रविवार, 31 जनवरी 2010

एक दूजे के लिए

(यह कृति जून १९८८ में मैंने बनाई थी और इसका नाम दिया था "मेड फॉर इच अदर"(एक दूजे के लिए)..)जाहिर है यह कृतित्व मेरे व्यक्तिगत भावों को दर्शाता है ..नीचे इस से जुडी एक छोटी सी कविता भी है ,जिन्हें मेरे दिल की धरकनो ने बुना, हाथों ने कलम उठाया, कागज़ पे लिखा और मन ने उस वक़्त से जो गाना शुरु किया तो आज तक गाये जा रहा है...)
नींद में डूबी उनकी आँखें कितनी प्यारी लगती हैं,
खुल जाए तो वो ही आँखें छुरी कटारी लगती हैं।
जुल्फ अगर सावन की बदली, होंठ है जैसे सुर्ख गुलाब
रंग सुनहरी धूप किरण है , उनका पूरा चेहरा है माहताब,
साँसों की खुशबु से वो तो फूलों पे भारी लगती हैं,
नींद में प्यारी लगती हैं।
चाल अगर हिरनी सी है तो , स्वर कोयल की मीठी तान,
अंग अंग मदिरालय उनका , जो दे जीवन को नया प्राण,
एक फूल क्या वो तो के फूलों की क्यारी लगती हैं,
स्वर्ग की नारी लगती हैं।
-नीहार ( जून १९८८)

सोमवार, 25 जनवरी 2010

और मेरा खून खौल उठता है...

तुमने कभी सोचा है -
की, कैसा लगता होगा -
मलमल के कपड़ों में सज, खादी की विशेषताओं पे बोलना।
या, विदेशी 'बो" बंधे कंठ से स्वदेशी अंग वस्त्रं पहनने की सलाह।
या, फ्रेंच अतर में नहा कर देशी दुर्गंधी पर एक अभिभाषण।
या, मुर्गे की एक पूरी साबुत टांग अपनी दांत से नोचते हुये,
गरीबी और भुखमरी पर अश्रुपात।
या, मखमली बिस्तर पर इम्पोर्टेड मछरदानी में लेट कर ,
मलेरिया से बचने का उपाय सोचना । ..... । ....... ।
तुम नहीँ सोच पाओगे....मैं भी नहीं सोच पाता था।
मैं सोचता था की ये बातें सिर्फ बातें ही होंगी,
हमारे देश के कर्णधार इतिहास से सबक ले चुके होंगे -
उन्हें याद होगा -
भूख से बिलबिलाते हुये फ्रांसीसियों ने रोटी के बदले( मांगे जाने पर),
केक खाने की सलाह सुन - पूरी व्यवस्था को पलट डाला था -
एक क्रांति के ज़रिये।
पर, मुझे यह देख कर अचम्भा होता है , कि -
हमारे देश के लोग -अब भी सोये पड़े हैं, ओर
हर रोज़ उन्हें सपने बेचे जाते हैं और वो,
उन सपनो को हकीकत समझ कर उस अंधकूप में खोये पड़े हैं।
मेरा खून खौल उठता है....
हर रोज़ टेलीविजन पर , गरीबी और भूख से मरते बच्चों को,
जब संतरे के जूस और न जाने क्या क्या पिलाने कि सलाह दी जाती है,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ जब मैं , गरीब जनता के पैसों को ,
तथाकथित ' कल्याणकारी कार्यों" में हवा होते देखता हूँ ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ जब मैं ' स्लम्स ' से गुज़रते कीचड उछालते कार में बैठे,
नेताओं कि नाक पे रुमाल और आँख में घृणा देखता हूँ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ जब अस्पताल में मजबूरी और गरीबी का बिका खून,
किसी अमीर कि नसों में चढ़ता देखता हूँ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ जब मैं भूख से बिलबिलाती ,बाढ़/सूखा पीड़ित जनता कि,
कटोरियों को मंत्रियों/संतरियों द्वारा दान की गयी ,
सड़ी पाँवरोटी से भरी देखता हूँ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ जब मैं अस्पतालों में ज़िन्दगी के बदले,
मौत का खुला व्यापार देखता हूँ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
जब मैं शिक्षण संस्थानों में नैतिक व चारित्रिक शिक्षा दले,
हड़ताल कि साजिश देखता हूँ ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ मैं जब राशन में अनाज के दानो के बदले ,
नेताओं के भाषण के अंश पाता हूँ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ जब मैं अपनी इस मजबूर व्यवस्था को,
पल पल क्षण क्षण हर घडी यूँ
मरते तब मेरा खून खौल उठता है।
सच तो ये है कि, मेरा खून हर जगह, हर बात पर खौलता है...,
कभी वोह देश के हर हिस्से में हो रही खूनी वारदातों पे खौलता है ,
कभी आतंक के नाम पर निरीह लोगों कि मौत पर,
तो कभी मराठी, तो कभी मद्रासी ,तो कभी पंजाबी और
कभी अन्य भाषाओँ में बटे लोगों कि मानसिकता पर,
कभी असाम और कश्मीर कि जनता कि अस्तित्व विहीन झगडे पर,
कभी आंध्र, कभी कर्नाटक, कभी गुजरात , कभी दिल्ली कि लूट
और कभी बिहार और उत्तरप्रदेश कि अस्मिता को तिरस्कृत करती राजनीती पर,
कभी मस्जिद , कभी मंदिर, कभी चर्च तो कभी गुरुद्वारा,
कभी राम , कभी रहीम और कभी संत समाज द्वारा
टुकड़े टुकड़े होते हुये इस देश पर,
मेरा खून खौल उठता है....
हर जगह...हर घड़ी...हर पल.... पर होता कुछ नहीं....कुछ भी नहीँ....
मेरे खून को जैसे खौलने की आदत पड़ गयी है... ।
उसके खौलने से कुछ फर्क नहीं पड़ता ....न ही कुछ बदलता है...
सच तो ये है की मेरे खून का खौलना भी ,
मेरी रूटीन का एक अंग हो गया है....
और मेरा सोचने का दायरा तंग गया है।
सच पूछो तो दोस्त - मैं एक भ्रम की स्थिति में जीता रहा हूँ,
सपनो के चीथड़ों को ख्यालों के धागे से सीता रहा हूँ।
जब भी मेरी साँसों ने गर्मी दी, या मेरे नथुनों ने गर्म हवा छोड़ी ,
या मेरी आँखें जलने लगी ,मैं सोचने लगा की मेरा खून खौल रहा है।
पर ये धुआं ,ये गर्म हवा ,ये आँख का जलना ....खून के खौलने से नहीं...
दरअसल मेरा खून इतना बर्फ हो गया है,
की उस से भाप उठने लगा...आँखें जलने लगी, और
मैं इस भ्रम में जीता रहा की मेरा खून खौल रहा है।
दरअसल हम ठन्डे पड़ चुके हैं - हमारी इक्षाएं जम चुकी हैं,
हमारे सोचने की शक्ति बर्फ हो चुकी है .....हमारी क्रांति अभिलाषा ख़त्म हो गयी है।
और, हम एक बड़े से बर्फ के टुकड़े की मानिंद,
अपने भीतर की गर्मी को पीकर -
एक दुसरे से चिपके जा रहे हैं,
और यूँ ही चिपकते रहेंगे।
तकलीफ सहते रहे हैं और तकलीफ सहते रहेंगे...
व्यवस्था के खिलाफ चुप रहते रहे हैं और चुप ही रहेंगे... ।
अगर कहीं आपस का ' एडजस्टमेंट' बिगड़ता है तो हम,
एक बड़े हिमखंड की तरह समस्या से भाग खरे होते हैं...
और 'आइसबर्ग' कहला कर गौरवान्वित होते हैं।
दरअसल हम खुद एक साजिश के तहत जीते रहे हैं ,
हमने अपने चेहरे पे पहन रक्खा है एक नकाब,
हमने अपनी आँखें फोड़ डाली है...और,
कानो में पिघला शीशा उड़ेल रक्खा है ,
हमने अपने नाक कान सब बंद कर रक्खे हैं...
हमारे दिमाग की बत्ती हो गयी है गुल...
हम कैद में फंसे हैं जैसे कोई बुलबुल।
सचमुच हम प्रजातंत्र के षड़यंत्र का एक अभिन्न अंग हैं,
राजनीतिज्ञों/अधिकारीयों के जीवन का राग रंग हैं,
हाथ पाँव सही सलामत , फिर भी हम अपंग हैं ।
-- निहार ( वर्ष १९९० की रचना)

मौन की समिधा


हैं दिशाएं चुप की बस अब मौन की समिधा जलेगी,

मनुष्य के अंतःकरण में समय की दुविधा पलेगी,

ज़िन्दगी का अर्थ कोई जान पाया है कहाँ तक,

ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बन कर छलेगी ।

जल रहे हैं सभ्यता के गरिमामयी अवशेष सारे,

टूट कर गिरने लगे हैं संस्कृति के पुंज तारे,

खून की फेनिल नदी से देखो कोई है पुकारे,

घृणा और विद्वेष में क्या यूँ ही ये धरती जलेगी?

ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बन कर छलेगी ।

पशु वृत्ति को ओट ले देखो हम सब जी रहे हैं,

नीर के बदले मनुष्य का रुधिर देखो हम पी रहे हैं,

चीर कर खुद का ही सीना खुद ही उसको सी रहे हैं,

मौत की खेती यहाँ पर खूब फूलेगी और फलेगी,

जिंदगी ही जिंदगी को जिंदगी बन कर छलेगी।

थे खुले दरवाज़े सब अब बंद हो कर रह गए हैं,

घुप्प अँधेरे अपनी किस्मत में हमीं तो गह गए हैं,

मनुष्यत्व की लाश हम काँधे पे ढोते रह गए हैं ,

अब नहीं हिम की शिला गंगा बनी फिर से गलेगी,

ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बन कर छलेगी।

हम सभी उद्दाम वासना के द्वार पर देखो खड़े हैं,

"अहम्" की परछाईयों में जी रहे हम सब अड़े हैं,

भाई भाई भाईचारा भूल कर देखो कैसे लड़े हैं,

ऐसे में किसकी चली है और किसकी है चलेगी,

जिंदगी ही ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बन कर छलेगी।

गर दिखे कोई किरण तो तुम बढ़ के उसको रोक लो ,

मुट्ठियों में जकड उसको तुम जाओ अपनी कोख लो,

और प्यासी जीभ से तुम उसकी तरलता सोख लो,

जिंदगी शायद तुम्हारे कोख में फिर से पलेगी,

जिंदगी फिर जिंदगी को ज़िन्दगी बन कर मिलेगी।
_ निहार ( अप्रकाशित नाद ध्वनि संकलन वर्ष १९९० से )

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

भांति भांति के गणेश

ये सारे गणपति के स्केच मैंने फुर्सत के उन क्षणों में उकेरा था जब मेरे पास मेरे सोच, विचार और कल्पना शील मानस का साथ मेरी उँगलियाँ दिया करती थी और मैं हाई टेक पेन उठा किसी भी कागज़ पर या विजिटिंग कार्ड्स पर चित्र उकेर दिया करता था....उम्मीद है, आपको ये पसंद आएगा। फोटो की क्वालिटी के लिए माफ़ी चाहूँगा । - निहार





















रविवार, 17 जनवरी 2010

तुम्हारी याद

यूं मुझको याद आती है तुम्हारी ,
ज्यूं सर्दियों की धुप में जैसे
खुमारी,
जैसे किसी मासूम की कोमल हँसी,
जैसे किसी नवजात की बस किलकारी ।
जैसे किसी झरने ने गाया एक तराना,
जैसे कोई बारिश बरस जाये सुहाना,
जैसे भवरें गुंजायमान हों बाग़ में,
जैसे रंग बिरंगे फूलों से पट जाए फुलवारी।
जैसे धरती पर उतर आये कोई काली घटा,
जैसे बिखर जाए चन्दन की मादक गंध ज्यूँ,
जैसे मचल जाए सागर बिना पूरे चाँद के,
जैसे धरती पर की गयी हो चित्रकारी।
यूँ मुझको रोज़ आती है याद तुम्हारी.....
छा जाती है ज्यूँ मुझ पर कोई खुमारी ।
- निहार

शनिवार, 16 जनवरी 2010

नाद ध्वनि

(ये कवितायेँ मैंने वर्ष १९८८ और १९९० के बीच लिखी थी..मेरे विद्रोही तेवर उस वक़्त भी मेरी लेखनी को प्रभावित किये हुए थे और मैं चाह कर भी रोमांटिक नहीं हो पा रहा था...रोमांटिक कविताओं में भी कहीं एक आक्रोश दिखेगा, जिस से निजात पाने में मुझे कई वर्ष लग गए...)
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जब भी कुछ लिखना चाहता हूँ,
मेरे भीतर कुछ खुदबुदाता है ,
कुछ कुरेदता है मेरे दिल को ,
नाखुनो में भरी मिटटी नम / गीली होती है।
शायद,
निर्माण की क्रिया अभी अधूरी है,
शायद,
निर्माण की प्रक्रिया चल रही है,
शायद........शायद ....शायद,
और, इस निर्माण - प्रतिनिर्मान - पुनर्निर्माण की क्रिया - प्रक्रिया में,
उलझता रहा मन,
घूमता रहा नदी , जंगल , पहार और वन
पर मिला कुछ भी नहीं - कहीं भी नहीं -
ना ही शान्ति ... ना ही क्रान्ति ....
मिली भी तो .......
सिर्फ और सिर्फ ..... भ्रान्ति !
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जिंदगी -
कुछ मकसद तो है....
क्या?
जीना? - या कुछ करना?
जीना - तो फिर किसके लिए?
और करना - तो क्या?
दरअसल - इन्ही बेमानी सवालों के चक्रव्यूह में,
फंसे फंसे हम -
अपनी जिंदगी का अर्थ खो देते हैं , और
हमें पता तक नहीं चलता।
अंधे सवालों और बहरे जवाबों के बीच की दूरी ही ,
हमारी वास्तविक लाचारी है - मजबूरी है ,
और हमें उस से हर हाल में बचना होगा ,
जीने की खातिर, रोज़ एक नया ढोंग रचना होगा।
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मैं,
एक दिन राख हो जाऊँगा शमशान में -
या, गार दिया जाऊँगा कब्रिस्तान में -
या, किसी ऊंची मीनार पर रख दिया जाऊँगा,
ताकि मरने के बाद भी मैं काम आ सकूँ -
उन पक्षियों के, जो मुझे पचा सकें ।
पर,
फिर भी मैं जीवित रहूँगा....
एक एहसास बन, उन दिलों में ,
जिन्हें मैंने प्यार किया था।
अल्फाज़ बन उन होठों पे,
जिन्हें मैंने चूमा था।
यादगार बन उन फिजाओं में,
जहाँ मेरी साँसे घुलती थी , और
याद बन फिर घुलती रहेगी।
दुनिया, पहले भी बस्ती थी,
अब भी बस्ती है , और कल भी बसेगी।
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मंगलवार, 5 जनवरी 2010

विघ्न हर्ता

यह चित्र मैंने वर्ष १९९८ में उकेरा था । हाई टेक पेन से चित्र को अंकित करने की आदत को अपनी अर्धांगिनी द्वारा दिए गए प्रोत्साहन की बदौलत मैंने वाटर कलर में बदलने की नाकाम कोशिश की है। अपनी कृति है इसलिए पसंद है। उम्मीद है आप सब को भी पसंद आएगा।
_ निहार खान

विखंडित


यह चित्र वर्ष २००० में बनाया गया था । इसमें मैंने एक ऐसे व्यक्तित्व को चित्रित करने की कोशिश की है , जिसके कई चेहरे हैं..वोह नर और मादा से परे ,सिर्फ अपने विखंडित व्यक्तित्व को जीने वाला चरित्र होता है..एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग.....

--- निहार खान

वक्रतुंड

यह चित्र मेरे उन् कई गणपति के पेन स्केच का एक हिस्सा है जिसे रंग भर मैंने अपने घर के दीवार पे टांगने की हिम्मत जुटाई । इसे भी मैंने वर्ष १९९९ में ही चित्रित किया था...
--निहार खान

माँ काली


यह चित्र मैंने वर्ष १९९८ में अपने जमशेदपुर प्रवास के दौरान बनाया था .इस चित्र के माध्यम से मैंने माँ काली के उस रूप को चित्रित करने की कोशिश की है जहाँ माता का क्रोध शिवजी की छाती पर पैर रखते ही शांत हो जाता है और शर्म से उनकी जिह्वा बाहर आ जाती है।

_ निहार खान

सोमवार, 4 जनवरी 2010

तुम्हारी लटें, मेरा ख्याल और चाँद रात

उलझी लटों को आओ मैं संवार दूँ,आओ मैं जी भर के तुम्हे प्यार दूँ
तुम चाँद बन मेरा घर रोशन करो, मैं आसमान बन के तेरा सत्कार करूँ।
यूँ तो तुझसा है नहीं कोई सुन्दर यहाँ पर,फिर भी आ तेरा मैं नित नया श्रृंगार करूँ।
तेरे होठों पे सजा दूँ खुशबु-इ-गुलाब की,तेरी आँखों में नशा-इ-मोहब्बत उतार दूँ।
तेरी धरकनो को दूँ मैं प्यार का सरगम,तेरी साँसों को मैं चन्दन की खुमार दूँ।
प्यार दूँ,जी भर के तुझे मैं प्यार दूँ, तुझको तुझी से चुरा के मैं ,अपनी दुनिया संवार लूँ।
तुम मेरी धरकनो में गुम हो जाओ, मैं तुम्हारी कल्पना को एक नया आकार दूँ।
झरनों सा तुम मेरी जिंदगी में खिलखिलाओ, और मैं तुम्हे आकाश का फिर विस्तार दूँ।
खरगोश की नाज़ुकी लिए,फूलों की खुसबू लिए, बस तुम्हारे ही लिए मैं मौसम - ऐ - बहार दूँ।
तुमने खुद को जब कर दिया है अर्पण मुझे , मैं भला कैसे न फिर तुमको तुम्हारा निहार दूँ।

रविवार, 3 जनवरी 2010



तुम्हारी आँख के समंदर में डूब जाता हूँ,

दिन रात बस तुम्हारे ही गीत मीन गुनगुनाता हूँ।

जब यादों की तपती धूप झुलसाने लगती है हमें,

राहत-ऐ -जान के लिए अपनी आँखों से सावन बरसाता हूँ।

तेरी जुल्फों से चुरा लाता हूँ घनी काली बदलियाँ मैं ,

तेरे होठों पे गुलाब की मासूमिअत मैं सजाता हूँ,

मुझे ढूंढना चाहो तो झाँक लो दिल में अपने तुम,

मैं धरकनो की तरह तेरे दिल में ग़ुम सा हो जाता हूँ।

थक गए हो तो चलो अपनी आँखें बूंद केर लो तुम,

मैं ख्वाब की तरह तेरी पलकों पे बिखर सा जाता हूँ।

तुम्ही को सोचूं, तुम्ही को लिक्खूं, तुम्ही में रंग भरूँ,

बस तुम ही तुम को मैं हर पल अपने करीब पाता हूँ।

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मुझको एक रात उधार दे दो,अपनी साँसों का उपहार दे दो।
मैं ढून्ढ रहा तुमको इस बेजुबान शेहेर में दिन रात,
तुम कहीं से दौर के आओ और मुझे अपना दीदार दे दो।
यूँ तो हेर मौसम में आज कल खिल जाते हैं फूल ,
तुम आके उन् फूलों को रंगत-ऐ -बहार दे दो।
कभी बादल, कभी चाँद, कभी टिमटिमाते तारों सा,
मेरे जीवन को आ के तुम एक नया श्रृंगार दे दो।
मेरे ह्रदय की धरकनो में रच जाओ किसी गीत की तरह,
मेरे मानस को छू के तुम एक पवित्र विचार दे दो।
जो साथ है मेरे वो तुम्हारा अक्स है मेरी जानम,
जो है तुम्हारे पास उस का नाम निहार दे दो।
इस जनम या उस जनम या हर जनम के वास्ते,
अपने आप का मुझे तुम एक अप्रतिम उपहार दे दो।

कभी कभी यूँ ही बस .......

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ,
की तू है तो ज़मीन है तू है तो आसमान है,
तू है तो मुझपर खुदा हर वक़्त मेहेरबान है।
जो तू नहीं तो ऐ मेरी जान ऐ अदा ये जान ले तू,
जिंदगी बीच समंदर में उठा एक तूफ़ान है ।
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उनके ख्याल आये तो आये चले गए,
उनको सोच के गीत गाये चले गए।
उनकी आँखों के समंदर में कुछ इस तरह डूबे,
की जिन्दगीका लुत्फ़ जिनगी भर उठाये चले गए।
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तेरे होठों पे सजा दूँ गुलाब की लाली,
तेरी जुल्फों में उतार दूँ रात काली काली,
तेरे गालों को जो चूम के आयी है हवा,
वो बन गयी है मेरे हेर मर्ज़ की दवा।
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एक बार तो मेरे सीने से आके लग जाओ तुम,
एक बार तो मेरी सोचों मेतुम हो जाओ गूम,
एक बार तो यादों की बारिश को बरस जाने दो,
एक बार तो अपनी आँख से मोती टपक जाने दो।
एक बार तो कह दो की मेरे बिना सब सूना है,
एक बार तो मुझको यूँ ख्वाब में आ रुलाने दो।
एक बार तो अपने दिल को धरकने दो अपने नाम से,
एक बार अपनी साँसों को मेरी सांस से महक जाने दो।
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अकेलापन और तुम्हारी आह्ट

जब अकेलापन बहुत सताता है,मुझको खुद की तस्वीर वो दिखता है।
आईना जब भी मुझसे बात करे,मेरे अन्दर कुछ दरक सा जाता है।
कुछ हवा में अनमनी सी चाह जगे, कभी मैं सिरहाने तेरी चाप सुनु,
कभी बेसाख्ता अपने होठों पे, तेरे नाम की हरवक्त मैं सरगम धुनु,
कभी आकाश में पाखि सा उड़ जाए मन, कभी घुमु तेरी जुल्फों के वन ,
कभी बस चुपचाप तेरे कानो में, छोर जाऊं मैं बस अपना ही क्रंदन।
जिस तरह सावन में झमझम बरसे बादल, जिस तरह पत्ते भींगे पेड़ के,
बस उस तरह मन मेरा बन बावरा, भीग भीग जाए बस तुम्हारे प्यार में।
चलो अब नींद से जगा दो मुझको,एक बार तो सीने से लग जाओ तुम,
एक बार मुझे भर लो अपनी साँसों में, एक बार धरकनो में हो जाओ गूम।