बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

एक सन्नाटा पसरा हुआ

सपनो की चादर ओढ़ जब भी सोता हूँ -
तुम्हारे बदन की गर्मी मुझे नहलाती है,
दिन भर की थकन हवा में गुम हो जाती है ,
बाल उड़ उड़ कर चेहरे से अठखेलियाँ करते हैं,
आंसू आँख से निकल बस भाप हो उड़ जाते हैं,
कई दिनों की गुम हंसी वापिस लौट आती है।
पर , मेरे हाथ ज्यूँही तुम्हे पकड़ने को होते हैं -
आँखें खुल जाती हैं ,सब कुछ शांत हो जाता है।
दाढ़ी की चुभन दिल में काँटों सी फंसती है,
आँखें भीतर तक शर्म -ओ- हया से धंसती है।
वो जो सपनो का दौर था- ठाठें मारता है मेरे अन्दर,
सूख जाता है मन ही मन - मन के भीतर का समंदर,
न कुछ बहार ही बचता है , न ही बचता है कुछ अन्दर,
सिर्फ एक जलता हुआ एहसास होता है,
सिर्फ एक बेआवाज़ खामुशी होती है,
सिर्फ एक पसरा हुआ सन्नाटा होता है,
जहाँ सिर्फ मेरे रोने की आवाज़ दस्तक देती है।
-नीहार
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मज़ा आ रहा अब हमें जीने में,
जिंदगी को मय की तरह पीने में।
कुछ ख्वाब सुलग रहे हैं आँखों में,
कुछ सदियों से पल रहे हैं सीने में।
खून सारा जल कर राख हो गया ,
बदन गल कर नह गया पसीने में।
कुछ मुश्किलें हम से टकरा टूट गयी,
कुछ तैर गयीं हालात के सफीने में।
जिंदगी की बदसूरती लगता है जैसे,
बदल गयी हो संगमरमरी हसीने में।
- नीहार
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ख्वाबों का रंग कहीं आँखों में गहरे उतर गया,
मैं खुद ही अपने साए से कल रात डर गया।
अपनी तमन्ना खाक कर औरों को खुश किया,
कुछ इस तरह मैं अपनी जिंदगी दुश्वार कर गया।
चाहा हुआ देखो कभी भी नहीं होता है प्यार में,
यह जानते हुए भी मैं बस उनसे प्यार कर गया।
लगता है ख्वाबों में भी वो हमें अब देखते नहीं,
कहते हैं की यादों से उनका अब तो जी ही भर गया।
वो जो सुबह का भूला कहीं घूम रहा था डर बदर ,
फिर शाम को वो लौट कर खुद अपने ही घर गया।
सुनता हूँ मेरे नाम का एक जो शख्स रहता था यहाँ,
कल रात किसी वक़्त वो किसी सदमे से मर गया।
- नीहार
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आईने ने धुप से की अठखेलियाँ नईं,
एक किरण छिटक के फिर दूर हो गयी।
वो चांदनी जो पारे से ढलक रही थी कल,
न जाने आज क्यूँ वो फिर बर्फ हो गयी।
जिस रात ने जगकर हमें नीलाम कर दिया,
वो रात देखो खुद भी तो अब नीलाम हो गयी।
आँखें लड़ाने की तो आदत कभी नहीं थी हमें,
आँखें लडाई तो फिर बिचारी आँखें ही खो गयीं।
हरी हरी घास पर ओस की बूँदें तो देख दोस्त,
ये रात जैसे कोई शबनमी आंसू ही रो गयी।
पलकें उठी तो बस जैसे की सेहर हो गया,
पलकें झुकी तो फिर जैसे कोई रात हो गयी।
जो पी लिया उनकी मोहब्बत का मय मैंने,
उस दिन से जिंदगी बस मेरी मदहोश हो गयी।
-नीहार

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

जादू सा छा रहा है,कोई मुझमे समा रहा है

जादू सा छा रहा है ,कोई मुझमे समा रहा है।

जुल्फों में कैद बादलों को, सावन बना रहा है।

चलने से उसके हर शू , आ जाती है बहारें,

मरुभूमि में भी चल कर,मौसम बदल रहा है।

पलकें उठा के अपनी, देखो ले आता है सहर वो

पलकें गिरा ली उसने तो, बस तारीक छा रहा है।

आवाज़ है उसकी जैसे, मिसरी घुली हुयी सी,

कानो में मेरे जैसे वो जलतरंग सा बजा रहा है।

मेरी प्यास बुझाने की खातिर घूमे दर बदर वो,

फूलों की पंखुरियों से,ओस की बूंदे चुरा रहा है।

है वो स्नेह का सागर , है वो प्यार का दरिया,

वो चाँद बन कर मुझको , लहर सा बना रहा है।

मैं लिखता हूँ गीत उस पर, मैं भरता हूँ रंग उसमे,

इन्द्रधनुषी रंगों के वो मुझे सपने दिखा रहा है।

वो वर्षों से गुनगुना रहा है मेरे लिखे हुए गाने,

देखो सात सुरों में ढल कर वो मुझमे उतर रहा है।

उसको साँसों में घुली है , चन्दन वन की खुशबु,

वो हवा है उन वनों का , देखो मुझ पे गुज़र रहा है।

- नीहार

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

तुम्हारी ही खातिर

उनको हम अपने दिल में छुपाये बैठे हैं,सारी दुनिया से जैसे उनको चुराए बैठे हैं।

खुदा का नूर टपकता है उनके चेहरे से,इसलिए उनको तो हम खुदा बनाये बैठे हैं।

उनकी रंगत जैसे सुबह की धूप खिली, हम खुद को उस रंग से नहलाये बैठे हैं।

वो आईना है सब कुछ बता देता है मुझे,हर घडी खुद को वो आईना दिखाए बैठे हैं।

उनकी हंसी जैसे मचलता पहाड़ी झरना कोई,उसकी मधुर गूँज हम खुद को सुनाये बैठे हैं।

उनके सिवा हमको अब कोई नज़र आता नहीं,हमारे इर्द गिर्द सिर्फ वो ही वो तो छाये हैं।

-नीहार

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वो साया बन मेरे साथ साथ चल रहा है,देखो वो अपने घर से निकल रहा है।

बहुत मोहब्बत करता है मुझसे, शायद इसलिए वो रोज़ एक सूरज निगल रहा है।

मेरी अनबुझी प्यास बुझाने की खातिर ,देखो वो खुद हिम सा पिघल रहा है।

वो दरिया है शोखी उसकी आदत है , मुझे देखने की खातिर वो कैसे मचल रहा है।

उसकी चाहत खुदा की इबादत है,और खुद की इबादत में वो खुद ही खलल रहा है।

उसके गिरने से मेरी साँसे टूट जाती हैं, मेरी ही खातिर वो हर पल संभल रहा है।

उसको छूने से महक उठती हैं मेरी साँसे,मेरे सीने में वो एक दिल सा पल रहा है।

वो मेरा नसीब है कई जन्मो का, मेरे साथ साथ वो कदम दर कदम चल रहा है।

मैं उसके दिल में रहता हूँ धड़कन की तरह,वो मेरी आँख में रौशनी सा पल रहा है।

-नीहार

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

मेरी आफरीन - तेरे ही नाम मेरी सुबह औ' मेरी शाम

तेरी आँखों के समंदर में डूब जाते हैं,
इस तरह हम खुद को तुझ में पाते हैं।
खुदा को देखा नहीं है कभी हमने पर,
तुम में ही हम खुदा की झलक पाते हैं।
तुम ही मेरी सुबह हो शाम भी तुम हो,
तुम्हारी ही चांदनी में हम रातों को नहाते हैं।
गीत लिखते हैं तो बस तेरी ही खातिर जानम,
तेरे लिए ही उन गीतों को हम गुनगुनाते हैं।
चलो फिर तुम्हारी जुल्फों में हम खुशबु ढूँढें,
चलो फिर तुम्हारे लबों पे हंसी हम ले आते हैं।
तुम जिंदगी हो मेरी , तुम ही चाहत हो मेरी,
राहत-ए-जिन्दगी भी तुझसे ही हम तो पाते हैं।

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मेरी आफरीन, तेरे ही नाम मेरी सुबह और मेरी शाम,
तू ही है मेरी मंजिल और बस तू ही है मेरा मुकाम।
खुले जो तेरी आँख तो मेरी सुबह रोज़ आती है,
तेरी जुल्फों से गुज़र कर हवा मुझ तक आती है,
तेरी ही पलकों पर ज्यूँ उतर आती है मेरी हर शाम,
तू ही है मेरी मंजिल और बस तू है है मेरा मुकाम।
तू चले तो यूँ लगे की जैसे जल उट्ठे यादों के दिए,
तेरी आँखों में डूब कर हम बहक उट्ठे हैं बिन पिए,
तेरी धड़कने दे मेरी जिंदगी को जीने का नया पैगाम,
तू ही है मेरी मंजिल और बस तू ही है मेरा मुकाम।

-नीहार

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

कुछ गजलें (भाग एक)

(ये ग़ज़लें मैंने वर्ष १९८९ से १९९१ के बीच अपने अकेलेपन से जूझते हुए लिखी थी.इन् गजलों की एक एक पंक्तियाँ मेरी भावनाओं का सच्चा प्रतिबिम्ब हैं...शब्द उन्हें हो सकता है बयां करने में असमर्थ हों ,पर उनसे उनकी परिभाषा पर असर नहीं पड़ता .उम्मीद है आपको पसंद आएगा)- नीहार
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दिल जिगर गुर्दा सभी बीमार हो गया,
कल का शिकारी आज खुद शिकार हो गया।
चाहा था कोई रंग दूँ अपनी जिंदगी को मैं,
एक ठोकर जो लगी तो सब बेकार हो गया।
खाने को मेरे पास अब तो कुछ नहीं बचा,
कहते हैं लोग इसलिए मैं गमख्वार हो गया।
कल तक उनके ख्यालों को ढ़ो रहा था मैं,
आज देखो फिर से मैं तो बेगार हो गया।
एक दर्द का सागर जो मेरे भीतर सो रहा था,
वक़्त की आंधी में जग कर वो ज्वार हो गया।
जिंदा हूँ , पर आदमी में मेरी गिनती नहीं रही,
सच कहूँ तो मुर्दों में मेरा अब शुमार हो गया।
वक़्त ने दिए हैं कुछ ऐसे दर्द भी मुझको की,
दिल जो एक सफीना था अब पतवार हो गया।
कल तलक जो दिल की दवा बेच रहा था मैं,
आज से खुद वही देखो खरीददार हो गया।
हमने बनाया था जो एक प्रेम का मंदिर,
वक़्त की तेज़ आँधी में वही मज़ार हो गया।
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खुश रहो तुम ये चाहत मेरी है सनम,
हम तो देखेंगे राह तेरी सातों जनम।
यूँ महकती रहो जैसे की चन्दन हो तुम,
फूलों के रंग में बस तुम हो जाओ गुम।
तुम को देखूं तो बस ऐसा महसूस हो,
की सूरज से छिटकी हुयी तुम हो किरण।
खुश रहो तुम ये चाहत मेरी है सनम॥
झरनों से तुम बस सुर मिलाती रहो,
मद भरे नयन से मय पिलाती रहो।
फूल ही फूल बिखरती रहे तेरी राह में,
मेरी किस्मत में रहे बस काँटों की चुभन।
खुश रहो तुम ये चाहत मेरी है सनम॥
फर्क इतना है तुझमें और मुझमें की देख,
कितना घबरा गया है आज शायर तेरा।
तुम तो हो धरती से ऊपर की कोई परी,
हम हैं जीवन की एक अनबुझी सी जलन।
खुश रहो तुम ये चाहत मेरी है सनम,
राह देखेंगे हम तो तेरी सातों जनम॥
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जड़ था जीवन , शेष नहींकुछ भी था उसके अंतर में
तुम ने आकर मचा दिया, एक हलचल सा उसके उर में।
आँखें थी की इंतज़ार में खुली अधखुली सी रह गयी,
औ' होठों ने काँप काँप कर तुम्हे पुकारा धीमे स्वर में।
जब थका हुआ मैं बाट जोह रहा था किसी सहारे की,
तब तुमने ही आकर थामा मेरे तन को अपने कर में।
जीवन था मरुस्थल मेरा, तुम वर्षा बूँद बन कर आयी,
और फिर आ कर अमृत रस डाला, जीवन के सूखे जड़ में।
तुम हो प्रतिफल मेरे कई जन्मों की कठिन तपस्या की,
प्राप्त हुयी हो तुम तो मुझको मेरे इश्वर के दिए हुए वर में।
आओ आकर साथ लड़ो तुम, जीवन का यह कठिन समर,
हाथों में देकर हाथ मेरे, तुम गाओ जीवन गीत मेरे स्वर में।
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गीत होठों पर नहीं अब आ रहे हैं,
फिर भी ये तय है की हम कुछ गा रहे हैं।
आप बिन सब सूना सूना लग रहा है,
एक अँधेरी राह पर खुद हम जा रहे हैं।
खाने को हमें कुछ भी अब चाहिए,
क्युंकी हम अब गम ही गम खा रहे हैं।
उनके इंतज़ार में हम 'दर' को तक रहे,
उनको पर न आना था, न वे आ रहे हैं।
अब क्या बताएं तुमको ई मेरे गम-ए- दिल,
हम तो सजा-ए-मुहब्बत यूँ ही पा रहे हैं।
-नीहार

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

श्रिष्टि : कर्ता और कृति

यह स्केच मई १९८८ में मैंने बनाया था। इसमें मैंने ब्रम्हा ,विष्णु और महेश तीनो को कर्ता के रूप में प्रतिरूपित कर उसकी कृति को उसी में समाहित कर दर्शाने की कोशिश की है।

-निहार, मई १९८८.

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

हरी आँख का समंदर

(वर्ष १९८८,मई की तपती धूप और उनकी याद..बस खींच दी कागज पे चाँद लकीरें और लिख दी दिल की बात यूँ एक कविता के रूप में जो आपके लिए नीचे प्रस्तुत है।)
सपनो की चादर ओढ़ जब भी सोता हूँ -
तुम्हारे बदन की गर्मी मुझे नहलाती है,
दिन भर की थकान हवा में गुम हो जाती है ,
बाल उड़ कर चेहरे से अठखेलियाँ करते हैं ,
आँख के आंसू वाष्प बन तिरोहित हो जाते हैं,
कई दिनों की गुम हंसी वापिस लौट आती है।
पर, मेरे हाथ ज्यूँही तुम्हे पकड़ने को होते हैं ,
आँखें खुल जाती हैं और सब कुछ शांत हो जाता है,
दाढ़ी की चुभन खुद ही हाथों में काँटों सी फंसती है,
आँखें भीतर तक शर्म-ओ-हया के गर्त में धंसती है,
वो जो सपनो का दौर था - ठाठें मारता है मेरे अन्दर,
सूख जाता है बस यूँ ही मेरे मन का वो हरा समंदर,
न कुछ बाहर बचता है और न ही कुछ बचता है अन्दर।
सिर्फ और सिर्फ एक बे आवाज़ खामुशी होती है,
सिर्फ और सिर्फ एक पसरा हुआ सन्नाटा होता है,
सिर्फ और सिर्फ मेरा क्रंदन कहीं चुपके से दस्तक देता है....
मुझे तुम्हारी आँखों का हरा समंदर बुलाता है...
- नीहार, मई १९८८

' द ट्रिनिटी '

यह चित्र वर्ष १९८८ में फुर्सत के उन क्षणों में बनाया गया था जब मेरे लिए ब्रह्मा विष्णु और महेश यानि की पूरी सृस्ती एक आकार में ही समाहित थी..मैंने कोशिश की है, की तीनो प्रमुख देवताओं को सांकेतिक रूप से ही सही यहाँ इस चित्र में ढाल एकाकार कर दूँ...
(नीहार, १९८८)

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

अथ चोर पुराण एवं अन्य कवितायेँ

अथ चोर पुराण
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चोर बना सिपाही घर का,
देख मेरा वाम अंग फड़का।
कहा चोर ने प्रथा यही है, राजा और रंक की यारों
जो चोरी में हो निष्णात, उसके गले पुष्पहार डारो,
औ' ईमां का गला घोंट कर,छह फुट नीचे ज़मीं के गाड़ो,
तभी देश की गाड़ी आगे बढ़ेगी, नहीं रहेगा कोई भी कड़का।
देख मेरा वाम अंग फड़का।।
फिर चोर ने आँख दबाया ,कुर्सी को थोडा खिसकाया,
अपने गिर्द घिरे चमचों को,भारी स्वर में पास बुलाया,
हिंसा की बातें बतलाई,और ख़ूनी दांव पेंच सिखलाया,
उनके अथक प्रयास से देखो, घर घर में एक युद्ध है भड़का।
देख मेरा वाम अंग फड़का॥
चोर के भाग से छीकें फूटे, ईमान के उखड़ गए हैं खूंटे ,
देश में बन्दर- बाँट मचा है,जिसकी मर्ज़ी जो चाहे लूटे,
सच का मुंह हो गया है काला, झूठ के मुंह से कालिख छूटे,
चौर्य शिक्षा के खुल गए हैं सेंटर,गाँधी अब बंद है चरखा,
देख मेरा वाम अंग फड़का॥
अनपढ़ हों पर चतुर प्रवीणा, कर चोरी जो ताने सीना,
लिख लोढा पढ़ पत्थर हों पर, चोरी पर जो भाषण दीना,
बेच बेच कर देश का टुकड़ा, अपना पद जो आपन कीना,
ऐसे लोग से ही देश सुशोभित, लड़की हो चाहे हो लड़का।
देख मेरा वाम अंग फड़का॥
चोर हेतु होत है आरक्षण, चोर करे घूस का भक्षण,
जो पूजे है चोर चालीसा, उसको लाभ मिलेगा तत्क्षण,
दफ्तर में लगा चोरोमीटर, नापे जो चोरों का लक्षण,
घर घर में अब चोर हैं बसते, छोटा हो या हो वह बड़का।
देख मेरा वाम अंग फड़का॥
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख इसाई,चोर चोर मौसेरे भाई,
मात्री - वंदना भूल भाल कर,'वन्दे चोरम' सबने गाई,
देश भक्ति की शपथ के बदले,'चौर्य शपथ' सबने है खाई,
ह्रदय देश के लिए नहीं पर, चोरी के लिए रोज़ है धड़का।
देख मेरा वाम अंग फड़का॥
-नीहार , जून १९८९।
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सुन भाई साधो
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सुन भाई साधो सुन भाई पीर, देश की हालत अति गंभीर।
चोर सभासद राजा डाकू, गर्दन पर फेरे जो चाक़ू,
चोरी कर बन गए अमीर, देश की हालत अति गंभीर।
खेलत हैं सब खून की होली,फेंके बम और मारे गोली,
पंजाब हो या हो कश्मीर,देश की हालत अति गंभीर।
दहेज़ का यहाँ खुला है गेट,जैसा लड़का वैसा ही रेट,
अग्नि समाधि लेती सब हीर, देश की हालत अति गंभीर।
लड़की होत विचित्र यहाँ प्राणी,घूरे जिसको मूरख ग्यानी,
होत हरण नित उनका चीड़, देश की हालत अति गंभीर।
दे डोनेशन औ' करी पढ़ाई, दिया घूस औ' नौकरी पायी,
अब खावत सरकारी खीर,देश की हालत अति गंभीर।
पाँव के नीचे सिकुड़ी धरती,खुली हवा भी नहीं है मिलती,
दूनी हो गयी आदम की भीड़,देश की हालत अति गंभीर।
कुर्सी हेतु होत है महाभारत, होवें पूरा जिस से स्वारथ,
बाप मरे है बेटा अधीर, देश की हालत अति गंभीर।
रजा ढोंगी, परजा ढोंगी, भक्त और भागवान भी ढोंगी,
ढोंगी हैं सब यहाँ फ़कीर, देश की हालत अति गंभीर।
बेच बाच कर देश को खाते,कुछ बचता तो घर ले जाते,
म्हारी आँख से बहत है नीर, देश की हालत अति गंभीर।
है हवा प्रदूषित नदी प्रदूषित,है पूरी की पूरी सदी प्रदूषित,
है प्रदूषित गंगा जमुना तीर, देश की हालत अति गंभीर।
सब भाई से इही दुहाई, इस देश को समझो अपनी माई,
और बांटो सब उसका पीर,देश की हालत अति गंभीर।
मन में लेन बस इतना ठान, सत्य आचरण औ' ईमान,
यही तुम्हारा हो तूणीर, देश की हालत अति गंभीर।
- नीहार , जून 1989
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भारत महा - महा भारत
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भारत महा महाभारत ,
जिनगी हुयी अकारथ।
चोर डाकू सब राजा होइंहें,
लाशन की खेती सब बोइहें,
नीति कुनीति अनीति के बल ,
पे साधे सब अपना स्वारथ।
भारत महा महाभारत॥
नहीं धर्म अधर्म की बात कछु,
नहीं कर्म अकर्म की बात कछु,
बस भाई भाई का चीर के सीना,
देखो पी के खून डकारत।
भारत महा महाभारत॥
चोर चोर मौसेरे भाई,
बाँट बूंट कर सबने खाई,
देश-द्रोह ही परम धर्म है,
है बाकी धरम अकारथ।
भारत महा महाभारत॥
सुनु सिय सत्य ये बात हमारी,
अग्नि जरी रोज़ यहाँ नारी,
दूल्हा माचिस लिए खड़ा है,
सास ससुर तेल हैं ढारत ।
भारत महा महाभारत॥
बायाँ दायाँ सब लड़ कर मरिहईं,
मध्यम मार्ग कहाँ सुख पैहईं,
दो पाटन के बीच में भैया,
साबुत कहाँ बचा भारत।
भारत महा महाभारत॥
-नीहार , जून 1989

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

सभ्य समाज की विरूपता और आदमी का व्याघ्र मन

(वर्ष १९८८ में मैंने यह ऊपर वाला चित्र खींचा था अपनी डायरी के एक पन्ने पर.यह चित्र हमारे समाज की विरूपता एवं उस समाज में रहने वाले आदमी के भीतर के हिंसक व्यक्तित्व (जिसे मैंने व्याघ्र मन का नाम दिया है) को दर्शाती है।उसी दौरान मैंने कुछ कवितायेँ भी लिखी थी , उनमे से एक नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ। आश्चर्य की बात यह है की हमारे सभ्य समाज की विरूपता और उसमें रहने वाले हम सभी के भीतर का हिंसक मन आज भी वैसा ही है....कुछ भी नहीं बदला है और शायद बदलेगा भी नहीं।आज की व्यथा यही है की हम नारी को पूजिता नहीं, पतिता समझते हैं और पतित पावनी गंगा के स्त्रीत्व को मानने से इंकार करते हैं.धोखा हमारे पुरुषत्व का हिस्सा है और येही धोखा हम खुद से, परिवार से, समाज से, देश से सदियों से करते आये हैं.उम्मीद है आप को ये रचना पसंद आएगी ।)
भविष्य अजन्मा है -
भूत मिट चुका है और वर्त्तमान रेंग रहा है(अपने आस्था के आयाम में)।
अहल्यायें ठोकर दर ठोकर खा रही हैं,
सीतायें अपहृत हो रही हैं,
द्रोपदियों को भरी सभाओं में नंगा नचाया जा रहा है,
और कृष्ण की सुदर्शन चक्र धरी उँगलियाँ काटी जा रही हैं,
समय के प्रहरियों द्वारा।
राम की तरकश का हर बाण ,
समय के साथ उड़ जाता है निशाने से दूर ..... बहुत दूर।
लक्ष्मण अब सीताओं के लिए रेखाएं नहीं खींचते -
वरन -
खुद ही उन रेखाओं में कैद हो जाते हैं।
बलराम का हल कोई लेकर भाग गया है,
और, अर्जुन किसी कर्ण के हाथों मारे जा चुके हैं।
सभी वशिष्ठ और विश्वामित्र खो चुके हैं अपनी वाक्पटुता,
और परशुराम अपनी दाढ़ी के बाल चुनते हैं।
कुम्भकर्ण जगते हैं, विनाश करते हैं ,
और बिभीषण सुख की नींद महीनो सोते हैं।
हर तरफ सीतायें अपहृत हो रही हैं - द्रोपदियां नंगी हो रही हैं,
और हर तरफ मंदोदरी तथा शूर्पनाखायें अट्टहास करती हैं -।
हर ओर सुरसायें निगल जाती हैं हनुमानों को,
और हर बार कौरव ही रौरव कर महाभारत जीत जाते हैं।
चुक गया द्वापर त्रेता का वह पुण्य -
जब राम राम थे और कृष्ण कृष्ण थे ।
सत्य यही है , की यह कलियुग है और यहाँ कल्कि का राज है,
और इसलिए -
आज का वर्तमान रेंग रहा है -
भूत मर चुका है -
और भविष्य अजन्मा है.... ।
(नीहार, वर्ष १९८९)

अव्यक्त अभिव्यक्तियाँ

जब भी मैंने अपनी अभिव्यक्ति को -
शब्दों के जंगल में - निःशब्द घूमने के लिए छोड़ दिया है,
मुझे एक ही एहसास हुआ है की मैं,
एक बेजुबान आदमी - सिर्फ देख सकता , सुन सकता और,
सूंघ सका हूँ......
पर कह नहीं सकता कुछ भी।
क्युंकी, शब्दों के जंगल में,
सिर्फ और सिर्फ आदमखोर शब्द ही घूमते हैं,
और मैं जानता हूँ की मेरे सारे छौने शब्द खा लिए जायेंगे बेदर्दी से,
उन आदमखोर शब्दों के द्वारा।
इसलिए मैं अपने दांतों के जंगल से -
उन मृदु/कोमल छौनों सामान शब्दों को बहार नहीं आने देता।
मैं जानता हूँ की अपने शब्दोंका भंडार चुक जाने के बाद ,
मैं शब्दहीन , साधनहीन, पुरुषत्वहीन , अभिव्यक्तिहीन ,
यानि,
हर तरह से 'दीन' हो जाऊँगा ।
इसलिए -
वर्षों से बूढ़े सूरज के वृसभ कन्धों पर टकटकी लगाये,
मैं उस सुबह का इंतज़ार कर रहा हूँ -
जहाँ नहीं होगा कोई जंगल आदमखोर शब्दों का।
और जब मेरे शब्द भी छलांगे मरेंगे - उछ्रिन्ख्ल हो ,
उत्पात मचाएंगे नन्हे शावकों ( बच्चों) की भांति।
पर, इंतज़ार कर मैं खुद चुकता जा रहा हूँ...
मेरे शब्द दांतों के जंगल में घुट घुट कर मरते जा रहे हैं....
अभिव्यक्ति अपने मायने खोती जा रही है..... ।
और अब तो उम्मीद की हलकी किरण भी ख़त्म हो गयी है - ।
सुना है, सरकार ने किसी भी तरह के ,
जंगलों की कटाई पर लगा दी है पाबन्दी ।
और इस तरह मेरे शब्दों ( अभिव्यक्तिओं) की हो गयी है,
पूर्ण रूप से " तालाबंदी"।
- नीहार ( वर्ष १९८९)
( यूँ ही बैठे बैठे कलम उठा लिया, कुछ चित्र उकेरे, कुछ शब्दों को अभिव्यक्ति का जामा पहना छोड़ दिया अजनबी शहर के अजनबी रास्तों पर अजनबी लोगों के अजनबी बर्ताव से खुद को बचा बच कर विचरण करने को....जंगल के कट जाने क उपरांत मेरे पास कोई और चारा भी तो नहीं...)