ये सुबह …..
धुली धुली सी टंगी हुयी है,
और नीचे गलीचे सी –
नर्म घास पे,
बूंद बूंद टपकी सी ओस.....
मुझे – रात देर तलक,
चाँद के पिघलने की –
खबर मिली थी....
चलो, सूरज को
बेनकाब कर,
फिर एक कंदील जला दूँ,
ओस को भाप कर –
फिर रात के माथे का,
चाँद बनाना है.....
सुबह सिरफिरी है,
कब ख्वाबों के पत्ते खड़खड़ा
–
सूरज की कंदील बुझा दे,
क्या मालूम.....
चारों तरफ उजाले को फैला
कर,
मैं रात के धुले कपड़े –
सुखा रहा हूँ....और,
दिन को पहन कर मैं,
रात के नंगेपन को –
ढाँक लेता हूँ...
- नीहार (चंडीगढ़, 4 अप्रैल 2013)