शनिवार, 19 अप्रैल 2014

गजल

गुनगनाती शाम तू मेरा पता न पूछा कर,
मैं वहीं होता हूँ जहाँ चाँद की परछाँई है ।

अब तो तालाब का पानी भी उफन पड़ा,
उसने अपने चेहरे से जुल्फ जो हटायी है।

आज मौसम फिर से गरम हो गया लगता,
आज मेरी बाँहों में वो फिर सिमट आयी है।

सुर्ख लब,नमनाक आँखें और ये घने गेसू 
ये सब हैं मेरे खयाल में और मेरी तन्हाई है।

मैं निभाता हूँ हर रिश्ते को बड़ी संजीदगी से,
फिर भी लोग कहते हैं कि ये बड़ा सौदायी है।

आज कई साल बाद है भींग गयी मेरी आँखें,
आज उसकी चिट्ठी मेरे हाथ फिर लग आयी है।

फिर खनकी है पाजेब उसकी रुनझुन रुनझुन,
सुना है मेरे ख्वाब में वो नंगे पाँव चली आई है।

सोने दो 'नीहार' को उसे तुम आज मत जगाओ,
सुना है कई साल के बाद उसे ये नींद आई है ।

- नीहार ( चंडीगढ़, २१ मार्च २०१४)


सोमवार, 14 अप्रैल 2014

गज़ल

इमारत तोड़ने की ये साजिशें हैं,
सियासत की यही तो रिवायतें हैं।

गरीब की आँख में तुम देख लो,
वहाँ भी उगी हुयी कुछ चाहतें हैं।

यहाँ हर इन्सान की किस्मत में ,
लिखी कुरान की कुछ आयतें हैं।

मैं  अधिकार की करता हूँ बातें,
तुम कहते हो कि ये शिकायतें हैं।

अपने दम बनने का भरम मत रख,
ये सब तेरे माँ बाप की इनायतें हैं।

आज भी हर जगह  हमारे देश में,
लड़कियों के लिये ही हिदायतें हैं।

- नीहार