अपने आप से अपेक्षाएं रखना बुरी बात नहीं -
पर,
शायद उनका पूरा न होना,
कहीं तोड़ता है भीतर ही भीतर....
आदमी का मेरुदंड -
धीरे धीरे गलता जाता है...
उसका विश्वास ख़त्म होता जाता है,
और वह-
तब्दील होता जाता है गुंथे आटे की तरह ,
जिसे -
जो , जब, जैसा चाहता है वैसा ही रूप देकर,
पका डालता है वक़्त के गर्म तवे पर।
इसलिए -
अपेक्षाएं रक्खे बिना ही जीना.....
ज्यादा अच्छा है।
न तो मेरुदंड गलता है....
न ही विश्वास ख़त्म होता है...
और -
न ही वह गुंथे हुए आटे में तब्दील होता है।
पर आखिर है तो वह आदमी ही ना....
प्रयास तो करेगा ही -
धीरे धीरे ,
मकड़ी की तरह -
ऊपर चढ़ेगा...
जाल बुनेगा....
और फिर काल रुपी गिरगिट के-
लोलुप जिह्वा का ग्रास बन,
वक़्त से पहले ही भोज्य होगा...
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क़ुतुब सी -
ऊंची छलांग मार कर हम,
चाहते हैं ऊपर उठना।
पर -
हम यह भूल गए कि,
गिरेंगे तो बच पायेंगे क्या?
क्या दधिची बन कर,
हम अपनी हड्डी के चूरे से,
एक नयी श्रृष्टि का निर्माण करेंगे?
या हम स्फिंक्स कि माफिक ,
फिर दुबारा जीवित हो खड़े हो जायेंगे...
शायद -
पुनर्निर्माण कि प्रक्रिया -
हमारे ऊपर उठने और गिरने से ही जुडी है।
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मैं -
शब्द रहित -
व्याकुल मन से -
पूछूं तुमसे कि तुम -
कहाँ कहाँ रहती हो सजनी।
तुम -
चबा चबा -
कर शब्दों को -
कहती हो धीरे से मुझसे-
दिनन न चैन चैन नहीं रजनी।
सब -
व्याकुल सब -
परेशान हो कहते -
अब चल दूर कहीं -
जहाँ कहीं भी चैन मिले -
और मिले शांति कि गंगधार-
जिसमे डूब डूब कर तुम हम सब -
भूल जाएँ सब दुःख -
पाएं नित दिन हम सुख -
9 टिप्पणियां:
संवेदनाओं को खूबसूरती से समेटा है ...अच्छी रचना
तीनों रचनाएँ गहन अनुभूति लिए हुए
भावना प्रधान सुन्दर कविता..
बहुत सुन्दर ,गहन भावों की रचनाएँ ...
सम्पूर्ण जीवन दर्शन समाहित है ...
भाव प्रवण होने और यथार्थ के बेहद करीब सुंदर कविताएँ|
http://samasyapoorti.blogspot.com
क़ुतुब सी -
ऊंची छलांग मार कर हम,
चाहते हैं ऊपर उठना।
पर -
हम यह भूल गए कि,
गिरेंगे तो बच पायेंगे क्या?
भाई निहार जी बेहतरीन कविताएं पढ़ने को मिलीं साथ ही आपके दमदार व्यक्तित्व से साक्षात्कार हुआ |बधाई और शुभकामनाएं
अपेक्षाएं रक्खे बिना ही जीना.....
ज्यादा अच्छा है।
न तो मेरुदंड गलता है....
न ही विश्वास ख़त्म होता है...
बहुत सुंदर .... बेहतरीन भाव लिए हैं रचनाएँ....
तीनों रचनाएँ गहन अनुभूति लिए हुए| धन्यवाद|
गहन अनुभूति लिए हुए ... खूबसूरती से
संवेदनाओं को लिए हुए...यथार्थ के करीब तीनों कविताएं बहुत सुंदर हैं...
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