तुम लकीर के उस पार थी –
और,
मैं लकीर के इस पार...
न ही तुम सीता की तरह,
किसी लक्ष्मण के वचन से वद्ध थी –
और,
न ही मैं किसी काल के हाथों –
रावण रूपी कोई खिलौना था.....
न ही तुम्हें खुद को अपहरित करा,
किसी मर्यादा पुरुषोत्तम के विजयश्री का –
कारण बनना था....
और न ही –
मुझे किसी राम के हाथों मृत्यु का वरण कर ,
खुद को निष्कलंकित मोक्षत्व ही देना था....
हम बंधे थे अपने अपने,
परिष्कृत संस्कार से ...
और,
इसलिए तुम....ता -उम्र इंतज़ार करती रही मेरा,
की मैं कब उस लकीर को लाँघूँ...
और,
मैं इंतज़ार करता रहा तुम्हारा....
की कब तुम लकीर के इस पार आओ...
फर्क कुछ भी न था...
हमारा इंतज़ार ही हमारा प्यार था....
और-
जब हमने यह समझ लिया तो –
हमारे बीच की लकीर ,
खुद ब खुद मिट गई....
हम एकाकार हो गए....
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नीहार (चंडीगढ़ ,जून 23, 2012)