
बोल उठी मादक रस पूरित,
मकरंद युक्त एक रतनार।
मेरे पास रहो तुम भँवरे,
कम से कम दिन चार॥
भ्रमित भ्रमर थक हार कर,
बैठा कंटक युक्त एक डाल
रस था गंध वहां थी ,
मकरन्दी माया जाल॥
पर थी नीरव शांति वहां,
और था वहां सुख संतोष।
था रूप रस रंग वहां ,
पर था आनंद का एक कोष॥
भ्रमर समझ गया सुख का मूल,
नहीं रूप रस रंग और राग
सुख का मूल तो संतोष में ,
सुख का मूल है त्याग
उड़ता उड़ता भ्रमर पुनः ,
जा पहुंचा पुष्प के पास।
रक्खो अपना रूप रंग ,
और रक्खो अपना सुवास॥
ये सब नहीं सुख के मूल,
ही इनसे मुक्ति है मिलती।
ही इनसे इंसान के अन्दर,
सुवाषित पुष्प है खिलती॥
तुम्हे अगर सच में करना हो,
मधु रस का ही पाण
तो फिर तुम नित किया करो,
अपने निज का नित दान॥
दान से बड़ा पुण्य नहीं कोई,
बड़ा कोई तीरथ ध्यान।
ही पूजा इससे बड़ी कोई,
ही बड़ा कोई है स्नान॥
कंटक ने लोलुप भ्रमर को,
कर दिया संत समान।
भ्रमर गुण गुण कर बांच रहा,
अपना ताज़ा ताज़ा ज्ञान॥
- नीहार (२०/०२/२०१२)

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

तुम हो तो मैं हूँ....

मैंने तुम्हारी खोज में -
दिग दिगंत में हवाओं को,
भेज रक्खा है....
मुझे ऐसा क्यूँ लगता है,
की मेरे ह्रदय का हर कोना,
तुम्हे ही अपने अन्दर -
छुपा के बैठा है
हवाएं यूँ ही -
लौट आती हैं खाली हाथ ....
पर मुझे तुम्हारी कमी,
नहीं महसूस होती ....
क्यूंकि तुम मुझमें -
उसी तरह शामिल हो,
जैसे जल में घुली -
जीवनदायिनी हवा....
अलग नहीं कर सकते एक से दुसरे को -
बिना उनकी प्रवृत्ति बदले हुए हम ....
और,
हमारी प्रवृत्ति -
कोई नहीं बदल सकता...
नियति भी नहीं !
- नीहार (१५/०२/२०१२)