रविवार, 28 मार्च 2010

खाली हाथ

तुम सोच रहे होगे - की,
जब भी मैं आता हूँ - खाली हाथ ही आता हूँ।
इस बार भी,मैं खाली हाथ ही आया हूँ।
वैसे, आने से पहले - इस बार,
मैंने भी सोच लिया था,की -
नहीं जाऊँगा खाली हाथ मैं।
पर, हूँ ना आदत से मजबूर - ,इसलिए,
आ ही गया मैं फिर से खाली हाथ -
मैंने सोचा था - की,
तुम्हारे लिए - बचपन की धूप चुरा कर ले चलूँ,
यह भी सोचा की -
इश्किया उम्र की खुशबु को - नथुनों में भर ले चलूँ।
या वे ठहाके ले चलूँ, जो अब भी गले में अटके पड़े हैं।
बहुत कुछ - बहुत कुछ सोचा था मैंने ---
झरनों की खिलखिलाहट/पत्थरों की तमाशाई/पेड़ों की बुजुर्गिअत/
हवाओं की सरसराहट/भंवरों की गुनगुनाहट/चांदनी की आहट
उन सबके विषय में सोचता था मैं --
जो थीं गवाह हमारे बचपन की - और,
बचपन से तब्दील होती जवानी की -----
पर, - ला नहीं पाया मैं - कुछ भी तुम्हारे लिए।
पहले जब भी मैं आता था -
तो मेरा हाथ खाली होता था,
और ह्रदय भरा होता था।
मैं आज भी भरे ह्रदय और खाली हाथ ,
तुम्हारे सामने हूँ --
मैं शर्मिंदा हूँ की खाली हाथ हूँ -
पर, ऐ मेरे दोस्त -
लम्हों को मुट्ठी में जकड मैं भला कैसे लाऊं?
ख़ास कर,
वैसे लम्हों को , जिनकी खुशबु ने मेरे दिल को धड़कन दी है।
जिस क्षण मैं उन लम्हों को पकड़ने की कोशिश करूँगा -
मेरी धड़कन हो जायेगी बंद, और शायद मैं तुम्हारे पास,
कभी ना आ सकूँगा।
बस इसी लोभवश मैं आता हूँ खाली हाथ, की -
कम से कम तुमसे मिलूं तो सही - तुमसे होऊं तो सही ,
क्षण भर को तुम्हारे काँधे पर सर रख सौं तो सही(रोऊँ तो सही ) ----
जिन पर सोये ( रोये) न जाने कितने दिन / महीने/वर्ष बीत गए।
- नीहार

शनिवार, 27 मार्च 2010

तुम्हारे साथ के पल


तुम्हारे साथ के दो पल, मेरे कल आज और कल।
तुम्हारी जुल्फों के साए में,मेरा दिन जाता है ढल।
मुझे मदहोश कर देती हैं ,तेरी ये दो आँखें चंचल।
वैसे हूँ पत्थर का बना ,पर तेरे साथ जाता पिघल।
जो तुम होते नहीं हो पास, तो मैं हो जाता हूँ विह्वल।
मैं सूरज की तपती किरण,तुम हो चंदा सी शीतल।
मैं पिघलता हिमखंड और तुम उससे गंगा हो निर्मल।
मैं तुम्हारा श्वास हूँ और तुम हो मेरे दिल की हलचल।
मैं ये जानता हूँ की तुम मेरी तपस्या का हो प्रतिफल।
-नीहार
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फूलों को चुनने की तो आदत नहीं थी हमें,
काँटों को आपकी राह से चुनते चले गए।
जो पल हमने गुज़ारे हैं आपके साथ साथ,
उन पलों के धागों से सपने बुनते चले गए।
जब बातें कर रहे थे पिछले दिनों की हम ,
उन बातों की खुशबु में मचलते चले गए।
जो खिलखिलाहटें थी झरनों की सी निर्मल,
आँखें बंद कर के उनको हम सुनते चले गए।
कुछ पल मेरे काँधे पे सर रख सोयी रही आप,
कुछ पल आपके साए में हम ढलते चले गए।
आपके बिना जीवन जैसे लड़खड़ा के है चलता,
आप हैं साथ तो हम गिर के संभलते चले गए।
हम आप के दिल में बसे हैं धडकनों की तरह,
आप मेरी आँख में ख्वाब सा पलते चले गए।
हम तो मौज हैं सागर की सर पटकते रहते हैं,
आप चाँद हैं जिसे देख हम मचलते चले गए।
हम न बदले हैं न बदलेंगे औरों की खातिर ,
आपकी खातिर पर हम तो बदलते चले गए।
-नीहार

गुरुवार, 25 मार्च 2010

कुछ उलझी कुछ सुलझी लट

कुछ उलझी कुछ सुलझी लट को आओ मैं सँवार दूँ,
बाहों में भर लूँ तुमको और जी भर तुमको प्यार दूँ।
मुझको नशा तेरी आँखों का है जिनमे डूबा रहता हूँ,
सागर जैसी इन आँखों को आ मैं कजरे की धार दूँ।
पतझड़ के मौसम में जब नग्न हो जाएँ सारे वृक्ष,
तब मैं तुमको अपने हाथों से पलाश सा श्रृंगार दूँ।
लब पर तेरे बिखरा होगा तबस्सुम का जो कतरा,
अपने लब से छू कर उसको मैं एक नया आकार दूँ।
तुम हो मेरे और मैं हूँ तेरा यह बंधन हैं जन्मों का,
फूल फूल पत्ते पत्ते पर मैं बस तेरा नाम उचार दूँ।
जब सूखा सा मौसम तुझको तन्हाई का दे एहसास,
तब तब मैं यादों के सावन की तुमको ठंडी फुहार दूँ।
तुम चन्दन वन की खुशबु से महकाती जीवन मेरा,
मैं पल पल तुमको मोगरे की खुशबु में सनी बयार दूँ।
- नीहार
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बुधवार, 24 मार्च 2010

दिल को दिल की बात सुनाने को दिल करता है

दिल को दिल की बात सुनाने को दिल करता है,
कुछ भूली बिसरी बात सुनाने को दिल करता है।
उनकी जुल्फें बिखरी बिखरी जैसे हों काले बादल,
उनकी चितवन मदहोशी का फैला है जैसे आँचल,
लब उनके ऐसे जैसे पगे हों अमृत रस की धार में,
उन होठों से पीकर खिल जाने को दिल करता है।
उनकी आँखें चंचल चंचल, हों जैसे मृग के दो नैन,
जिन चितवत हो जाए उसे मिले है मन का चैन,
छल छल करती उन आँखों में ठाठें मारे सागर,
सागर के उस गागर में डूब जाने को दिल करता है।
वो चलती हैं तो खिल जाते हैं शत शत नील कमल,
उनके छू लेने से हो जाते हैं कृष्ण भी श्वेत धवल,
पत्थर को छूती हैं तो उनमे जीवन भर जाती हैं,
उनकी राहों में बस बिछ जाने को दिल करता है।
काया उनकी कंचन कंचन बिखराए है स्वर्ण किरण,
रंग दे अपने रंग में सबको ,दे दे मृत को भी जीवन,
चाहूँ उनका साथ मैं हर पल अपने जीवन में हे देव,
हर पल बस उनमे ही अब रम जाने को दिल करता है।
दिल को दिल की बात सुनाने को दिल करता है।
कुछ भूली बिसरी बात सुनाने को दिल करता है।
-नीहार

रविवार, 21 मार्च 2010

है अनूठी साधना यह अनवरत वर्षों चलेगी...

है अनूठी साधना यह अनवरत वर्षों चलेगी,
कर्मजीवी की तपस्या से धरा प्रतिफल पलेगी।
साध्य साधक साधना मिलकर सब लक्ष्य साधें,
मौन के मुखरित स्वरों से वासना का बाँध बांधे।
ये ज़मीं और आसमां जाकर जहाँ पर एक होंगे,
शायद वहीँ पर सभी को जीने के अवसर मिलेंगे।
बढ़ चलो खोजें जरा हम उस जहाँ का कोई दर ,
जो लगे हम सभी को खोया हुआ अपना ही घर।
घर के अन्दर आदमी की कोख में सभ्यता पलेगी,
सभ्यता के अवशेष पर ही सभ्यता उठ कर चलेगी।
-नीहार
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आदमी को आदमी का दर्द पीना चाहिए,
औरों की खातिर उसे कुछ तो जीना चाहिए।
आग 'गर दिल में जले तो बात ही कुछ और है,
आग रखने को मगर फौलाद का दिल चाहिए।
भाई भी भाई का नहीं है आज के इस दौर में,
लड़ने की खातिर उन्हें बस टूटा टीना चाहिए।
कल बहाया होगा खून दूसरों की खातिर भले,
आज हमको अपनी ही खातिर पसीना चाहिए।
बिखरा हुआ है आदमी आज आदमी की भीड़ में,
खोज कर उनको सजाने का तो करीना चाहिए ।
आओ आके सब बांध लो मुट्ठी ऐ अच्छे आदमी,
इस देश को तुम जैसा ही कोई नगीना चाहिए ।
-नीहार
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पहाड़ अब टूट कर गिरने लगे हैं,
आँधियों में आदमी तिरने लगे हैं।
नदियाँ ढ़ोने लगी आदमी का खून,
हम लाश के अम्बार से घिरने लगे हैं।
सत्य और अहिंसा के पुजारी आज,
अंध कूपों में पड़े सब सड़ने लगे हैं।
आदमी सब आदमियत भूल कर के,
पशु वृत्ति की आग में जलने लगे हैं।
मौत की सी ठंडक लिए इस रात में,
जिंदगी के वास्ते हम मरने लगे हैं।
-नीहार
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दर्द - ए - राग एवं अन्य गीत / ग़ज़ल / कवितायेँ

जल रहा है दिल में , वो तो बस आग है,
होठों पर मचल रहा दर्द - ए- राग है ।
आँखों में तो अश्क सी हैं यादें पल रहीं,
बन्धनों में बांधे हुए एक विरही नाग है।
जूड़े में उनके मैं कोई फूल टंक ना सका,
मेरे हिस्से आया हुआ काँटों का बाग़ है।
सारे बदन में कोढ़ सा उग गया है जो,
इश्क में खाए हुए सब चोटों का दाग है।
तुमने जिससे चुरायी है रंगत होठों की ,
मेरे खून से सना हुआ दिल का गुलाब है।
तुमने तो मुझसे पूछ डाले हैं कई सवाल,
उन सबका मेरे पास नहीं कोई जवाब है।
-नीहार
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हम आधुनिक सभ्यता में जीते हैं,
गंदगी भी फ़िल्टर की हुयी पीते हैं।
बुद्धिजीवी कहलाने का शौक हो भले,
दिल औ' दिमाग से हम सब रीते हैं।
खुद की पहचान से घबराये हुए हम ,
रोज़ एक नया नकाब हम सीते हैं।
इंसानियत की हद गुज़र गयी है दोस्त,
फिर भी ये क्या कम है की हम जीते हैं।
-नीहार
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हम खुद की पहचान ही खोते रहे हैं,
अपने को अजनबी पा के रोते रहे हैं।
समय तो चलता रहा है अपनी चाल से,
हम हैं की घोड़े बेचकर बस सोते रहे हैं।
उजाले की तलाश में आज तक हम सब,
घुप्प अंधेरों में ही लगाते बस गोते रहे हैं।
इंसानियत की पाठशाला से निकल कर ,
हैवानियत की लाश हम सब ढ़ोते रहे हैं।
कितना भी पढाओ शांति का पाठ तुम हमें,
अशांति मंत्र रटने वाले हम सब तोते रहे हैं।
प्रेम - अंकुरित अँखुओं को नोंच नोंच कर,
घृणा बीज का वृक्ष यहाँ हमसब बोते रहे हैं।
गांधी और ईसा होते नहीं पैदा हर युग में ,
हम जैसे पैदा होते थे और पैदा होते रहे हैं।
-नीहार
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चलो अच्छा है -
तुमने मुझे संबंधों के घेरे से निकाल,
एक चौराहे पर खड़ा कर दिया।
ढूँढ लूँगा मैं ,
अपन रास्ता कोई -
तुम्हारे जुदा होने के बाद।
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फिर दर्द उठा है, दिल के किसी कोने में -
फिर चाँद बादलों में कहीं छिप गया है,
मौत का मंज़र उससे देखा नहीं जाता।
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इतने दिनों बाद ख़त आया - तो क्या आया।
बहुत मुश्किल से पढ़ पाया,
धुधुआती आँखों से।
काश आँखें गल कर आंसुओं में बह जाती,
और,
मेरे हाथ सिर्फ अनपढ़ी चिट्ठियां ही रह जाती।
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शुरू कर दूँ क्या मैं सिगरेट पीना -
जलने के लिए दिल के साथ,
होंठ भी तो जरुरी है।
और यह एहसास भी की,
मेरे दिल की जलन से ज्यादा तेज़ है,
तम्बाकू की जलन (अगन)।
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गुरुवार, 18 मार्च 2010

तेरी याद बहुत तड़पाती है ....

तेरी याद बहुत तड़पाती है,सीने में आग लगाती है।
जब कोहरे छत पे टंगने लगे,तब धूप कहाँ रह जाती है,
वह घूंघट में छिप जाती है, सजनी की याद दिलाती है।
तेरी याद बहुत तड़पाती है।
वर्षा जब बरसे वर्षों तक, तब ये तन्हाई क्या गाती है,
गा - गा के मुझे सताती है, सपनो से फिर दुलराती है।
तेरी याद बहुत तड़पाती है।
झूला जब झूले सावन में, तो वह सबके मन हर्षाती है,
पर वह मुझको बहुत रुलाती है,जब याद तुमहरी लाती है।
तेरी याद बहुत तड़पाती है।
कोयल की मीठी तान सखी, मेरे सीने में आग लगाती है,
पर वह आग कहाँ बुझ पाती है,मन को तो राख बनती है।
तेरी याद बहुत तड़पाती है।
क्यूँ याद तुम्हारी आती है?
क्यूँ आके मुझे सताती है?
कभी मुझको यह तड़पाती है,
कभी बारिश बन नहलाती है ,
कभी आँखों में चुभ जाती है ,
कभी साँसों को महकाती है,
कभी आँखों की नींद चुराती है,
कभी सपनो से फिर बहलाती है।
तेरी याद बहुत तड़पाती है...।
-नीहार
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मंगलवार, 16 मार्च 2010

कोई गीत प्यार के गाओ तुम

कोई गीत प्यार के गाओ तुम,
मेरे थके हुए मन को,हौले से आ दुलरा जाओ तुम।
कोई गीत प्यार के गाओ तुम।
मैं पंछी बन नभ में घूमूं,और मस्ती में हरदम झूमूँ,
दूँ प्यार लुटा अपना सारा और अश्क भरी आँखें चूमूं,
अपनी आँखों में मेरे सपनों के रूप अनेक सजाओ तुम।
कोई गीत प्यार के गाओ तुम।
मैं ख्वाब सुनहरे बेच रहा, मैं प्यार का अमृत बाँट रहा,
दूजे के सुख की खातिर मैं,अपना सुख सब में बाँट रहा,
अपने सुख के इक कतरे से ,मुझको तो नहला जाओ तुम।
कोई गीत प्यार के गाओ तुम।
सन सन करती पुरवाई भी,अब प्यार के गीत सुनाती है,
एक विरही दर्द भरी बोली,मेरे तन मन में आग लगाती है,
इस जले हुए तन मन को,आकर अब शीतल कर जाओ तुम।
कोई गीत प्यार के गाओ तुम।
खुद से लड़ने की कोशिश ने,है कर दिया बहुत अशांत मुझे,
अपनी पीड़ा पीने की आदत ने, किया है हरदम क्लांत मुझे,
अब और नहीं पी पाता मैं, दुःख मेरे आ कर पी जाओ तुम।
कोई गीत प्यार के गाओ तुम।
अब तो बस इक्षा है शेष यही, गोदी में ही तेरे हम सो जाएँ,
जिन सपनों को बेचा करते थे, उनमे ही हम अब खो जाएँ,
बस एक बार अपने होठों के, अमृत मुझे आ पिलाओ तुम,
कोई गीत प्यार के गाओ तुम।
मेरे थके हुए मन को , हौले से आ दुलरा जाओ तुम।
कोई गीत प्यार के गाओ तुम।
-नीहार

सोमवार, 15 मार्च 2010

कैसे गाऊं प्रेम के गीत

कैसे गाऊं मैं प्रेम के गीत,
बिछुड़ गया मेरा मन मीत ।
अवरुद्ध हो वाणी मेरी सीने के भीतर घुट रही है,
दुनिया मेरी मेरे ही हाथों देखो कैसे लुट रही है,
हार में तब्दील हो गयी जीत,
बिछुड़ गया मेरा मन मीत।
कल तलक जो संग रहने की कसम थे खा रहे,
आज मुझसे रूठ कर वो तो अकेले हैं जा रहे,
प्रेम की ज्वाला हो गयी शीत,
बिछुड़ गया मेरा मन मीत।
उनसे बिछुड़ के हम तो अपने आप को हैं खो रहे,
जिंदगी के बदले हम तो अब मृत्युबीज़ हैं बो रहे,
चहुँ और गूंजे है शोक संगीत ,
बिछुड़ गया मेरा मन मीत।
- नीहार
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चले जाना जरा सा वक़्त को रुक जाने दो,

आसमां को इस ज़मीन पे झुक जाने दो।
दौलत-ए-हुस्न को तो उम्र भर बेचते रहे,
दौलत -ए-दिल को ज़रा सा लुट जाने दो।
भ्रम के बिस्तर पर तो सोते रहे रात भर,
अब तो इस नींद से खुद को जग जाने दो।
सांस लो 'गर तो आग लग जाए दुनिया में,
फिर भला क्यूँ इस सांस को घुट जाने दो।
चलो हम बसायें चाँद तारों की नयी दुनिया,
यहाँ लोगों को शर्म-ओ-हया में छुप जाने दो।
वो सूरज जो कल तलक रौशनी था बांटता,
उसे आज अँधेरे की खोज में जुट जाने दो।
-नीहार
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मैं जानता हूँ - की मेरे शब्द कर देंगे बहरे तुम्हें -
क्यूंकि , मेरी आवाज़ की गूंज, जो प्रतिध्वनित हो रही है -
वह प्रतिध्वनित होती रहेगी।
और, चूंकि प्रतिध्वनियाँ कुछ सुनने नहीं देती -
इसलिए, हर दूसरी आवाज़ के लिए -
तुम्हारे कान बहरे हैं - आवाजों पर शब्दों के पहरे हैं।
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तेरे बगैर अब तो हमें जिया नहीं जाता,
जिंदगी का ज़हर हमसे पिया नहीं जाता।
दिन बेचैन और रात करवटों में है कटती,
तेरे बिन जिंदगी को अर्थ दिया नहीं जाता।
दिन रात बस यूँ ही तेरा ख्याल ही है मुझे,
और कोई काम अब मुझसे नहीं किया जाता।
मेरे होठों पे तो सिर्फ अब तेरा ही नाम रहता है,
दूजा कोई नाम अब मुझसे लिया नहीं जाता।
विरह व्यथा ने मेरे दिल को तार तार कर दिया,
इस चाक जिगर को मुझसे सिया नहीं जाता।
ये आँखें हैं की तेरी याद में रोती ही जा रही,
होंठ हैं की उनसे अश्क अब पिया नहीं जाता।
आओ की आ जाओ की अब आ जाओ तुम भी,
जिंदगी के गीत को अकेले सुर दिया नहीं जाता।
-नीहार
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रविवार, 14 मार्च 2010

मेरे महबूब तुम मेरे बिन नहीं रह पाओगे

(एक इरादा किया अपने पुराने दिनों को पुनर्भ्रमण करने का.बहुत सारी कवितायेँ हैं जो उन् दिनों की हैं जहाँ व्यक्तित्व में ठहराव नहीं था। अपनी संवेदनशीलता को लिख कर मैं खुद को उबारता था अपने एकाकीपन से। ये कविता १९८५ से १९९० के बीच लिखी गयी हैं। डायरी के पन्नो की कैद से इन्हें मुक्त कर आपकी सेवा में पेश कर रहा हूँ।)
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तुम ना आओ तो ना आने का बहाना ना करो ,
चाँद आंसू भी मुझ पर क्यूँ तुम बर्बाद करो।
मैं तो एक बाशिंदा हूँ मुर्दों की उस बस्ती का,
प्यार जिसके लिए नाम नहीं है मस्ती का।
प्यार हमने जो किया है तो निभाएंगे सनम,
चाहे लेने पड़े हमें और अभी कितने ही जनम।
हमने अपने कलेजे में एक घाव छुपा रक्खा है,
उसने भी प्यार का वह मीठा ज़हर चक्खा है।
तुम तो पैसों से अपना प्यार खरीद लोगे,
पर मेरे जैसा शख्स फिर तुम कहाँ पाओगे।
मैं तो यूँ ही बेमोल सा झोली में आ गिरता हूँ,
जिसने भी प्यार से छुआ उन्ही पे मैं मिटता हूँ।
मैं तो धड़कन सा हूँ, जो दिल में गुंथा होता है,
मैं तो सरगम सा हूँ जो संगीत में छुपा होता है।
मैं वो रौशनी हूँ जो आँखों को सूरज कर देता हूँ,
मैं वो हवा हूँ जो हर सांस में गति भर देता हूँ।
मुझसे जो रूठोगे तो बताओ तुम कहाँ जाओगे,
मेरे महबूब तुम मुझ बिन कभी नहीं रह पाओगे।
-नीहार
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घुटनों का पानी गर्दन के ऊपर तक चढ़ गया,
वह दर्द जो घटने को था,फिर से है बढ़ गया।
मैंने समय से जूझने की कितनी की कोशिश,
तकदीर मेरे ही सर हार का सेहरा ही मढ़ गया।
पढने को पढ़ रहा था मैं मोहब्बत की पढ़ाई,
गढ़ने को मैं नफरतों की कहानी ही गढ़ गया।
कुछ देर को जो धूप में मेरी आँखें खुली रही,
मेरे चारों तरफ का अँधेरा कुछ और बढ़ गया।
-नीहार
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मेरी तमन्ना है की तुम बस खुश रहो,
खुशियों की आँधियों में उम्र भर बहो।
सुनने की तो आदत नहीं रह गयी तुम्हे,
कहने की ही आदत है, जो चाहो वो कहो।
मेरे जिगर का खून बहुत ही सुर्ख है अभी,
दामन में अपने इससे तुम कोई फूल तो गहो,
जो जिंदगी मेरी मन्हुसिअत की है एक छाँव,
दूर हो कर मुझसे ख़ुशी की धूप में तुम रहो।
-नीहार
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एक दिन,
जब सब ख़त्म हो जायेंगे -
उस दिन,
कहीं ना कहीं - कोई ना कोई -
अहसास होगा जिंदा -
की आदमी जो था,
वह प्रकृति का अद्भित करोश्मा था -
जो करिश्मों में जिया - और,
करिश्मों में ही मरा -
जैसा किया - वैसा ही भरा।
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शोर - धुआं - और चीख

ये पंक्तियाँ वर्ष 1९८४-८५ के चंद महीनो की तकलीफ से निकली थी , जिन्हें मैंने कलमबद्ध किया था...अब इससे अपलोड कर दुनिया के सामने ला रहा हूँ....
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शोर - धुआं - और चीख ,
मन मांगे शांति की भीख।
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बातों का तीर दिल के आर पार हो गया,
चोट इतनी लगी की दिल बीमार हो गया।
वो खाब कल तलक जो मेरी आँखों में जला,
नफरत की गर्मियों में तप के खार हो गया।
कलेजे पे मेरे ये जो चोट लगाया है आपने,
दर्द समंदर में उठा हुआ एक ज्वार हो गया।
था भरोसा हमें अपने दिल औ' दिमाग पे ,
पर न जाने आज क्यूँ वो सब गद्दार हो गया।
मेरे लिए तो दूरियां ज़हर बन कर रह गयीं,
उनके लिए तो वही सब कुछ बहार हो गया।
रोता रहा हूँ रात को तकिये में सर दिए मैं,
खा खा के गम अब तो मैं गमख्वार हो गया।
जो आग का गोला जला करता था हर समय,
फूलों की पंखुरियों पे बिखरा हुआ नीहार हो गया।
-नीहार
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सिगरेट -
जलाकर होठों में दबा लो -
और -
पूरी शक्ति से धुआं -
अपने -
नथुनों में भर लो -
यानी -
क्षण भर को ही -
मृत्यु -
को वर लो।
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उनकी नज़रों में हमारी कोई कीमत भी है नहीं,
मानो हम हों एक पत्थर,कोई जीवित शय नहीं।
अपने मुकद्दर पे मुझे रोना है अब तो हर घडी,
पी रहा जो रात दिन,वो अश्क है कोई मय नहीं।
कल तलक सुर ताल पर जो चल रही थी जिंदगी,
आज उसकी ही चाल में है कोई सुन्दर लय नहीं।
कल तलक जो संग रहने की कसम थे खा रहे,
उनकी नज़रों में आज कसमों की कीमत है नहीं।
कब कहाँ और किधर से मार डालेगी हमें ये जिंदगी,
मौत का क्या है भरोसा और जिंदगी भी तय नहीं।
- नीहार
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जब से फेरी है उसने अपनी निगाहें,
दिल से नकली हैं सिर्फ दर्द की आहें।
वो छिटक कर हमसे दूर हो गए जबसे,
तड़प कर रह गयी ये मेरी बेजुबाँ बाहें।
उसने न आने की खा रक्खी है कसमें,
फिर भी तक रहा हूँ मैं उनकी ही राहें।
घाव अब हर तरह से ला-इलाज है मेरा,
उसे चाहिए सिर्फ और सिर्फ प्यार की फाहें।
मोहब्बत करते हैं सिर्फ उन्ही से हम,
वो किसी और को भले कितना ही चाहें।
-नीहार
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शनिवार, 13 मार्च 2010

जब दर्द पल रहा सीने में

जब दर्द पल रहा सीने में,
तब मज़ा आ रहा जीने में ।
खून पानी में तब्दील हुआ ,
बदन गला और बहा पसीने में।
दिल टुकड़े हो कर बिखर गया,
हम जुट गए उसको सीने में।
जब दर्द का दरिया उफन गया ,
तब छेद हो गया है सफीने में।
आंसू को जब से मय है समझा,
मज़ा आ रहा है उसे पीने में।
धडकनों की गर जुबान होती तो,
कहाँ दफन होता दर्द सीने में।
-नीहार
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चोट दिल पे लगी कुछ तो ऐसी,
की जान मेरी निकल सी गयी है।
आईना देख कर यूँ लगा मुझको,
मेरी खुद की सूरत बदल सी गयी।
एक तूफ़ान सा गुज़रा है मुझ पर,
जिसके सदमे से घबडा गया हूँ,
डूबती हुयी सांझ सी सांस मेरी ,
पलकों पे आ के ठहर सी गयी है।
मैं वो सागर हूँ जिसकी सीमा,
बन्धनों में बंधी हुयी सी नहीं है,
सिर्फ लहरें ही लहरें हैं उसमे,
जिनका कोई भी किनारा नहीं है।
वक़्त ने इतना सिखला दिया है,
की छाछ भी फूंक कर पी रहा हूँ,
प्यार की जो एक ईमारत थी मेरी,
भरभरा कर ज़मीन पे जा गिरी है।
मैं तो शायर हूँ बदनाम जिससे,
लोग मिलने से घबराये हुए हैं,
सच कहूँ अब तो लगता है जैसे,
इंसानियत ख़त्म सी हो गयी है।
- नीहार

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

यह जीवन है एक भार प्रिये एवं अन्य कवितायेँ


यह जीवन है एक भार प्रिये।
थी तृषा जगी मन में मेरे,औ' प्यास कहाँ बुझ पाती है,
जल की चाहत में भटक रहा,मन पाता है अंगार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
जो दूर कहकशां सा दिखा, तो मन मयूर सा नाच उठा,
पर पास जो जाकर देखा तो,पाया मरू का सा सार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
सोचा था एक दिन आएगा, मेरे जीवन में भी बसंत,
समय बीतता ही जाता है, पर आया नहीं बहार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
मेरे मन के अंधे कोने में,जो ज्योति सदा से जलती थी,
एक तनिक हवा के झोंके ने, मन किया मेरा अंधार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
मैं स्वाति बूँद की आशा में, चातक बन बैठा हूँ अब तक,
टपका कर अपना स्नेह बूँद,कर लो मुझको स्वीकार प्रिये।
यह जीवन है एक भार प्रिये।
- नीहार
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मन व्यथित बहुत अब होता है।
जब सन्नाटों की सीटी गूंजे,तब मन ही मन आँखें मूंदे,
यह दिल बेचारा जी भर रोता है।
मन व्यथित बहुत अब होता है।
जब कोयल ताने तान सखी,तब झूम झूम मन प्राण सखी,
अपना सुध बुध सब खोता है।
मन व्यथित बहुत अब होता है।
मेरी आँखों के बंद कटोरों में,मेरे तन मन के पोरों पोरों में,
एक दर्द का सागर अब सोता है।
मन व्यथित बहुत अब होता है।
तुम बिन सब कुछ है उदास, बुझ नहीं रही अनबुझी प्यास,
प्यासा मन हरदम अब रोता है।
मन व्यथित बहुत अब होता है।
- नीहार
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मैं दर्द के सागर में जीता।
मेरी वाणी जो मुखर कभी थी,गूंगी हो दम तोड़ रही है,
मेरे दिल की जीवित धड़कन,मेरा ही संग छोड़ रही है,
बाहर भीतर हर तरह से मैं हो चुका हूँ रीता ।
मैं दर्द के सागर में जीता।
मैंने जितने भी सपने देखे, सब चूर चूर हो बिखर गए,
तेज़ हवा के झोंको में, कुछ इधर गए कुछ उधर गए,
उन सपनो को खोकर मैं तो हो गया हूँ रीता।
मैं दर्द के सागर में जीता।
वाणी से मूक,आँख से अंधा और हाथ पाँव से लूला हूँ,
अल्लसुबह जो भटक गया तो, देर शाम तक भूला हूँ,
दर्द ही भोजन है मेरा, और दर्द ही मैं हूँ पीता।
मैं दर्द के सागर में जीता।
-नीहार
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रविवार, 7 मार्च 2010

चुप चुप से हो गुमसुम से हो

चुप चुप से हो गुमसुम से हो,मुझसे बातें क्यूँ नहीं करते हो,
इतना दो बता दो मुझको क्या तुम आज भी मुझपर मरते हो।
गर्म हवा सी चलती है और मौसम पतझड़पतझड़ सा होता है,
गुस्से में जब तुम होते हो और फिर लम्बी लम्बी साँसे भरते हो।
प्यार से जब बातें करते हो तो मन में जलतरंग सा बजता है,
और तुम हिम की शिला से निकली गंगा के जल सा झरते हो।
थक सा जाता हूँ भटक भटक कर तेरी खोज में जब भी मैं,
तुम चुप कर आते हो कहीं से और फिर मेरे क्लेश को हरते हो।
मैं नहीं डरता यह कहने से की तुम मेरी हो हर जनम जनम ,
तुम क्यूँ दुनिया को यह बात कहने से फिर हरदम डरते हो।
-नीहार

आँखों में काजल न यूँ आप लगाया कीजिये

आँखों में काजल न यूँ आप लगाया कीजिये,
यूँ रात की तीरगी ऐसे न बढ़ाया कीजिये।
आपके छूते ही पत्थर भी हो जाता है आदमी ,
मेरे दुश्मनों की फौज यूँ न बढाया कीजिये।
जिंदगी की राह में सिर्फ कांटे ही कांटे हैं बिछे,
पांव नाज़ुक हैं आपके, उन्हें न उतारा कीजिये।
मैं नहीं पीता हूँ वो सब, जो यहाँ पीते हैं सभी ,
अपनी नज़रों से मुझे रोज़ पिलाया कीजिये।
मैं हूँ बस ठहरा हुआ तालाब के पानी की तरह,
एक कंकड़ फेंक कर मुझको हिलाया कीजिये।
नींद भी आती नहीं कमबख्त मुझको आज कल,
अपनी जुल्फों के तले मुझको सुलाया कीजिये।
मुझको नहीं भाता है कुछ इस संसार में आप बिन,
आप ही आप मुझको हर सू नज़र आया कीजिये।
आकाश है सूना हुआ और तारे गन सब हैं छुप गए ,
अपने रुखसार से जुल्फें हटा चाँद दिखलाया कीजिये।
गीत मैं लिखता रहूँ जीवन भर सिर्फ आपकी ही खातिर ,
आप उनको गा के जीवन में मधुमास लाया कीजिये।
-नीहार

शनिवार, 6 मार्च 2010

मुबारक हो तुमको शादी की २२वीं सालगिरह

आज विवाह की २२वीं सालगिरह पर यह कविता है तुम्हें समर्पित,
जिसने अपना यह जीवन मुझको कर दिया है पूर्ण रूप से अर्पित,
मेरी हर सुख सुविधा का ख्याल रक्खा,कष्ट हरा सब मेरा जिसने,
जिसके बिन मेरे जीवन का हर पल लगता ऐसे बीते जैसे हो शापित।
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बाईस वर्ष हुए शादी को, लगता है जैसे कल की बात ,
पत्नी जीवन में लेकर आयी, नए सूरज का सुप्रभात।
सुख दुःख की साथी है मेरी, मुझको आईना दिखलाती है,
गिरता हूँ जब ठोकर खाके , दौड़ के थामती वो मेरा हाथ।
मेरी राह का हर काँटा चुनकर, करती आसान मेरा जीवन,
अपना निज सुख त्याग के,वो हरती मेरे जीवन का संताप।
वो मेरी अर्धांगिनी है और मेरे जीवन को करती पूर्णता प्रदान,
उसके रूप में ईश्वर ने दिया मुझको एक अप्रतिम सा सौगात।
उसको माँगू मैं अपनी दुआ में ईश्वर से नित दिन जोड़े हाथ,
जब तक सांस रहे जीवन में, रहे यूँ ही उसका और मेरा साथ।
-नीहार

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

मुझको मेरी तन्हाईयाँ अक्सर बुलाती हैं

मुझको मेरी तन्हाईयाँ अक्सर बुलाती हैं,

और फिर मुझे तेरी यादों से नहलाती हैं।

वो जो खुशबु का झोंका गुज़रा मेरे पास से ,

तेरी जुल्फों की कैद से छूटी हवा कहलाती हैं।

आँखें खुली रहती हैं तो दिखता नहीं कुछ भी ,

बंद आँखें ही तो मुझे सबकुछ अब दिखलाती हैं।

चीड़ों की चोटी पर बरसे चन्दन जैसी जो चांदनी,

एक आशिक के चेहरे पर माशूक का नूर कहलाती हैं।

जो भी जख्म मिले हैं मुझको तेरे सजदे में जानम,

तुझको छूकर आती हवा उन जख्मों को सहलाती हैं।

भटक रहा हूँ नील गगन में आवारा बादल सा मैं,

तेरी यादें टकरा कर उनको सावन सा बरसाती हैं।

-नीहार

गुरुवार, 4 मार्च 2010

है रौशनी का कतरा मेरी मुट्ठी में बंद

है रौशनी का कतरा मेरी मुट्ठी में बंद,मन के भीतर मच गया है एक द्वन्द ।

वो मेरा जो कुछ भी नहीं तो ऐ दोस्त, याद उसकी आ आ के क्यूँ करती है तंग।

जब भी मैं खींचता हूँ लकीर कागज़ पे,वो हो जाती है पूर्णतया उसमें जीवंत।

लिखता हूँ उसको ख़त जब अपने हाल का,पढ़ के वो कहता है ये सब है मनगढ़ंत।

मेरे लिए तो वो है एक मंदिर प्रेम का,उसके लिए बन बैठा हूँ मैं एक महंत।

पलकें उठायीं तो सुबह ले आती है वो,पलकें झुका ली तो रात उतर आती तुरंत।

उनका चेहरा खिलता हुआ माहताब है,उनकी खुशबु में तर बतर है दिग-दिगंत।

उनसे ही जीवन बना है मधुमास मेरा , उनसे ही पतझड़ में भी छाया है बसंत।

- नीहार

बुधवार, 3 मार्च 2010

मुमकिन हो तो मेरी खातिर एक बार मुस्कुराइए

मुमकिन हो तो सिर्फ मेरी खातिर एक बार मुस्कुराइये,

अपनी पलकों का वरक उठाइये और मेरी सुबह लाइये।

मैं समंदर में भटक रहा हूँ एक किश्ती की तरह ऐ दोस्त,

मुझको मौजों से बचा कर आप किनारे तक तो ले आइये।

तरस गया है ज़माना देखने को एक चौदहवीं का चाँद,

उनकी खातिर ही सही आप अपने रुख से पर्दा हटाइये।

हर तरफ ख़ामोशी है चुप सी और निःशब्द सन्नाटा है,

आप बेतकल्लुफ होइए और खुल के कुछ गुनगुनाइए।

चारों तरफ पसरा हुआ है मरुभूमि का विस्तार सा ,

आप कदम रखिये यहाँ और फूल ही फूल खिलाइए।

मैं भटकता ही रहा हूँ तलाश में खुद की अब तलक,

आईना हैं आप मेरे तो मुझको मेरा अक्स दिखलाइये।

एक अदद चाँद की आशा में चकोर बन कर भटक रहा ,

आप चाँद हैं तो आइये और अपनी चांदनी से नहलाइये।

मैं हिमालय की तरह खड़ा हूँ बिलकुल भाव विहीन सा ,

अपने प्यार की उष्मिता से आप मुझको पिघलाइये।

तेरे इंतज़ार में आँखें दरवाज़े से हैं लगी हुयी अब तक,

आप एक बार तो ऐसे आइये की आके फिर ना जाइए।

-नीहार

कुछ अपनी बात कहूँ मैं तुमसे ......

कुछ अपनी बात कहूँ मैं तुमसे, कुछ तेरी बात सुनु,
तेरे होठों पे खिलते गुलाब की कलियों को मैं चुनु।
रात सोता सोच के तुमको सुबह उठूँ तेरा नाम लिए,
फिर दिन भर तेरी तस्वीरों से मैं बातें ढेर करूँ।
तेरी ही यादें दे जाती हैं मेरी सूनी आँखों में आंसू ,
अपनी पलकों पे उनको मैं सजा के यूँ ही रक्खूं।
मैं आवारा बादल हूँ जो बरसा नहीं कहीं भी अब तक,
तुम लहरा दो जुल्फें अपनी ,जिनकी कैद में मैं बरसूँ।
बस मुझको तो तेरी ही धुन रहती है हरदम जानम,
तुम बाग़ का पुष्प अनोखा ,मैं भंवरा बन तुझमे सिमटुं।
मैं चन्दन का पेड़ हूँ सजनी, तुम उसपे हो सर्प सी लिपटी,
तुम महको बस चन्दन बन कर और मैं तेरी गंध लिए महकूँ।
-नीहार

मंगलवार, 2 मार्च 2010

कुछ पल तुम बैठो पास मेरे......

कुछ पल तुम बैठो पास मेरे, और कुछ बातें मुझसे ख़ास करो,
मुझको छूकर मुझको पाकर, तुम मुझको फिर से सुवास करो।
मैं चातक बन कर वर्षों से बैठा, तक रहा तुम्हारी ओर प्रिये,
तुम स्वाति बूँद बन कर बरसो और मेरे दुःख का नाश करो।
मेरा जीवन तो है सूना सूना पतझर पतझर और बियाबान सा ,
तुम आकर मेरे इस सूने जंगल को खिलता हुआ पलाश करो।
मैं दोपहरी सूरज की गर्मी पीकर तपती धरती बन बैठा हूँ अब,
तुम चांदनी बन पारे सी ढलको और मुझको फिर आकाश करो।
मैं कौन हूँ , क्या हूँ,किसका हूँ यह सब भूल गया इस दुनिया में,
बस तेरा हूँ यह जानता हूँ इसलिए तुम खुद में मुझको तलाश करो।
मैंने तुम में है खुद को देखा, और खुद को तुम में ही पाया है जानम,
तुम को समर्पित मन प्राण है मेरा , तुम मुझ पर यह विश्वास करो।
-नीहार

जब याद तुम्हारी आती है

जब याद तुम्हारी आती है,तब हम माजी में खो जाते हैं ,

आँखें बंद करके हम फिर , तेरे तसव्वुर से लग सो जाते हैं।

जग जाते हैं तेरी आहट से, तेरी खुशबु से तर हो जाते हैं,

तुम सांस जो लेते हो पास मेरे, हम उस पल को जी जाते हैं।

तुम चलते हो तो चलती रहती है धड़कन मेरे दिल की जानम,

तुम रुक जाते हो तो फिर हम चाह कर भी सांस नहीं ले पाते हैं।

जब मौसम रूठ के गर्म हुआ और पतझर की रुत आ सी गयी,

तेरे आने से ऐसे बेरुखे मौसम में भी फूल ही फूल खिल जाते हैं।

जब जब सर्द हवा का झोंका आ कर हमको तेरी याद दिलाता है ,

हम चिरियों के संग मिल बैठे , फिर तेरे ही गीत गुनगुनाते हैं।

बस धुन रहती है मुझको तेरी, बस तेरी याद में खोये रहते हैं,

बस तेरे नाम की माला जपते और इश्वर को तेरा नाम सुनते हैं।

- नीहार

सोमवार, 1 मार्च 2010

खुलता हूँ तो किताब हो जाता हूँ,पन्नो पे बिखरा गुलाब हो जाता हूँ.

देखो सुरमई सांझ उतर आयी है,लगता है आपने अपनी जुल्फें लहराई है।
मंदिर में बजी जो घंटियों की तरह,सुना है बस आपने पाजेब छनकाई है।
सात सुरों की महफ़िल सजा के बैठे हैं,लोग कहते हैं की वो खिलखिलाई है।
चेहरे से उसने अपनी जुल्फों को हटाया,चांदनी धीरे से धरती पे उतर आयी है।
महक उठा है मेरा वजूद उसकी खुशबु से,हवा में घुली उसकी याद चली आयी है।
वो दबे पांव आ जाता है ख्याल बन कर,उसे याद कर मेरी आँख फिर भर आयी है।
वो इश्क है मेरा वो मेरी मोहब्बत है,वो जान है मेरी जिस पे मैंने जिंदगी लुटाई है।
- नीहार
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खुलता हूँ तो एक किताब हो जाता हूँ,पन्नो पर बिखरा गुलाब हो जाता हूँ।
हरी दूबों पे बिखरे ओस की बूंदों में छुपा, मैं सुबह का आफताब हो जाता हूँ।
सदियों की प्यासी जिंदगी की खातिर, मैं फिर पवित्र गंगा का आब हो जाता हूँ।
मैं आँख की राहत दिलों की चाहत हूँ, मैं तुम्हारे लिए सुनहरा खाब हो जाता हूँ।
तुम्हारे जुल्फों में कैद होकर मैं तो ,पारे से ढलकता हूँ , माहताब हो जाता हूँ।
तुम जो नहीं आती हो कभी ख्याल बन कर,मैं टूटा हुआ एक साज हो जाता हूँ।
जो तुम तो रंग और रूप है जीवन में,तुम नहीं तो हर वक़्त मैं बेताब हो जाता हूँ।
मैं तुम्हारी अंखियों के कटोरों में , छलकता महकता बहेकता शराब हो जाता हूँ।
तुम्हारे लिए सिर्फ तुम्हारे लिए अच्छा हूँ , बाकियों के लिए मैं बस ख़राब हो जाता हूँ।
- नीहार

सूरज को माथे पर बिंदी सा सजाया कीजिये


ख्वाब में मुझको रोज़ बुलाया कीजिये , चैन से रोज़ खुद को सुलाया कीजिये।
एक दफा खुदा से मांग लो मुझको,फिर हर दफा मुझको यूँ ही पाया कीजिये।
आपकी जुल्फें घटायें हैं सावन की, अपने चाँद से मुखरे से घटा हटाया कीजिए।

सूरज आपकी खतिर उगा है लाल, अपने माथे उसको बिंदी सा सजाया कीजिये।
मेरी प्यास बुझती नहीं है पानी से, अपने होठों की नमी उसको पिलाया कीजिये।
मैं डूबना चाहता हूँ गहरे समंदर में, अपनी आँख के सागर में हमें डुबाया कीजिये।
मुझको नज़र आता नहीं कोई तेरे सिवा, हर जगह बस आप नज़र आया कीजिये।
मेरी धड़कने गाती हैं तेरे तराने रात दिन,अपनी धडकनों में मेरे सुर सजाया कीजिये।
मैंने माँगा है खुदा से नेमत में आपको ,आप मुझको भी ईश्वर से मांग लाया कीजिये।
-नीहार

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मुझे कुछ पल तो तुम अपने उधार दे दो,मेरी जिंदगी को एक खूबसूरत उपहार दे दो।
हर तरफ है अँधेरा रौशनी नहीं कहीं , चाँद बन कर तुम मेरे घर रौशनी का विस्तार दे दो।
हर तरफ बियाबान सा मरुभूमि का विस्तार है, तुम उस मरुभूमि को पानी का मीठा फुहार दे दो।
मैं बना चातक यहाँ प्यास जन्मो की लिए हूँ, तुम मुझे सुबह की कलियों पे बिखरी नीहार दे दो।
मैं बिखरा संगीत हूँ एक टूटे हुए इसराज का,तुम संगीत की देवी मुझे एक अटूट सितार दे दो।
जिंदगी में रंग नहीं, गंध नहीं , मकरंद नहीं,तुम आ के मेरी जिंदगी को एक अनूठा श्रृंगार दे दो।
- नीहार