मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

मुम्बई की एक शाम खुद के नाम.......

समुद्र बहुत शांत है-
मेरे भीतर का शोर भी,
बिल्कुल थम सा गया है ....
यानि ,
मैं पूर्णरूपेण समुद्र हो गया हूँ अभी - इस वक्त ।
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मैं उन पत्थरों पे,
बैठ तो गया हूँ -
जिन पे बैठ कर मैं,
सपने तराशा करता था .....
पर ,
मुझे उन सपनों के -
तराशे हुये कतरे,
कहीं नहीं दिख रहे....
शायद ,
सपनों की भी उम्र होती है ।
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धूप साँझ हो कर ,
पिघल समुद्र में -
घुलती जा रही है ....
कुछ देर तक मैं -
उसे तकता रहूँगा,
और-
फिर दूर उफ़क पे,
एक पीला सा चाँद -
आकाश के माथे की ,
सियाही पोंछ देगा ।
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बस -
यूँ ही मैं गुनगुना रहा था,
और....
कविता बुनती जा रही थी -
 - नीहार (मुम्बई की एक शाम खुद के नाम )