मंगलवार, 2 अगस्त 2011

आखरी मुलाकात

वो मुझसे मिल कर घर गया होगा,
और फिर बिस्तर पे गिर गया होगा।
दिल कब से उसका भरा भरा होगा,
उसने रो कर तकिया भिगोया होगा।
ये मुलाकात आखरी मुलाकात हो शायद ,
यह सोच कर वो चुप हो गया होगा ।
वो जानता है की उसके बिन शायद,
ये शख्स बिलकुल ही मर गया होगा।
देखता रहता है रात दिन उसकी तस्वीर,
उसकी जुल्फों में वो बादल हो गया होगा।
उसके होठों पे रख के उँगलियाँ अपनी,
वो खामोशियों में उसको सुन रहा होगा।
उसे उसकी आदत हो चुकी है अब हर पल,
आवारा सा हर जगह उसे ढूंढ रहा होगा ।
हर एक आहट पे अपने दरवाज़े पे आके ,
शब के सन्नाटों में उसको तलाशता होगा।
वो आएगा ,ज़रूर आएगा फिर लौट कर ,
उसने मन ही मन दिल से ये कहा होगा ।
आँखें उफनती सागर सी हैं उसकी और,
उसमे घुल कर वो काजल सा बह गया होगा,
थरथराते लब से उसका नाम लेकर फिर वो ,
खुद ही उसकी प्रतिध्वनि वो सुन रहा होगा ।
वो जानता है की उसके बिन जी नहीं पायेगा,
जीने के वास्ते यादों के फूल वो चुन रहा होगा।
वो शख्श तेरा दीवाना है अपने ही किस्म का ,
अपनी दीवानगी का किस्सा वो बुन रहा होगा।

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

कविताओं कि प्रासंगिकता

 उस वक़्त मेरी कवितायें,मुझसे विद्रोह कर देती हैं,
जब मैं उन्हें प्रसंगों से जोड़ नहीं पाता।
पर मैं उन्हें क्या समझाऊं? - कितना समझाऊं?-
की - जो आजीवन प्रसंगों से खुद कटा कटा सा रहा -
अपने मन के कई भागों में बँटा बँटा सा रहा -
अपने अतीत के साए से सटा सटा सा रहा -
वह, यानी मैं - एक अदना सा कवि ,
अपनी कविताओं को कैसे प्रसंग दूँ ?
कैसे दूँ उन्हें शब्दों की आड़?
कैसे पहनाऊं उन्हें अर्थों का जामा?
कैसे उसे सुर , ताल और लय में बाँधूँ?
मैं लिखता क्यूँ हूँ - यह मुझे मालूम नहीं।
मैं कैसे बताऊँ कि -
जब जब मेरी भाषा मौन हो जाती है,
तब हाथ यक - ब - यक कलम थाम लेते हैं,
और, तब शुरू हो जाती है शब्दों कि हेरा फेरी,
और बेबस कविता -
अपने आप को पन्नो में कैद पाती है।
प्रासंगिकता का प्रश्न बहुत अहम् है,
और - अहम् है कविता का सार्थक होना।
पर मेरी कवितायेँ ( मैं दूसरों कि नहीं जानता) -
यह नहीं जानती - कि,
जीने के लिए -
अर्थ- प्रसंग - इत्यादी, इत्यादी -
खोजना है व्यर्थ - क्यूंकि,
हम जीने के लिए जीते हैं,
उन्हें रफू कर पहनते हैं -
उन्ही को खाते हैं /पीते हैं,
यानी कविताओं में मरते हैं और कविताओं में जीते हैं।
यानी, पूरी कि पूरी कविता ,
जुडी है हमारे जीने से।
कविताओं कि प्रासंगिकता हमारे जीने में है -
कविताओं कि उत्पत्ति हमारे सीने से है -
और अर्थ?अर्थ तो भाव है -
अथाह सागर में लहरों पर डोलता नाव है,
जो कभी न कभी - कहीं न कहीं ,
किनारे लग ही जाएगा, और -
उसी वक़्त , शायद -
मेरी कविता को एक 'अर्थ' मिल जाएगा।
-नीहार

सोमवार, 4 जुलाई 2011

प्यार में पगी कविता सी कोई


मेरे सपनो को नया रंग दो,
जीवन भर तुम मेरा संग दो।
पतझड़ में भी रहे जो हरी सी,
मन में मेरी ऐसी उमंग दो।
रहूँ सोचता हर घडी मैं जिसको,
प्यार की वो मीठी तरंग दो।
कागज़ से कोरे इस मन को,
अपने प्यार के रंग से रंग दो।
चन्दन चन्दन महकूँ हरदम,
मेरे जीवन को ऐसी सुगंध दो ।
अमृत बन जो बरसे हरदम ,
मुझे रस पूरित वही मकरंद दो।
मिल ना सका जो अबतक मुझको,
जीवन को ऐसी उमंग दो।
प्यार में पगी कविता सी कोई,
जीवन को तुम नया प्रसंग दो।
-नीहार

गुरुवार, 30 जून 2011

ताज़ी क्षणिकाएं

कुछ नयी क्षणिकाएं
खुदा भी आजकल मुझपर ,
कुछ मेहरबान ज्यादा है –
उसको पता है आजकल मैं,
सिर्फ तेरी ही इबादत करता हूँ।
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सितारे सुलग रहे ,
रात के माथे पे यूं -
तेरे माथे पे जैसे,
पसीने चुहचुहा रहे।
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तेरे माथे से जो पसीने को –
अपने हाथों से पोछा मैंने,
हजारों जुगनू मेरी हथेली पे,
रक्स करने लगे ।
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मेरे पाँव खुद ब खुद-
तेरे दरवाजे तक मुझे ले आते,
आज कल मुझे मंदिर जाने की –
आदत सी हो चली है।
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मैं आजकल अपने चेहरे पे –
कई चेहरे लगा लेता हूँ,
जो जैसा देखना चाहे मुझे –
उसे वैसा ही चेहरा दिखा देता हूँ।
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हंस मोती चुगता है ,
जैसे ही उसने ये सुना –
मेरी हथेली पे अपनी आँख के,
मोती टपका दिये।
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वो रात को चुपके से ,
अंधेरा ओढ़ लेता है –
दिन के उजाले उसे,
सूरज बना देते हैं।
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रेत पे लिखता है नाम ,
अपनी उँगलियों से वो –
वक़्त पानी का रेला है,
हर नाम मिटा देता है।
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हर सुबह घर से वो ,
निकलता है ये सोचकर –
शायद कभी अपने घर का,
रास्ता वो भूल जाये।
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हर चेहरे मे ढूँढता है,
खुद का चेहरा हर समय –
जब भी घर से निकलता है,
तो आईना पहन लेता है वो।
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बादल को अगर तुम –
ज़ोर से रुलाना चाहो,
सूरज की आग को,
फिर से हवा दो।
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अपनी मुट्ठी मे –
गुच्छे भर अमलताश लिए,
सोचती रही रात भर की,
धूप उसकी मुट्ठी मे कैद है।
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थरथराते होंठों से –
वो नाम ले रहा है मेरा,
उसको भी वक़्त ने
बोलना है सिखा दिया।
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उसके चेहरे पर जो –
पल भर को झुका मैं तो,
लोगों ने कहा देखो –
आंशिक चंद्रग्रहण है लग गया।
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मंगलवार, 21 जून 2011

जय जय हे सरकार

जय जय हे सरकार

कुछ सालों मे ही कर डाला देश का बंटाधार।
जय राजा, जय परजा जय जय हे सरकार॥

भाव चढ़े बाज़ार में ऐसे,
सुरसा मुंह खोले हो जैसे,
कुंभकरण की नींद सो रहे,
तुमको है धिक्कार।
जय जय हे सरकार॥

जाति द्वेष को फिर बढ़ाया,
अधर्म का पाठ पढ़ाया,
देश जाये पर कुर्सी न जाये,
यही है तेरा विचार।
जय जय हे सरकार॥

आत्मदाह करत लड़कण सब,
धिक्कारत तुमको बड़कण सब,
तुम तो ले डूबे हो भैया,
हमरी नाव मँझधार।
जय जय हे सरकार॥

कभी दक्षिण कभी वामपंथ हो,
कभी कुरान कभी वेद ग्रंथ हो,
समय देख कर चाल हो चलते,
जैसे कोई मक्कार ।
जय जय हे सरकार॥

धर्म भेद का बोया है काँटा,
देश को है टुकड़ों मे बांटा,
जिस दाल पर बैठे हो भैया,
उसी पे किया प्रहार।
जय जय हे सरकार॥

प्रजा निरीह निर्जीव तंत्र है,
असत्य और हिंसा मूल मंत्र है,
सूचना का अधिकार है लेकिन,
सेंसर हॉत समाचार।
जय जय हे सरकार॥

बहुत हुआ है दूर का दर्शन,
बहुत हुआ है गर्जन तर्जन,
अब तो बंद करो अपना तुम,
सब असत्य प्रचार।
जय जय हे सरकार॥

मस्त मलंग निहार बोले,
गर तुम्हरे दिल मे हो शोले,
मत उसको पानी बनने दो,
बनने दो अंगार।
जय जय हे सरकार॥

-नीहार

गुरुवार, 16 जून 2011

मन की पीड़ा व्यक्त करना चाहता हूँ...

मन की पीड़ा व्यक्त करना चाहता हूँ...
मैं तुम्हारे अधर में गुम्फित हो के आज,
अपने वेदना को स्वर देना चाहता हूँ....
मन तो है अविरल सलिल की धार सा,

अपनी उद्दाम वासना के वेग के अतिरेक में,
तोड़ डाले है भुजंग सा सर पटक,
रास्ते की हर शिला को....
मैं तुम्हारे तन से यूँ लिपटा हुआ,
जैसे लोहित सूर्य से उसकी किरण,
मैं चकित हूँ देखता तुमको अपलक,
ज्यूँ बधिक को देखता कोई हिरन...
मैं तप्त होकर घूमता बेचैन सा,
और फिर ज्वाला सी धधक कर फूट जाता हूँ....
मैं तुम्हारे बदन की रागिनी से ,
रंग के निर्झर सा फिर टूट जाता हूँ...
मैं तुम्हे जब भी कभी अपलक देखूं,
रूप की अराधना का मार्ग होता है प्रशस्त,
भर के तेरे रूप को अपनी आँख में फिर,
आसुओं की धार सा बहता हूँ मैं...
तुम सुरीली यामिनी की चन्द्रमा सी,
खिल के हरती हो मेरा सारा तिमिर,
मैं तुम्हारी सांस की वीथियों से गुज़रकर,
तुमको एक रंग और रूप देना चाहता हूँ...
मैं तुम्हारे केश में उलझे मेघ सा,
टूट कर सावन सा बरसना चाहता हूँ...
कौन है जो रोकता है मुझको आज,
कौन है जो मेरी बाहों को बाँध लेता है...
कौन है जो बादलों की ओट से ,

आवाज़ देता है मुझको हर घडी ...
मैं किसी राका की उजियारी किरण ,
मैं तुम्हारी आँख में जलना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारे काँधे पर रख कर अपना सर,
आखरी नींद फिर मैं आज सोना चाहता हूँ।


-नीहार

सोमवार, 13 जून 2011

क्षणिकाएं -2

वो आँख में जलता है -
तो आंसू हो जाता है ,
आग को पानी होते हुए-
कई बार मैंने देखा है।
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जब भी मैं तुम्हारी नज़रों में -
उठने की कोशिश करता हूँ,
अपनी ही नज़रों से गिर जाता हूँ
अश्रु हरदम अधोमुखी होते हैं ।
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आज कल वो अपनी पलकें -
खोलता नहीं,
उसे पता है-
मुझे उसकी आँखों में कैद होना ,
अच्छा लगता है।
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बस यूँ ही -
करवट बदलते,
मेरी रात गुजरी है...
तकिये की सिलवटों में -
मैं अपने चेहरे की,
झुर्रियां ढूंढता रहा।

शनिवार, 4 जून 2011

क्षणिकाएं

रुई के फाहे पहने थी -
जब पेड़ों की हर डाल,
मौसम के मिजाज़ की खबर -
मुझको ठंडी हवाओं ने दी।
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बर्फ से जब भाप -
उठती देखा तो ये सोचा मैंने,
उसके सीने में भी-
कोई आग धधकती तो है।
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बस तेरा ख्याल पूनो के चाँद सा -
खिला रहा था रात को....
वरना, जिंदगी में अँधेरे के सिवा -
कुछ भी नहीं...
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यूँ सुलगती है आग,
तेरी यादों की कुछ इस तरह -
जैसे पहाड़ों पे जमे बर्फ,
सूरज की रौशनी में सुलग जाते हैं।
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मैं तुम्हे छूता हूँ ,
तो आग हो जाता हूँ -
वरना, मेरे भीतर कुछ नहीं,
है बस राख के सिवा।
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दीवार पे सर पटक कर,
कह रहा है खुद से वो -
अपने भीतर के सर्प(दर्प) का,
यूँ फन कुचल रहा हूँ मैं।
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सूरज हूँ -
धूप उगलता हूँ....
दूसरों की खातिर मैं -
अपनी ही आग में जलता हूँ।

- नीहार

सोमवार, 30 मई 2011

हिम अच्छादित शिखर सलोना...

हिम आच्छादित शिखर सलोना,
हुआ आह्लादित हृदय का कोना,
बन कर तुरंग मन सरपट भागे,
उछले कूदे बन कर मृग छौना।।
कल कल नदिया है बहती जाती,
सरगम के सप्त सुर हमें सुनाती,
सूरज की किरने जाती नाच नाच ,
मौसम हो जाता बसंत सुहाना ।
मन ठगा ठगा रह जाता है जब,
सूरज पहाड़ों के पीछे छुप जाता,
फिर आकाश के सूने आँगन में,
निखर जाता बन चाँद सलोना।
मन आवारा बादल है बन कर ,
भटक रहा देखो नील गगन में,
प्रकृति है सबसे बड़ी जादूगरनी,
करती है हम पर जादू टोना।

बुधवार, 18 मई 2011

रौशनी का प्रतिनिधि




मुझे - यानि सिर्फ मुझे -


एक अँधेरे ने जकड़ रक्खा है ,


अपने मजबूत हाथों में पकड़ रक्खा है।


वे जानते हैं की मैं समरथ हूँ -


सूरज अपनी हथेली पर उगा सकता हूँ,


और, धूप की चाशनी में खुद को पका सकता हूँ।


वो ये भी जानते हैं कि ,


जिस दिन सूरज कि खेती शुरू हो जाएगी,


उस दिन उनकी अस्मिता ही खो जाएगी।


लोग अँधेरे कि आड़ ले सूरज उगायेंगे ,


और -


अपने हथेलियों पर सरसों सी धूप खिलाएंगे ।


और जब, हथेलियों पर उगा सूरज -


अपनी रौशनी चारों ओर बिखेरेगा , तो -


अँधेरे का देवता कर जाएगा कूच, और तब ही -


सही अर्थों में समाजवाद आएगा ।


समाजवाद यानी वह 'वाद ', जहाँ सूरज कि धूप -


सबको बराबर मिलेगी/ हर चेहरे पर हंसी बराबर खिलेगी।


अँधेरे के देवता यह भली भांति जानते हैं कि,


'समरथ को नहीं दोष गोसाईं ,


समरथ होत खुदा कि नाईं ।'


- समरथ को यह मालूम है कि,


युद्ध और प्रेम में सब जायज है- सब सही है,


और -


समरथ के हाथ में ही किस्मत की बही है।


इसलिए अँधेरे ने जकड़ रक्खा है समरथ कि बाहें ,


अंधी कर दी है उसकी दूर देखने वाली आँखें,


क़तर डाली हैं उसकी नर्म नाज़ुक पांखें।


पर कब तक? कितने दिनों तक?......


कल फिर नए पंख उगेंगे....


आँखों में नयी चमक फिर से कौन्धेगी...


बाहें शक्तिशाली हो फिर से फरकेंगी...


और, तब -


समरथ- यानि मैं


चीड़ डालूँगा अँधेरे कि छाती को- और,


उसके रक्त से , अपनी हथेली कि ज़मीन सींच,


सूरज उगाऊंगा ....


सही अर्थों में,


मैं ही रौशनी का प्रतिनिधि कहलाऊंगा।


बुधवार, 4 मई 2011

सुख का बीज मंत्र

कल ही तो मैंने - एक घरौँदा बनाया था ,
और , आज उसे तोड़ डाला (या तोड़ने को मजबूर हुआ)।
यानि - जिंदगी को एक अनजाने राह पे मोड़ डाला(यूँ खुद से दूर हुआ)।
स्तब्ध हूँ मैं - अशांत भी,
यानि - मेरे भीतर और बाहर का कोना कोना
- रो रहा है, अपनी किस्मत का रोना।
आंसू बहते नहीं - खून भी सफ़ेद हो गया है।
कल तक का महाभारत - आज से चारों वेद हो गया है।
कुछ समझ में नहीं आता - समझना चाहता भी नहीं।
क्यूँकि जानता हूँ - व्यक्ति और व्यक्ति के बीच की जो दूरी है,
वही हर व्यक्ति कई अपनी मजबूरी है।
और कुछ भी बातें हैं-जो भीतरघातें हैं ।
पर, दरअसल - मेरी समझ की दानी बहुत छोटी है,
सीधे सपाट लहजे में, मेरी अक़ल थोड़ी मोटी है ।
तो - जो वह कल का घरौँदा था,
आज मेरे सामने ही मुंह औंधा था।
यानि, न घर बचा था न घाट ,
चारों तरफ बाट ही बाट - सपाट सपाट।
उसी सपाट बाट पर - और उस बाट के चौराहे पर,
मुझे मिला एक ग्यानी/पंडित -
जिसके अनुसार - समय कर रहा था मुझे दण्डित।
हँसते हुए उन्होंने मुझसे कहा की ऐ वत्स
तुमने जो घरौंदे का सपना जो पाल रक्खा था,
उसे बनाने के लिए तुम निकल गए वक़्त से आगे -
इसलिए, आज तुम खुद को पा रहे अभागे।
तुम जो सोचते हो - वही रोचते हो।
पर कुछ लोग जो रोचते हैं , वो सोचते नहीं।
तुम्हारा घर कुछ लोगों की दोतरफा सोचों का नतीजा थी ,
इसलिए भरभरा के बालू के मकान सा,
आ गिरी थी हवा के हलके झोंको से।
तुमने सोच और रोच को एक किया ,
काम कई नेक किया।
जिस किसी की आँख में आंसू देखा,
उसे उँगलियों की पोरों से उठा , भर लिया अपनी आँख में,
और उनके भीतर की आग को पी - बदल दिया यसे राख में।
तुम दूसरों की सुख शान्ति के लिए जिए-
दूसरों के हिस्से का ज़हर तुम ही पिए।
जब तुमने यह सब किया , तो सचमुच तुम ने जिंदगी को जिया है।
यह तुम समझ लो की तुम्हारा घर टूटा नहीं - विस्तृत हो गया है - बड़ा हो गया है।
विस्तृत नभ - फैली हुयी धरती के बीच,
तुम्हारा "मैं" सिमट कर छोटा हो गया है।
घरौंदा/घर टूटने का अब गम, नहीं करना है,
क्यूँ की तुम्हारे लिए तो सबका घर अपना है - सुख अपना है -
दुःख अपना है - और यह सब,
उनके लिए बस सपना है,
जो सोच और रोच को अलग करते हैं -
वो रोज़ एक नयी मौत मरते हैं।
तुम रोओ मत - दुखी मत हो -
सुख का बीज सर्वत्र बोओ ।
अपने पाप दूसरों के पुण्य से धोओ

एक के घर में पैर - दूसरे के घर में सर,
तीसरे के घर में धड रख कर -
चैन की नींद सोओ।

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

सुन भाई साधो...

(मेरी यह कविता मेरा निज का आर्तनाद है...यह किसी व्यक्ति विशेष या समुदाय या कार्यक्षेत्र या अन्य किसी पर भी कोई आक्षेप नहीं है।अगर फिर भी किसी को चोट पहुँच रही हो, तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ.)


सुन भाई साधो, सुन भाई पीर,
देश की हालत अति गंभीर।


चोर सभासद राजा डाकू,
गर्दन पर फेरे सब चाकू,
चोरी कर बन गए अमीर,
देश की हालत अति गंभीर।


खेलत हैं सब खून की होली,
फेंके बम और मारे हैं गोली,
बंगाल हो या हो वो कश्मीर,
देश की हालत अति गंभीर।


दहेज का यहाँ खुला है गेट,
जैसा हो लड़का वैसा ही रेट,
अग्नि समाधि लेती सब हीर,
देश की हालत अति गंभीर।


लड़की होत विचित्र यहाँ प्राणी,
घूरे जिसको मूरख और ज्ञानी,
होत हरण नित उनका चीर,
देश की हालत अति गंभीर।


दे डोनेशन और करी पढ़ाई,
दिया घूस और नौकरी पायी,
अब खावत हैं सरकारी खीर,
देश की हालत अति गंभीर।


पाँव के नीचे सिकुड़ी धरती ,
खुली हवा भी नहीं है मिलती,
दूनी हो गयी आदम की भीड़,
देश की हालत अति गंभीर।


कुर्सी हेतु होत महाभारत,
होवइ पूरा जिससे स्वारथ,
बाप मरे है हर बेटा अधीर,
देश की हालत अति गंभीर।


राजा ढोंगी परजा ढोंगी,
भक्त और भगवान भी ढोंगी,
ढोंगी हैं सब यहाँ फकीर,
देश की हालत अति गंभीर।


बेच बाच कर देश को खाते,
कुछ बचता तो घर ले जाते,
म्हारी आँखों से बहत है नीर,
देश की हालत अति गंभीर।


हवा प्रदूषित नदी प्रदूषित ,
पूरी की पूरी सदी प्रदूषित,
है दूषित गंगा जमुना तीर,
देश की हालत अति गंभीर।


सब भाई से है यही दुहाई,
देश को समझो अपनी माई,
और बाँट लो सब उसका पीर,
देश की हालत अति गंभीर।


मन में लेना इतना ठान ,
सत्य आचरण और ईमान,
यही तुम्हारा हो सिर्फ तूणीर,
देश की हालत अति गंभीर।
-नीहार

रविवार, 24 अप्रैल 2011

भविष्य : एक प्रश्न

सारा माहौल ही बदरंग हो गया है,
चोर और सिपाही का संग हो गया है।
राज करना चाहते हो तो आओ सुनो ,
भीख में वोट मांगना ढंग हो गया है।
एक कुर्सी के कई दावेदार हैं यहाँ पर,
बेटे और बाप में ही जंग हो गया है।
क़त्ल करना अब कोई अपराध है नहीं,
क़त्ल तो राजनीति का अंग हो गया है।
बुद्धिजीवी बुद्धि को ही खा के हैं जी रहे
सब के सोच का दायरा तंग हो गया है।
महाभारत अब किताबों की चीज़ है कहाँ,
घर घर में महाभारत का प्रसंग हो गया है।
बैसाखियों का व्यापार जोरों पर है यहाँ,
दो टांग वाला सब देखो अपांग हो गया है।
गाँधी और बुद्ध की तुम अब बात मत करो,
उनके विषय के रंग में अब भंग हो गया है।
दूध की नदी अब दूध की रही नहीं यहाँ पर,
खून की नदी सा उसका देखो रंग हो गया है।
जुआ और शराब से लेकर बलात्कार तक,
आज के नवयुवकों का प्रेरक प्रसंग हो गया है।
हम तो बस निहार रहे इस देश के भविष्य को,
वह भविष्य जो अँधा, बहरा और लंग हो गया है।
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सच
झूठ का
चेहरा सच से
मिलता ही नहीं पर
सच और झूठ का रिश्ता
बहुत पुराना, मुलायम और नाज़ुक है।
इसलिए मुझे लगता है की तुम्हारा
और मेरा सम्बन्ध भी ऐसे
ही झूठ और सच
की तरह ही
नाज़ुक ,मुलायम
है।

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

सूखे रेत का सहरा....

दिल मे खुलूस और आँख मे दर्द लहरा रहा,
मेरे जज़्बात पे मेरे ही ज़मीर का पहरा रहा।
वो बहारों की कर रहा था ख़्वाहिश कबसे,
उसके हिस्से तो सूखे रेत का सहरा रहा।
न किसीकी सुनता है न कहता ही किसी से,
लोग कहते हैं की वो गूंगा रहा बहरा रहा।
तुम दरिया की तरह मचल के बहती रही,
वो समंदर सा बस अपनी जगह ठहरा रहा।
सुना है उसका कद हिमालय से भी ऊंचा है ,
और उसका गांभीर्य सागर से भी गहरा रहा।

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

कतरा कतरा मोम सा पिघलता रहा ............

रात यूं ही देर तक चाँद फिर जलता रहा,

आसमां कतरा कतरा मोम हो पिघलता रहा।

वो अजीब शख्स है किसी की भी नहीं सुनता ,

उसकी खातिर ही सही मगर वो बदलता रहा।

उठ के गिरता रहा और गिर के उठता रहा,

रात और दिन मगर खुद ही वो संभलता रहा।

वो उफक पे बिखरे हुये है अपने सौ सौ रंग,

वो सूरज है अपने मुंह से धूप को उगलता रहा।

वो जानता है की चलने का नाम ही है ज़िंदगी ,

इस जिंदगी की खातिर रात दिन वो चलता रहा।

छले जाने का डर उसको सालता है हर समय ,

डर से निजात पाने को खुद को ही वो छलता रहा।

वो जानता है पानी के बिन तड़प उट्ठेगा आदमी,

उनकी प्यास बुझाने को वो बर्फ सा गलता रहा।

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पाजेब बज रही है या खनकता है तेरा कंगन

आँखें हैं की तेरी याद में बरसती हैं ज्यूँ सावन।

तुझको पाने की ख़्वाहिश कुछ इस तरह सुलगी,

की मन मेरा राम के बदले हो जाना चाहे रावण ।

तेरे बिना सब उदास सा लगे फीका लगे हर रंग ,

जो तू हो साथ तो फिर सहरा भी लगे मनभावन।

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वो अपनी आँख में खंजर छुपाए बैठा है ,

मेरी ही तबाही का मंज़र छुपाए बैठा है।

वो जानता है कि मुझे तैरना नहीं आता,

इसलिए खुद में वो समंदर छुपाए बैठा है।

जिसको भी देखता है सम्मोहित किए देता,

अपने अंदर वो जादू मंतर छुपाए बैठा है।

जिधर से भी गुज़रता है तूफान उठा देता है,

अपने सीने मे वो एक अंधड़ छुपाए बैठा है।

उसकी आँख में सबके लिए मोहब्बत है ,

अपने भीतर वो एक मंदर छुपाए बैठा है।

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

तेरी मेरी सब की बात

चुनावी सरगर्मियां फ़िर तेज़ हैं,

दाँव पर कुर्सियां और मेज़ हैं।

शासक तो सुनहरे भविष्य हैं ,

और शासित इतिहास के पेज हैं।

जो पिछड़ गए वो हिन्दुस्तानी हैं,

जो आगे हैं वे सभी अँगरेज़ हैं।

ख़ुद को देव संतान हैं वे कहते,

पर सारे के सारे नेता तो चंगेज़ हैं।

गिरगिट कहाँ टिक पाता उनके आगे,

वे सब के सब तो खानदानी रंगरेज़ हैं।

आप पढ़ लिख कर भी मूर्ख हैं,

वे तो बिना पढ़े भी सबसे तेज़ हैं।

आप के कारनामे तो कुछ भी नही,

उनके कारनामे तो हैरत अंगेज़

आपको तो कांटो का बिस्तर भी नही,

उनके लिए तो बिछी फूलों की सेज हैं।

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लोग संभावनाओं में जीते हैं,

और,

संभावनाओं में ही मर जाते हैं...

इसलिए ,

हाथ का रूपया दे कर लॉटरी का टिकट खरीद लाते हैं...

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सती प्रथा के समर्थन में उनके भाषण का एक अंश,

जो पति को जीवन भर रही जलाती ....

उन्हें भी लगे अग्नि-दंश।

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वे छुआछूत के विरोधी हैं,

जी हाँ....

वे छू अछूत के विरोधी हैं...

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सुना है सरकार ने रिज़र्वेशन पॉलिसी को

एक नया आयाम दिया है,

जिंदगी के साथ साथ अब,

मौत को भी रिज़र्व कोटे में लिया है...

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एक सभा में नेता के भाषण का एक अंश...

"हम इस धरती को स्वर्ग बनायेंगे

और आप सभी स्वर्गवासी कहलायेंगे"।

****************************************

अब्राहम लिंकन ने ,

प्रजातंत्र को प्रजा का,प्रजा के लिए ,प्रजा द्वारा शाषण बताया था...

पर आज तो इसके अर्थ का ही अनर्थ हो गया,

कल का प्रजातंत्र था....प्रजा का तंत्र...

और आज का ...

आदमी के खिलाफ आदमी का ...

एक खुला हुआ षडयंत्र...

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एक परीक्षा में प्रश्न था...

नेता का पर्यायवाची शब्द लिखें...

एक उत्तर पुस्तिका पढ़ परीक्षक गए काँप,

उत्तर लिखा था नेता का पर्याय है "सांप "।

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हर शब्-ऐ-गम की सुबह हो ये ज़रूरी तो नही.....

यही उनका सर्व प्रिय सिद्धांत था...

इसलिए शब्-ऐ-गम में डूबा उनका प्रान्त था...

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प्रधान मंत्री का आदेश था ....

की गरीबों की आँख अश्रुविहीन रहे,

किसी गरीब की आँख से आंसू न बहे।

सरकारी तंत्र ने प्रधानमंत्री के आदेश का

चुस्ती दुरुस्ती से पालन कर दिया,

सभी गरीब की आँखें निकाल ली,

और उनमे सोखता कागज़ भर दिया।

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चलो चलें इक्कीसवीं सदी की और ,

यही उनका सबसे प्रिय नारा था ,

जोड़ तोड़ की कमी ने उन्हें मारा था...

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रविवार, 10 अप्रैल 2011

अपेक्षाएं

अपने आप से अपेक्षाएं रखना बुरी बात नहीं -

पर,

शायद उनका पूरा न होना,

कहीं तोड़ता है भीतर ही भीतर....

आदमी का मेरुदंड -

धीरे धीरे गलता जाता है...

उसका विश्वास ख़त्म होता जाता है,

और वह-

तब्दील होता जाता है गुंथे आटे की तरह ,

जिसे -

जो , जब, जैसा चाहता है वैसा ही रूप देकर,

पका डालता है वक़्त के गर्म तवे पर।

इसलिए -

अपेक्षाएं रक्खे बिना ही जीना.....

ज्यादा अच्छा है।

न तो मेरुदंड गलता है....

न ही विश्वास ख़त्म होता है...

और -

न ही वह गुंथे हुए आटे में तब्दील होता है।

पर आखिर है तो वह आदमी ही ना....

प्रयास तो करेगा ही -

धीरे धीरे ,

मकड़ी की तरह -

ऊपर चढ़ेगा...

जाल बुनेगा....

और फिर काल रुपी गिरगिट के-

लोलुप जिह्वा का ग्रास बन,

वक़्त से पहले ही भोज्य होगा...

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क़ुतुब सी -

ऊंची छलांग मार कर हम,

चाहते हैं ऊपर उठना।

पर -

हम यह भूल गए कि,

गिरेंगे तो बच पायेंगे क्या?

क्या दधिची बन कर,

हम अपनी हड्डी के चूरे से,

एक नयी श्रृष्टि का निर्माण करेंगे?

या हम स्फिंक्स कि माफिक ,

फिर दुबारा जीवित हो खड़े हो जायेंगे...

शायद -

पुनर्निर्माण कि प्रक्रिया -

हमारे ऊपर उठने और गिरने से ही जुडी है।

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मैं -

शब्द रहित -

व्याकुल मन से -

पूछूं तुमसे कि तुम -

कहाँ कहाँ रहती हो सजनी।

तुम -

चबा चबा -

कर शब्दों को -

कहती हो धीरे से मुझसे-

दिनन न चैन चैन नहीं रजनी।

सब -

व्याकुल सब -

परेशान हो कहते -

अब चल दूर कहीं -

जहाँ कहीं भी चैन मिले -

और मिले शांति कि गंगधार-

जिसमे डूब डूब कर तुम हम सब -

भूल जाएँ सब दुःख -

पाएं नित दिन हम सुख -

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

कविता की प्रासंगिकता

(अप्रैल २०१० में प्रस्तुत यह कविता मुझे अपनी लेखनी का चरम सुख देता है । इसे पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ उन लोगों के लिए जिन्होंने शायद इसे पढ़ा न हो)

मैं किनका कवि हूँ -

यह मुझे नहीं मालूम,

पर यह सच है -

और,

मैं इससे अच्छी तरह वाकिफ हूँ,

की मेरी कविता -

शब्दों की नंगी दौड़ नहीं है।

यह सिर्फ 'खुलेपन' को फैशन के तौर पर नहीं देखती,

वरन जीती है उस अहसास को खुलकर।

मेरी कविताओं की अपनी प्रासंगिकता है -

अपनी सार्थकता है,

अपना रंग है,

अपना ढंग है,

अपना रूप है।

और कुछ भी नहीं तो -

मेरी कविता आज के युगबोध की सुनहरी धूप है।

मैं जो भी लिखता हूँ -

दिल की गहराई से लिखता हूँ,

और भोगे हुए यथार्थ को -

कागज़ के सफ़ेद सफ़ेद पन्नों पर,

दिल के लाल लाल खून से चित्रित करता हूँ -

यह जानते हुए भी की,

यथार्थ या सच कड़वा होता है,

जो गले के नीचे जल्दी नहीं उतरता,

और इसलिए मैं ,

अपनी कविता को माध्यम बनता हूँ,

वह सब लिखने के लिए,

जिसकी प्रासंगिकता अछूती है।

मैं -

शब्दों के व्यामोह में नहीं फंसता,

मैं -

अर्थों के दिशाभ्रम में नहीं उलझता।

मैं -

खुद को उस चक्रव्यूह में ले जाता हूँ -

जहाँ ,

व्यक्त करने की कला अर्थवान हो जाती है,

और-

अपने को अपने को हर रूप में उद्भाषित पाती है।

मेरे मन में जो भी ईंट - पानी - आग - धतूरा आता है,

सब का सब मेरी कविता में अपनी जगह पाता है।

मेरी कवितायेँ "सोफिस्तिकेटेड ट्रेंड" से जुडी नहीं होती हैं -

इसलिए कहीं सीधी और कहीं अष्टावक्र की तरह मुड़ी होती हैं।

कवितायेँ मेरे द्वारा जीवन में खाई गयी ठेस हैं -

सीधी हैं , सच्ची हैं यानी बिलकुल भदेस हैं।

मैं जब भी किसी बच्चे को मुस्कुराता देखता हूँ,

मुझे भविष्य की सुनहरी झांकी नज़र आती है।

जब भी किसी बूढ़े की खांसी सुनता हूँ,

भय से ग्रसित हो काँप जाता हूँ।

जब भी किसी कमसिन/हसीं लड़की की आँखों में,

सुनहरे ख्वाब ठाठें मारते देखता हूँ,

खुद को हैरान , परेशान पाता हूँ ।

मैं -

यानी मैं,

हर घडी अपने होने का एहसास भोगता हूँ।

हर लम्हे को पूरा का पूरा जीता हूँ,

और समय से अलग हुए टुकड़े को ,

टुकड़े टुकड़े सीता हूँ ।

मेरी कवितायें मेरा भोग हुआ यथार्थ हैं,

और,

यथार्थ कभी नश्वर नहीं होता।

मैं भोगे यथार्थ में जीता हूँ,

यानि सच को जीता हूँ।

खुद ही कविता लिखता हूँ ,

खुद ही कविता पढता हूँ,

खुद को मनुष्य के रूप में गढता हूँ।

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

कौन है जो याद करता है मुझे

कौन है जो याद करता है मुझे ,

कौन है जो संग मेरे गा रहा ।

कौन है जो उमड़ घुमड़ कर बादलों सा,

मेरे प्यासे मन को है तरसा रहा।

किसकी आँखें देखती हर पल मुझे,

कौन मेरे दिल की धड़कन को सुन रहा।

किसकी साँसों में महक उठता हूँ मैं,

कौन है जो मेरे लब से रंगत चुन रहा ।

किसकी जुल्फें रात का है साया बनी,

कौन है जो मुझको मदहोश किये जा रहा।

किसकी आँखों के समंदर में डूब मैं,

हर पल जिंदगी का मय पिए जा रहा।

क्या कहूँ तुमसे मैं तुम सब जानती हो,

वो जो भी है उसको तुम पहचानती हो।

आईना भी देता है तुम्हे प्रश्न का उत्तर,

फिर भी हकीकत को नहीं तुम मानती हो।

चलो कह ही देता हूँ की तुम मेरा प्यार हो,

मेरी कविता में प्रतिबिंबित तुम उदगार हो।

दिल की धड़कन में तुम ही हो गुम्फित प्रिये,

मेरे जीवन क़ा तुम ही तो अपूर्व श्रृंगार हो।

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

एक आहट एक सुगबुगाहट ....

वक़्त बेवक्त –

एक आहट दिल को बहला कर गयी,

एक हवा –

शीतल मलय बन मेरे घाव को सहला गयी ।

एक उदासी –

लंबी होकर लिपट गयी मेरे जीस्त से,

एक खामोशी –

दर्द का नगमा हौले हौले सुना गयी।

एक मुसाफिर –

चलते चलते थक गया सालों साल से,

एक याद तेरी –

बन के चाँदनी उसकी रूह को नहला गयी।

खाली सा ये दिन –

लिए आया है थाल भर कोहसार,

फूल सारे –

खिलना भूल जैसे की शर्मायी हुयी।

मेरी आँखें –

हर वक़्त तुमको हैं ढूंढती,

तुम प्रिये –

हर शय में जैसे हो छायी हुयी।

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जलती आग ,

उठता धुआँ...

सूखे होंठ,

प्यासा कुआँ...

मन है बादल,

नैन छलछल...

दिल मुरझाया और,

गुमसुम कमल...

हाथ में राख़ –

समय भस्मित ,

काल के मकड़जाल में –

मैं हुआ विस्मित।

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

जिसको भी मैंने छू लिया............

जिसको भी मैंने छू लिया वो हो गया भगवान,

इसलिए मुझसे नहीं अब मिलता कोई इंसान।

लोगों को खाने को मिलती नहीं सूखी कोई रोटी,

मंदिर में ईश्वर पर चढ़े रोज पूरी और पकवान।

मशीन में तब्दील होता जा रहा है हर आदमी,

पैसे की खातिर रखता काक दृष्टि बको ध्यान।

आज के युवा संस्कृति से होते जा रहे हैं दूर,

बड़े बुजुर्गों का वो अब नहीं करते हैं सम्मान।

भाषा अपनी भूल कर हम निजता को रहे भूल,

धर्म जाति में बँट रहा अपना प्यारा हिंदुस्तान।

जीवन का उद्देश्य सभी का बदल गया है आज,

पैसे की खातिर यहाँ बिक रहा रोज़ हर इंसान।

गाँधी के इस देश में नहीं करता कोई उनको याद,

हम सब भी हैं भूल गए उन शहीदों का बलिदान।

संसद से सड़क तक नहीं मिलता कोई भी सच्चा,

जिनके हाथ में शाषण है वे सब के सब बेईमान ।

-नीहार


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शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

बादलों सा मन....

सूरज की हथेली पर -

चाँद का चेहरा लगा है.....

उनकी पलकों को चूम कर-

जो हम आ गए ,

अधर मेरा उनकी मादकता से पगा है....

फूल सब मुरझा गए -

ये सोच कर,

की धरती पर तो -

सितारों का मेला लगा है.....

मुझपे तुम्हारी जुल्फ ने -

की है घनेरी छांह......

धूप बिचारा ये देख कर ठगा का ठगा है।

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जब भी मुझे -

खुशबु में नहाने का मन करता है,

पलकें बंद कर तुम्हारे पास पहुँच जाता हूँ,

और फिर -

तुम्हारे जुल्फ के साए की खुशबु में नहाता हूँ।

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तेरी पलकों पे ख्वाब तिरने लगे हैं,

हम भी तेरी याद में अब घिरने लगे हैं.....

मन बादलों सा हो गया है मेरा जबसे,

बिना पंख के हम यूँ ही फिरने लगे हैं....

तितलियों की भाषा में हम गुनगुना कर,

भँवरे सा नशे में हम झूम कर उड़ने लगे हैं....

शांत नीरव मन के जंगल में हम सखी,

झरनो के कल कल निनाद सा छिड़ने लगे हैं।

आकाश में उड़ने की आदत नहीं है हमको,

उड़ने की कोशिश करते हुये हम गिरने लगे हैं।

रविवार, 27 मार्च 2011

कुछ मीठी कुछ खट्टी

वो तुमको इतना चाहता है की -

खुदा बना देता है,

तुम उसको चाह के -

कम से कम इंसान तो बना डालो।

*******************************************पूर्ण समन्वित

यूँ पलकों पे ,

ख्वाब उतर जाने दो -

आवारा बादल सा ,

भटक रहा मैं -

मुझको अपने घर जाने दो।

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गर्मियों के मौसम में,

कुछ यूँ किया जाए -

आपकी आँखों के समंदर में,

कुछ पल तैर लिया जाए।

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आजकल वो -

नकाब के बिना ही निकलता है...

सुना है -

आफताब ने अपना काम,

उसे आउटसोर्से कर दिया।

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यमराज ने -

जब से खोल रक्खा है,

इंडिया में अपना कॉल सेंटर -

रोंग नंबर की तादाद,

बढती ही जा रही।

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म्यूजिक कम्पोजर्स ने -

जब से धुन सुना के ,

गीत लिखवाये....

कोयलें भूल गयीं -

गा गा के कूकना।

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बुधवार, 16 मार्च 2011

मन मेरा आवारा बादल,घूमे इधर उधर है,
फूल फूल पत्ते पत्ते से पूछे सजन किधर है।
इंतज़ार कर कर के आँखें कब की निचुर गयी,
ह्रदय की धमनी धरक धरक कर देखो सिकुर गयी,
ना चिठिया ना कोई पाती, ना ही कोई ख़बर है,
फूल फूल पत्ते पत्ते से पूछे सजन किधर है।
तुम बिन मेरे जीवन में सब कुछ है मुरझाया सा,
रात अगर बेचैन रही तो दिन भी है बौराया सा,
भूल गया हूँ अपनी मंजिल,खोया हुआ डगर है,
फूल फूल पत्ते पत्ते से पूछे सजन किधर है।
चीड़ वनों की मदमाती गंधों ने तुमको याद किया,
झरनों के कल कल निनाद ने तुमसे है फरियाद किया,
तुम बिन जो मेरा है वो ही उनका भी हुआ हसर है,
फूल फूल पत्ते पत्ते से पूछे सजन किधर है।
ठंडी मस्त बयारों ने भी कह दिया मुझको मेरा हाल ,
जीव जंतु सब प्राणी की आंखों से झांके यही सवाल,
कौन है वो शमा जिस पर तू जलता रोज़ भ्रमर है,
फूल फूल पत्ते पत्ते से पूछे सजन किधर है।
एक तुम ही मेरे हो अपने बाकी सभी पराये हैं,
कुछ उखरे उखरे से हैं,और कुछ कतराए हैं,
रूठी हुयी हवा है तुम बिन,रूठा हुआ शज़र है,
फूल फूल पत्ते पत्ते से पूछे सजन किधर है।
तस्वीरों से दिल बहलाता माजी में मैं जीता हूँ,
यादों के धागों से मैं तो चाक जिगर को सीता हूँ,
तुम बिन जीवन सूना सूना, जैसे कोई कहर है,
फूल फूल पत्ते पत्ते से पूछे सजन किधर है।
अब तो आ जाओ की मेरे जीवन को श्रृंगार मिले,
चिड़ियों को मीठी तान और फूलों को फ़िर बहार मिले,
तुमसे ही तो शाम है मेरी, और तुमसे ही हुआ सहर है,
फूल फूल पत्ते पत्ते को कह दूँ सजन इधर है।
(इस कविता को दुबारा यहाँ प्रस्तुत कर रहा,पूर्व में इसे अगस्त २००८ में प्रस्तुत किया था।)

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

आओ फिर गीत सुनाएँ तुमको....

तुम हो
तुम्हारा ख्याल है ,
और -
चाँद रात है....
जुगनुओं को -
पकड़ने की कोशिश करता ,
मैं -
और मेरे पीछे ,
भागती तुम....
चीड़ों की लम्बी सी कतार,
और -
उसके बीच की,
सर्पीली सी सड़क....
और उसपे -
नंगे पाँव भागते,
हम और तुम....
तुम्हारे होठों को -
चूमती हुयी ,
लचीली गुलमोहर की डाल....
और -
अमलताश के फूलों का,
बिखरा तुम्हारे चेहरे पर-
वो पीला सा गुलाल...
तुम्हारे क़दमों के नीचे ,
बिछा-
जक्रंडा के बैगनी फूलों का,
ख़ूबसूरत गलीचा....
ये मेरा ख्याल है,
या -
बसंत का पदार्पण ...
तुम्हारी साँसों की खुशबु है,
या -
मेरे ही ह्रदय का स्पंदन...
मदमाती सी हवा -
बाजरे की खनक लेकर,
नाच नाच जाती...
मेरी पलकों को ,
तुम्हारे अधरों ने शायद -
चूमा है अभी...
मैं नींद के दरवाज़े ,
ख्वाब की दस्तक सुन रहा।
तुम हो,
तुम्हारा ख्याल है -
और चाँद रात है.....
***************************************
आओ -
फिर गीत सुनाएँ तुमको ...
तेरी पिपनियों को ,
सितार के तार कर लूँ...
और -
अपनी उँगलियों को,
कर लूँ मैं मिजराब...
और फिर ,
बैठ जाएँ-
किसी झील में ,
पाँव दिए हम ....
और फिर,
लहरों में फेंकते रहें -
अपने ख्वाब की धुन।
और फिर,
तरंगों को -
अपनी उँगलियों की पोरों से उठा कर,
डाल दूँ तेरी आँख में -
मैं बेसाख्ता...
और फिर मेरी धुन पे,
रक्स कर उठेंगी -
तेरी आँखों के समंदर में,
लहराती शराब...
एक नशा सा,
छा जायेगा हर शू -
हर तरफ ,
जिंदगी धनक ओढ़ के -
नाच जायेगी...
सच कहता हूँ -
की फिर,
रुखसत नहीं लेगी बहार -
जिंदगी को जिंदगी -
मिल जायेगी।
****************************************
(महादेवी वर्मा से क्षमा याचना समेत)
जो तुम आ जाते एक बार ....
मन हो जाता सागर अथाह,
हो जाती आसान मेरी ये राह,
झंकृत हो जाता मन का सितार,
जो तुम आ जाते एक बार ....
चांदनी सिक्त होती हरेक रात,
दिन ले आता खुशबु की परात,
जीवन में हर पल होती बहार ,
जो तुम आ जाते एक बार...
खिल जाते हर तरफ शतदल कमल,
हिमखंड भी जाता फिर पिघल पिघल,
प्रकृति फिर कर लेती नव श्रृंगार,
जो तुम आ जाते एक बार....
मन हो जाता यमुना का तीर,
पावन हो जाता मेरा ये शारीर,
बाहें हो जाती कदम्ब की डार,
जो तुम आ जाते एक बार...

बुधवार, 9 मार्च 2011

ये न थी हमारी किस्मत .....

(मिर्ज़ा ग़ालिब से क्षमा याचना समेत )
ये न थी हमारी किस्मत की विसाल ए यार होता,
हर जनम तू मेरी होती और मैं तेरा नीहार होता।
रात भर मैं सोता तेरी जुल्फों की चादर ओढ़ कर,
मेरी आँख जब भी खुलती,बस तेरा ही दीदार होता।
तेरी बांहों में सिमट कर मैं पिघल पिघल सा जाता,
तेरी साँसों में रच बस कर मैं खुशबु ए बहार होता।
तेरी पलकों के साए तले ही मेरा ख्वाब रंग पाता ,
तेरी कातिल निगाह का बस मैं ही एक शिकार होता।
तुझे ढूंढता रहा मैं हर शहर हर गाँव हर गली में ,
मुझपे छाया हुआ हरदम बस तेरा ही खुमार होता।
मेरे काँधे से लगी हुयी तुम जब थक हर के सो जाती,
तुझको घेरती हुयी मेरी ये बाहें शज़र ए देवदार होता।
तेरी आँखों से जो पीता हूँ तो जी जाता हूँ हर पल को,
तू मेरी ज़िन्दगी होती जानम और मैं तेरा प्यार होता।
-नीहार
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तुम्हारी बाहें हैं हज़ार राहें
हरेक राह मुझे तुम तक है ले जाती।
जहाँ नहीं तुम सब रास्ते हैं गुम
लौट लौट जाती वहां से मेरी निगाहें।
तुम सिर्फ हमको चाहो हम सिर्फ चाहें तुमको,
मोहब्बत को मिल जाये फिर खुशबु की पनाहें।
न कोई शिकवा न गिला कोई हमको,
न आंसू बहे और न ही निकले कोई आहें।
तमन्ना है बस इतना की तुम सामने रहो बैठी,
तुम मुझको सराहा करो और हम तुमको सराहें।
-नीहार
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(यह छंद पूर्व में भी सम्पादित किया गया है पर इसमें शुरू की दस पंक्तियों के बाद नवल पंक्तियाँ हैं.पाठक चाहें तो दिनांक २८ फरवरी की रचना का पुनः पठन कर आस्वादन कर सकते...कुछ फर्क तो मिलेगा स्वाद में.)
सांस -
महकी हुयी -
खोजती है तुम्हे,
मन के अन्दर-
समर्पण की जगे भावना ।
तुम -
जो होते हो पास -
तो -
मन की वीणा पे फिर,
करता रहता हूँ मैं -
नित्य दिन साधना।
दूर -
करती हो तुम
मेरे मन का तिमिर,
हर-
लेती हो तुम
मेरी हरेक यातना।
मांगता हूँ तुम्हे
रात दिन -
मैं दुआ में,
मंदिर में-
ईश्वर से करता,
मैं तेरी याचना।
-नीहार
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सुबह -
निचोड़ी हुयी रात का दर्द,
मेरी आँखों से -
यूँ बहा.....
जैसे कि ,
बारिश में -
उफनती हुयी दरिया...
जैसे कि,
खिलते फूल से -
पिघलती खुशबु....
जैसे कि,
मन के अन्दर -
घुमड़ता कोलाहल....
जैसे कि -
किताब के पन्नो में -
बिखरी चाँद हर्फें....
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शनिवार, 5 मार्च 2011

कुछ खुशबु जैसी बातें....

तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और मदमाती सी सुबह है.....
सामने ठाठें मारता विशाल समुद्र,
जिसकी लहरों पे डोलती छोटी छोटी नौकाएं -
जैसे नीले आसमान में टिमटिमाते सितारे...
झिलमिल झिलमिल से।
लहरें चांदी की परात सी रौशनी का फानूस बनी हुयी...
दूर उफक पे खुर्शीद का जादू खून सा रंग लाता हुआ -
या जैसे कोई नवब्याहता के कनक से दमकते चेहरे पे,
जैसे गुलाल का विस्तार...
या जैसे किसी ने सागर की मांग में सिन्दूर की लाली सजा दी हो।
बगुलों की जमात उड़ उड़ कर-
सूरज को लीलने की कोशिश करती हुयी....
हवा मद्धम सी गुनगुना कर ,
तुम्हारी खुशबू लाती है ...
और मैं जी उठता हूँ।
मेरी सांसें पुखराज हो समुद्र की लहरों पे,
सूर्य किरणों की पाजेब बाँध रक्स करने लगती हैं...
यादें मोती बन पेरी पलकों पर ,
जुगनुओं सा मचलने लगती हैं।
मैं तुममे उसी तरह खो जाता हूँ,
जैसे हवा में फैली हुयी धूप।
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और आँखों में बंद तुम...
धड़कन है, सांसें हैं और उनमे बसी तुम।
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तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और कोहसार में लिपटी सर्द रात है....
घने पेड़ अपनी परछाइयों को ओढ़ कुनमुना रहे,
उनके पत्ते ठण्ड में बर्फ हो काले होते जा रहे
तुम्हारी खुशबु मुझे कई कई रंगों में ढूंढती है,
शाख सोये सोये से हैं...
पूरा शहर सुनसान और चौराहों पर अलाव के धुओं की तपिश,
मुझे खींच लेती है अपनी ओर...
मेरी आँखें उन धुओं को पी लेती ,
और मचलती हुयी दरिया हो जाती।
सारा का सारा मंज़र राख हो जाता...
तबियत भी उदास हो जाती।
ऐसे में तुम्हारी याद -
दवा बन कर मेरे पास होती।
रात भर सोया रहा ओढ़े हुए यादों का लिहाफ....
नम थी आंखें पर फिर भी दिख रहा था हमें साफ,
तुम थी मेरी आँखों के आगे ओढ़े हुए बर्फ ,
मैं था अपने लब पे तुझे नम किये हुए...
हर आहट में तेरे क़दमों के फूल मैं चुन रहा -
मैं अपने दिल में तेरी धडकनों को सुन रहा।
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और अलसाई सी सुबह है...
मेरी पलकों पे रात शबनम सी बिखरी हुयी है।
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तुम हो , तुम्हारा ख्याल है और बर्फ सी रात है....
क्गंद्नी खुद को कुहसार में तब्दील कर चुकी,
चारों तरफ सिर्फ कुहासे ही कुहासे -
पेड़ों की पत्तियां सिहर सिहर खुद में सिमटी जा रही,
फूलों का मुंह सूजा हुआ....
उन्हें धूप ने नहीं...कुहासों ने छुआ है।
इस ठिठुरती रात मेंतुम्हारे साँसों की गर्मी -
मुझे एक अलाव से उठती गरम हवा सी नहला जाती है...
मैं पूरी तरह खिल जाता हूँ -
ठीक उसी तरह जैसे जाड़े की सर्द सुबह...
किसी गुलाब को धूप ने छू लिया हो।
मेरा खिलना - गुलाब का खिलना....
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और सुबह की आँख में धूप की तपिश का इंतज़ार है ....
और खिले गुलाब की पंखुड़ियों पे बिखरा हुआ ये नीहार है।

बुधवार, 2 मार्च 2011

तुम्हारे लिए ...

बादलों से तुम्हारी जुल्फों की खुशबु चुरा रहा,
सांझ को उँगलियों की पोरों से -
तेरी आँख में काजल सा सजा रहा।
ये जो टप टप सी बरसती हैं पानी की बूँदें ,
उनकी धुन पे आवारा मन मेरा ताल दे रहा ।
क्यूँ लगता है यूँ मुझको तुम कह रही मुझसे,
मैं अपने दिल की धडकनों से तेरा हाल ले रहा।
जिस पल मेरी बात से शर्मा सी गयी तुम,
उस पल तेरे चेहरे का मैं गुलाल ले रहा।
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सुबह सुबह चाँद के बुझते ही,
तेरी यादों का मशकबू जलाता हूँ...
और उसके धुएं की खुशबु में,
अपने अज़ाब से निजात पाता हूँ।
तुम्हारी याद है की दिए की लौ सी -
थरथराती रहती है,
और मैं उसे अपनी दोनों पलकों की,
ओट दे बुझने नहीं देता...
ये याद ही है तुम्हारी,
जो मेरे बिस्तर की सलवटों में चस्पां है...
मैं अपने जीस्त की ऊष्मा से -
उस बर्फ को पिघलाता हूँ ...
और फिर मेरी आँखें ,
उफनती दरिया हो जाती।
मेरी यादों में तुम्हारा अक्स और,
मुझे धूप करता तेरे लम्स का खुर्शीद....
हर पल तुम्हारे चाँद से चेहरे को -
अपने हाथों के बीच गुलाब होते देखता हूँ....
हर पल अपने दिल को -
तुम्हारी एक झलक के लिए ,
बेताब होते देखता हूँ।
तुम हो , तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...
टिमटिमाते सितारे हैं और खुशबु ए जज़्बात है।
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अपने ख्वाब का ताना बना बुन रहा -
पलकों से आँख के मोती चुन रहा....
कुछ गीत लिखे हैं मेरे मन के पटल पर -
आँखें बंद किये मैं उनको सुन रहा।
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तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...
एक खामोश हवा का दर्द है,
जो बंशी की धुन सा बिखर रहा।
ओस बूंदों से नहाई चन्द्र किरणे,
फूलों के बदन पखार गयीं हैं...
सिहरती रात -
यादों का अलाव जलाये हुए है।
मेरी हथेली पर आँख से टपक कर,
एक अश्रु बूँद मोती हो गया....
आओ तुम्हारी माँग में,
मैं वो मोती सजा दूँ ।
तुम हो , तुम्हारा ख्याल है और ठिठुरती सी रात है...
आँखें हैं,नींद है और बस तुम्हारा ख्वाब है।
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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

मुक्त छंद

बीता कल - सूना पल
मन चंचल - नैन छल छल
दिन बेचैन - रात बोझल
खुली आँख - स्वप्न ओझल
बहते अश्रु - जैसे अविरल
मन के अन्दर - तुमुल कोलाहल
यह जीवन - एक दलदल
-नीहार
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कच्चा घड़ा - मन बावरा
मिटटी हुआ - जब ठोकर पड़ा
फिर से चली - जब कुम्हार की चाक
हाथों ने कुछ गढ़े - मूरत बेबाक
एक सिमटी हुयी - खुद में खोयी हुयी
पलकों में ख्वाब - है पिरोई हुयी
कुछ जागी हुयी - कुछ सोयी हुयी
ठिठुरती हुयी - खुद से लिपटी हुयी
वो अभिसार के पल - से चिपटी हुयी
उसकी बाँहों में - जाये जिंदगी गुज़र
ख्वाब देखे सुनहरे - मेरी ये नज़र
फूल के पाँव से - वो आये चलती हुयी
खुशबुओं की दरिया - सी मचलती हुयी
हर तरफ उसकी आहट - मैं सुनता रहूँ
फिर नए ख्वाब रोज़ - मैं बुनता रहूँ
गुनगुनाता रहूँ - धूप सा बन के मैं
उसकी साँसों में - मैं फिर सुलगता रहूँ
काश ऐसा कोई पल - मिल जाए मुझे
मैं उसमे ही - जीवन बन पलता रहूँ
बूँद बूँद सा - उसमे मैं पिघलता रहूँ ।
-नीहार
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तुम और हम - आँखें पुरनम
बरसे खुलकर - झम झमाझम
अग्निशिखा सी - रक्तिम रातें
मन को बांधें - मन की बातें
अधर भींग कर - हुआ अमिय और
टपके जैसे - रात का शबनम
तनहा तनहा - मन बावरा हो
तोड़ रहा है - अपना संयम
तुम्हें समर्पित - मेरी पूजा
करता तुझको - मैं सबकुछ अर्पण।
-नीहार
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सांस -
महकी हुयी -
खोजती है तुम्हें ,
मन के अन्दर -
समर्पण की -
जगे भावना।
तुम -
जो होते हो पास -
तो मन की वीणा पे फिर,
करता रहता हूँ मैं -
नित्य दिन साधना ।
मैंने -
सीखा तुम्ही से -
योग और ध्यान सब,
मैंने -
सीखा तुम्ही से -
है मन को बांधना ।
मन -
के अन्दर जला कर -
एक लपट प्यार की ,
भस्म करता -
हूँ मैं -
अपने मन की वासना।
-नीहार

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