रविवार, 26 सितंबर 2010

तुम


तुम -
और तुम्हारा होना ......
एक एहसास की सिहरन,
एक मीठा सा ताना बाना,
एक ख्वाब जो आँखों की झील में -
खिलता हुआ एक नील कमल,
बर्फ की सफ़ेद पहाड़ों पे ,
नाचती सूरज की किरणे।
तुम्हारा होना......
दिल के कोने में धड़कता हुआ एक और दिल,
चाँद से चेहरे को ख़ूबसूरत बनता एक काला सा तिल,
समंदर के उफान को बंधता हुआ एक साहिल,
बादलों के परों पर धुनी हुयी ख्वाहिश ,और -
फूलों की क्यारियों में उड़ती हुयी तितलियाँ।
तुम्हारा होना.....
खरगोश के फरों सी मुलायम मुलायम एहसास,
चन्दन के जंगलों से चुराया हुआ श्वास,
खुद पे खुद का खुद से किया हुआ विश्वास,
अपने को अपने में अपनी तरह से पाने का प्रयास।
तुम्हारा होना....
सुबह से शाम तक फैला हुआ उजियारा,
रात में बिखरी हुयी चांदनी का नीरव विस्तार,
सितारों की झिलमिलाती रौशनी -
और खिलखिलाती वो हवा,
जो जीवन की है बेहद खूबसूरत सी दवा।
तुम्हारा होना........
मेरे होने का खूबसूरत सा एहसास,
मेरे वजूद का एक लम्स ,
मुझमे सिमटा हुआ मेरा ही खुद।
- नीहार

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

उसने मुझको ख़त लिखा था ....

मुझको उसने ख़त लिखा था,
और उसमे लिखा था आने को ।
वो नील गगन की चाँद सरीखी,
बन जाती मुझे ललचाने को।
जब झम झम बारिश होती है,
तब मन मेरा करता गाने को।
उनको अपने भीतर रख लूँ,
मन करता मेरा उन्हें पाने को।
बर्फ सा पिघला जाता हूँ मैं जब
सूरज आता है मुझे जलाने को।
मैं टुकड़े टुकड़े कट कट जाता ,
तन्हाई जब मुझे आती खाने को।
मैं नीहार बन जब बिखर सा जाता ,
वो पलकों पे आती उसे उठाने को।
- नीहार

बुधवार, 22 सितंबर 2010

सीप बन कर उसन मुझे सागर किया होगा.

मेरी आँखों ने सारा मोती लुटा दिया होगा,
सीप बन कर उसने मुझे सागर किया होगा।
मैं नशे में झूमता रहता हूँ रात दिन ऐ दोस्त ,
शायद मैंने उसकी आँखों से मय पिया होगा।
फूल फूल पे 'नीहार' बन कर बिखर गयी है वो,
मैंने हौले से जो उनको छू के हिला दिया होगा।
खुदा मुझसे नाराज रहता है आज कल शायद,
मैंने उनको जो 'खुदा' का दर्ज़ा दे दिया होगा।
वो बारिश सा तापस में मेरे मन को भिंगो दे,
मैंने प्यार से बर्फ को जो पिघला दिया होगा।
जो छू लिया उनको तो हो गया मैं पारिजात,
खुशबु सा उनपर खुद को मैंने लुटा दिया होगा।
-नीहार

शनिवार, 4 सितंबर 2010

गं गणपतये नमः

ये सारे स्केच मैंने वर्ष १९९१ में अपने नागपुर प्रवास के दिनों में(जब मैं पत्नी , जो उस वक़्त वहां प्रशिक्षण ले रही थी के पास जाता था और खाली समय का सदुपयोग यूँ करता था)बनाया था.












यह स्केच लक्ष्मण के मूर्छित होने पर हनुमान द्वारा संजीवनी बूटी लाने के दृश्य को दर्शाता है.














शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

ओउम श्री प्रभु नेताय नमः

आइये हुज़ूर और खाइए खजूर बाप बाप करके जिसे हमने लगन से बनाया है,
सूखी रोटी हम सभी खाते रहे उम्र भर आपको तो मेवा और फल ही खिलाया है।
सिखाया था हमको माँ बाप और भाई ने ,चाचा ने , मामा ने, संबंधों की गहराई ने,
कलियुग में नेता ही ईश्वरीय अवतार हैं,बाकि सब लोग तो ढोल हैं, पशु हैं, गंवार हैं,
आप ही हैं असली देव, आप ही सरकार हैं,बाकी सब देवता गण झूठ हैं मक्कार हैं।
आपकी ही भक्ति में अपनी शक्ति खोज हमने तो सारे दुखों को उसमे ही डुबोया है,
सूखी रोटी हम सभी खाते रहे उम्र भर आपको तो मेवा और फल ही खिलाया है।
पंचवर्षीय चुनावी युद्ध जब आप लड़ते थे, शर्म से हमारे गड़े सर और भी गड़ते थे,
भीख की कटोरी में भूख की राजनीति,धर्म की छाती पर अधर्म की ताज नीति,
नीति में अनीति और अनीति में कुनीति, इन सभी में पल रही आपकी कूट नीति,
जिन के चक्र तले हम सभी ने बचपन से अपनी इक्षाओं को बलिवेदी पर चढ़ाया है,
सूखी रोटी हम सभी खाते रहे उम्र भर, आपको तो मेवा और फल ही खिलाया है।
जब भी आये प्रभु आप हमारे द्वार पर,बैठे रहे आप अपनी ही लम्बी मोटर कार पर ,
गन्दी नाली, बदबू और मच्छरों के देश में,बीमारी बदहाली और पिछड़े परिवेश में,
आदमी की आदमियत और उसके भदेस में,आपकी ही ठोकर और आपकी ही ठेस में,
अपने आंसुओं को आपकी वादाओं की भेंट दे, उनपे जीना हमको आपने सिखाया है,
सूखी रोटी हम सभी खाते रहे उम्र भर, आपको तो मेवा और फल ही खिलाया है।
बोलो प्रभु कब सुनोगे तुम अर्जी हमार ,कब जा के लगेगी हमारी भी नैया उस पार,
कब मिलेगा खाने को हमें दोनों शाम,कब मिलेगा हमरी मिहनत का हमें सही दाम,
कब आएगा ज़िन्दगी में चैन और आराम,कब लगेगी यह ज़िन्दगी हमें एक इनाम।
कब हम निकलेंगे बाहर उस कुंए से , जिसमे जाति धर्म का विष आपने मिलाया है,
सूखी रोटी हम सभी खाते रहे उम्र भर , आपको तो मेवा और फल ही खिलाया है।

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

कुछ चित्र कुछ विचार

वर्ष १९८८ में मेरे द्वारा " परिवार" की कल्पना इस तरह की गयी थी।
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वर्ष १९८८ में बनी इस स्केच का नम रक्खा था मैंने " पोर्ट्रेट ऑफ़ अ मैन" ।
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यह स्केच मैंने वर्ष १९९० में बनाया था और इसको नाम दिया था "व्यक्तित्व की विकृति"। इस पर मैंने कुछ पंक्तियाँ भी लिखी थी जो इस प्रकार थी...
"वह लड़ता रहा ,
समय से -
और कभी ना
जीता -
और इसलिए वह,
असमय ही -
बूढा हो गया।
लड़ते लड़ते वह ,
अपना अर्थ खो गया।"
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यह चित्र मैंने वर्ष १९९० में बनाया था और इसे सर्व धर्मं संभाव की बुनियाद पर खड़ी अपनी स्वयं को सही रूप से चित्रित करने की कोशिश की थी। इसका नाम मैंने " द रियल सेल्फ" रक्खा था.इसे आप सीधे या उलटे किसी रूप में देख सकते हैं।
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१९९० में बनाई गयी यह कृति "पशु वृत्ति" का द्योतक है।