मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

ये सुबह .......


ये सुबह …..

धुली धुली सी टंगी हुयी है,

और नीचे गलीचे सी –

 नर्म घास पे,

बूंद बूंद टपकी सी ओस.....

मुझे – रात देर तलक,

चाँद के पिघलने की –

खबर मिली थी....

चलो, सूरज को बेनकाब कर,

फिर एक कंदील जला दूँ,

ओस को भाप कर –

फिर रात के माथे का,

चाँद बनाना है.....

सुबह सिरफिरी है,

कब ख्वाबों के पत्ते खड़खड़ा –

सूरज की कंदील बुझा दे,

क्या मालूम.....

चारों तरफ उजाले को फैला कर,

मैं रात के धुले कपड़े –

सुखा रहा हूँ....और,

दिन को पहन कर मैं,

रात के नंगेपन को –

ढाँक लेता हूँ...

-    नीहार (चंडीगढ़, 4 अप्रैल 2013)