मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

मुम्बई की एक शाम खुद के नाम.......

समुद्र बहुत शांत है-
मेरे भीतर का शोर भी,
बिल्कुल थम सा गया है ....
यानि ,
मैं पूर्णरूपेण समुद्र हो गया हूँ अभी - इस वक्त ।
--------------------------
मैं उन पत्थरों पे,
बैठ तो गया हूँ -
जिन पे बैठ कर मैं,
सपने तराशा करता था .....
पर ,
मुझे उन सपनों के -
तराशे हुये कतरे,
कहीं नहीं दिख रहे....
शायद ,
सपनों की भी उम्र होती है ।
-----------------------------
धूप साँझ हो कर ,
पिघल समुद्र में -
घुलती जा रही है ....
कुछ देर तक मैं -
उसे तकता रहूँगा,
और-
फिर दूर उफ़क पे,
एक पीला सा चाँद -
आकाश के माथे की ,
सियाही पोंछ देगा ।
----------------------------
बस -
यूँ ही मैं गुनगुना रहा था,
और....
कविता बुनती जा रही थी -
 - नीहार (मुम्बई की एक शाम खुद के नाम )

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

है फिर मौसम बौराया सा ........

फिर है मौसम बौराया सा,
वो मुझको याद आया सा ।
कतरा कतरा पानी टपका,
है आँखें खून रुलाया सा ।
उसकी खुशबू बदन लपेटे,
है सुबह शाम मदमाया सा ।
धूप सरीखा बिखर रहा वो,
मैं ढ़ूँढ़ूँ उसमें फिर छाया सा।
चंचल चितवन वाली उसका,
है कंचन कंचन काया सा ।
दुनिया की नजरों से बचा उसे,
है दिल में रक्खा छुपाया सा ।
ख्वाब ख्वाब सा रहता है वो,
पलकों पे हरदम छाया सा ।
उसने मुझको पाया खुद में,
मैंने खुद में है उसे पाया सा ।

- नीहार ( चंडीगढ़, नवंबर २१,२०१३)

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

घोरि घोरि मिश्री पिबैत रहू ........

चूल्हा चौकी करैत रहू,
भरि दिन अहिना मरैत रहू ।
चेहरा चाँद सनक तँ की,
घोघ तानि कय घुटैत रहू ।
वर अहाँक राक्षस तँ कि,
देवता बूझि हुनक पूजैत रहू ।
बेटा जावत नहीं पैदा भेल,
प्रतिवर्ष बच्चा जनैत रहू ।
दोसर के सुख कय खातिर,
अपन सुख अहाँ त्यजैत रहू ।
लक्ष्मी सरस्वती दुर्गा अहीं छी,
तैयो रावण सँ अहाँ डरैत रहू ।
पढ़लहँु लिखलहुँ तैयो सुनु यै,
दहेजक बलि पर रोज चढ़ैत रहु।
मैथिल वयना अछि सबसँ मीठ,
घोरि घोरि मिश्री अहाँ पिबैत रहू ।

- नीहार

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

कवि झूठे होते हैं.......

कवि झूठे होते हैं -
लिखते कुछ पढ़ते कुछ,
मिट्टी कुछ गढ़ते कुछ ।
सोचते कुछ बोलते कुछ,
ढ़ँकते कुछ खोलते कुछ ।
कवि झूठे होते हैं -
कहते कुछ करते कुछ,
छोड़ते कुछ पकड़ते कुछ ।
जीतते कुछ हारते कुछ
मिमियाते कुछ दहाड़ते कुछ ।
कवि झूठे होते हैं -
हँसते कुछ रोते कुछ,
काटते कुछ बोते कुछ ।
जागते कुछ सोते कुछ,
दिखते कुछ होते कुछ ।
कवि झूठेे होते हैं -
रोकते कुछ भगाते कुछ,
छुपाते कुछ जताते कुछ ।
तोड़ते कुछ जोड़ते कुछ,
भरते कुछ कोरते कुछ ।
कवि झूठे होते हैं -
रूठते कुछ मनाते कुछ,
सताते कुछ गुदगुदाते कुछ।
आते कुछ जाते कुछ,
हँसाते कुछ रुलाते कुछ ।
कवि झूठे होते हैं -
इनका ऐतबार मत करना.....
कवि झूठे होते हैं -
उनसे आँखें चार मत करना ......
कवि झूठे होते हैं -
उनसे अपने जीवन का श्रृंगार मत करना .....
कवि झूठे होते हैं....
शत प्रतिशत झूठे होते हैं ।
 - नीहार ( कभी कभी मेरे दिल में ये बकवास सा खयाल आता है - बंगलुरू एयरपोर्ट पे इंतजार के क्षण ,दिनांक १० अक्टूबर , २०१३ )

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

गांधी मरा नहीं करते.....


मैं सिर्फ और सिर्फ एक ही गाँधी को जानता हूँ......
मैं सिर्फ और सिर्फ एक ही गाँधी को मानता हूँ......
बाकी जो भी है -
सब बकवास है .......
बालुका के ढ़ेर पे,
उगी कँटीली घास है -...
झूठ और हिंसा का,
किये वस्त्र विन्यास है.....
बेईमानी और अनाचार का,
फलता फूलता न्यास है ।
गाँधी -
कोई नाम या पदवी नहीं....
गाँधी -
कोई खादी या टोपी नहीं......
गाँधी -
कोई लाठी नहीं चरखा नहीं.....
गाँधी -
जंतर मंतर पर बैठा,
कोई उपवासी नहीं......
और न ही किसी आश्रम में -
अपनी दूकान चलाता संत है गाँधी ।
गाँधी -
एक विचार है,
जो कभी मरा नहीं .......
गाँधी -
मरा नहीं करते ।
- नीहार ( चंडीगढ़, २ अक्टूबर २०१३ )
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शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

ख्वाब के पत्तों की बजती है झाँझरी.........

यूँ - 
चलता रहा मैं,
चाँद तलक आसमाँ की ओर.....
ये रात उदासी की -
फिर आये कि ना आये ।
ये ख्वाब के पत्तों की ,
बजती है झांझरी -
कोई हौले से ,
मेरे जिस्म को -
फिर पाक़ कर जाये ।
मेरी आँख को ,
बारिश की दुआ -
दे गया है वो....
डर है कि बहते आँसुओं में,
वो ही ना बह जाये ।
उसका मिलना -
पत्तों का हरा होना है,
वो जो जाये तो,
पतझड़ सा -
हमें कर जाये ।
होंठ चुप हैं -
कि आँखें बोलती हैं....
डूब के सुन कि,
क्या वो कह जाये ।
उसकी बाँहों में -
जिन्दगी करवट ले,
उसके सीने से लग के...
वो सोचता है कि मर जाये । 
- नीहार ( चंडीगढ़, २७ सिसंबर की सुबह  )

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

अश्रुदान....

ट्रैफिक सिगनल पे,
इंतजा़र के उन क्षणों में -
एक हाड़ मांस की पुतली....
सत्तर की उमर और चीथड़ों में,
खुद के स्वाभिमान की चाशनी लिये-
आ खड़ी हुयी मेरे करीब ,
काँपते हाथ बमुश्किल से फैलाये हुये ।
उसकी आँख सूखी रेत की सहरा सी विस्तार लिये -
पेट और पीठ के बीच,
सूत भर की भी जगह नहीं -
और  फैली हाथ की रेखा,
वर्षों की मिहनत की गवाहगार बनी हुयी ।
मैं उद्विग्न हो उठा ,और -
इससे पहले की अपने पर्स से,
चंद रूपये निकाल -
उसके फैले हथेली में रखता.....
मेरी आँखों के कोर ,
टपका पड़े अश्रु की एक बूँद हो ।
उसने मुटठी बंद कर,
स्वीकार किया मेरे उस दान को ।
फिर एक हाथ बढ़ा मेरे माथे को छुआ -
और कहा-
इससे कीमती दान मुझे आजतक नहीं मिला,
मैं इसके पीछे छिपी भावना समझती हूँ, और खुश हूँ -
कि मुझे किसी ने आज समझा तो ,
वरना -
बच्चों को अपना पेट काट खिलाने की आदत ,
मुझे सदियों से रही है -
हाँ, उनकी आँखों में अब मुझे अपने लिये -
आँसू नहीं दिखते....
मेरी लोरी सुने बिना ,
जो सोते नहीं थे कभी -
आज उन्हें मेरी ममता भरी आवाज,
शोर सी लगती है।
मैं भीख नहीं मांगती हूँ ,
फैला के ये हाथें -
मुझे तो इस भीड़ में कोई अपना सा चाहिये,
जो इस आँसू की एक बूँद ने -
मुझे मुझसे मिला दिया ।
- नीहार( चंडीगढ़,सितंबर २३ ,२०१३ की सुबह और माँ की याद )

रविवार, 22 सितंबर 2013

आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे..


याद आ गया हमें भी, 
 वो गुजरा हुआ ज़माना -
 एक संग जमीं पे बैठ कर, 
लिट्टी व चोखा खाना - 
फिर बैंक और देश की,
 पालिटिक्स पे बातें करना-
 मन का सारा विकार यूँ,
 हँसते हुये निकालना ... 
वो बच्चों की खिलखिलाहट, 
वो गृहणियों की चहचहाहट- 
हम उसमें सुन लिया करते, 
सपनों की गुनगुनाहट .... 
चलो पीछे ले चलें हम,
 समय को जरा घुमाकर - 
शायद ये हम जान पाएँ, 
कि हम कितना बदल गये हैं... 
ओढ़ रक्खें हैं हमने चेहरे, 
अपने चेहरे पे न जाने कितने -
 कि आईना भी हमसे अक्सर, 
हमारा पता पूछता है ।
 पलट लो जरा ये अल्बम, 
जो हमें हमारे होने का - 
है सबूत पेश करता । 
चलो उतार दें हम ये चेहरा, 
जिसने मशींदोज़ हमें किया है - 
हमें सुविधा भोगी करके,
 हमसे छीनी है हमारी पहचान....
 चलो फिर से उस जहाँ में, 
जहाँ रोटी नमक भी हमको -
 देती थी अगाध खुशियाँ.... 
जहाँ बच्चों की धमाचौकड़ी, 
में सुनते थे झरनों की झर झर- 
जहाँ पत्नियों के उलाहने में, 
रहता था प्यार का ही तेवर ....
 वही थी हमारी दनिया, 
जहाँ दीवार न थी कोई- 
हम आदमी से मिलते थे, 
बस आदमी ही होकर । 
ये तस्वीर मुझसे कहती, 
चल आ के मुझसे तू मिल ... 
मैं तुझे मिला दूँ तुझसे,
 जिसे तू कब से ढूँढ़ता था । 
- नीहार ( एक चित्र को देखकर अचानक उमड़े भावनाओं का ज्वार काव्य रूप में- आभार विकास रंजन । एवं सुशील प्रसाद )

वो मेरे ख्वा्ब की ख्वाहिश में सोयी रहती ......

मैं  उसके कर्ब की ख्वाहिश में जागा करता,
वो मेरे ख्वा्ब की ख्वाहिश में सोयी रहती ।
उसकी फितरत है कि वो चुप रहा करती है,
मैें ये समझा कि वो मुझमें ही खोयी रहती ।
मैेंनें जितना भी दिया दर्द उसे उन सबको,
वो अपनी आँख में मोती सा पिरोयी रहती ।
मुझ पे जब भी उछाला है कीचड़ किसी ने,
अश्कों से मेरे जीस्त को वो धोयी रहती ।
मैं भटकता हूँ तपी धूप सा होकर जब भी,
प्यार बरसा के वो मुझको भिंगोयी रहती ।
किर्चों में टूट के जब भी बिखरता है नीहार,
वो उन्हें चुन चुन के फिर से संजोयी रहती ।

- नीहार

शनिवार, 14 सितंबर 2013

मेरे भीतर एक मोगली रहता है ......

मेरे भीतर ,
दरका है कुछ -
शायद मेरा विश्वास,
मनुष्य के होने पर ।
सोचता हूँ कि,
सभ्य होना अगर - 
यही है कि ,
रक्षक ही हत्यारे हो जाएँ -
संत असंगत कार्यों में लिप्त ।
प्रजा का तंत्र -
प्रजा के लिये ही षडयंत्र हो,
और-
हर गरीब के मुँह की रोटी से ,
ज्यादा कीमती और पौष्टिक -
किसी अमीर के कुत्ते का बिस्कुट हो  ,
तो - 
मुझे नहीं रहना ऐसे सभ्य समाज का ,
हिस्सा हो ।
मुझे वापस किसी जंगल में छोड़ आओ,
जहाँ मुझे बड़े ही लाड़ दुलार से - 
पाला था शेर चीते हिरण और गजराज ने,
मुझे मोर,बंदर और न जाने कितने जानवरों ने -
अनुशासन और कायदे कानून सिखाये ।
मुझे हर प्रजाति के जानवरों का सम्मान करना सिखाया गया.....
मुझे यह बताया गया कि सभ्यता का अर्थ,
कमजोर से कमजोर का सम्मान करना है -
और ताकत का प्रयोग,
सिर्फ रक्षा के लिये किया जाता ।
मुझे नहीं रहना -
किसी ऐसे समाज का हिस्सा बन,
जहाँ मनुजता सिर्फ किताबों के पन्नों में पाई जाती - और,
हैवानियत बिना मोल के हर जगह लुटाई जाती ।
इससे बेहतर मेरा जंगल है- 
जहाँ न तो फसाद है - न दंगल है,
जो भी है ,
बस कुशल मंगल है ।
- नीहार ( चंडीगढ़, १४ सितंबर की सुबह - मेरे भीतर एक मोगली रहता है)



शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

चलो चलें गाँव की ओर......

कूकत कोयल नाचत मोर,
चाँद बुझा के आ गई भोर ।
टिन के छत पे बारिश बूँदें,
दय दय ताल करत हैं शोर ।
जंगल जंगल खबर है फैली,
नर नारी  हुये आदमखोर ।
आदम के नीयत का नहीं,
मिलता कहीं ओर या छोर ।
हर एक को नीचा दिखाने ,
यहाँ लगी है सब में होड़ ।
प्रगति का लेखा मत देखो,
ये देश चला रसातल ओर ।
हर नेता भाषण में कहता,
तारे लाएगा आसमाँ तोड़ ।
हर अमीर जी रहा पी कर,
यहाँ गरीब का खून निचोड़ ।
संसद का मत हाल तू पूछ,
लड़ते सब वहाँ कुर्सी तोड़ ।
कौन कितना बड़ा असंत है,
संतों में लगी इसकी है होड़ ।
टिकट उसे देगी हर पार्टी ,
जो चोरों का होगा सिरमौर ।
देश तरक्की पर है साहब,
रुपया भले हुआ कमजोर ।
शहर मिजाज़ बदल चुका है,
चलो चलें हम गाँव की ओर ।
- नीहार



मंगलवार, 27 अगस्त 2013

हर किसी का पाँव यहाँ कीचड़ में है पगा .......

जुगनु सा जल बुझा और तू तारे सा टिमटिमा,
सूरज से चुरा कर रौशनी तू चाँद सा जगमगा ।
कोशिश हो कि हमको कभी अंधेरे न लील लें,
हाथों में ले  मशाल तू और उसे दूर तक भगा ।
क्यूँ खोजता है तू यहाँ हर चेहरे में अपना अक्स,
ये यंत्र युग का शहर है यहाँ होता न कोई सगा ।
आजकल के बच्चों की फितरत ही है कुछ ऐसी,
दिन को सोते घोड़े बेच और फिर करते रतजगा ।
मैं ढूँढ़ रहा हूँ ऐसा शख्स पैर जिसके मैं छूँ सकूँ,
पर हर किसी का पाँव यहाँ कीचड़ में है पगा ।
बस दो ही तरह के राजनीतिज्ञ मिलते यहाँ हमें ,
कोई लूटता है खुलकर ,किसी ने चुपके से ठगा ।
मैं कभी भी किसी बात की परवाह नहीं करता ,
मैं वही सब करता ,जो सदा मुझे ठीक है लगा ।
संघर्ष रत हरएक युवक को है ये मेरा आशीर्वाद ,
काँटों में रह के खिल और तू हीरे सा जगमगा ।
- नीहार ( चंडीगढ़,अगस्त २७,२०१३ )

रविवार, 25 अगस्त 2013

कुछ उक्ति कुछ कटुक्ति......

मनुज जनम जौं लीजिये,
कीजिये कुछ ऐसा काम ,
सुमार्ग पर चलते रहिये,
ले कर प्रभु का बस नाम ।
मन को साधे सब सधे,
तन को साधे वो निरोगी,
जो धन को भी साध लै,
उस से बड़ा न कोई जोगी।
करत करत उपवास के ,
शरीर होइ जात दुबलान,
हड्डी पसली सब दिखन लगे,
और गायब हुई मुस्कान ।
जात न पूछो साधु की ,
सब व्यभिचार में हैं लिप्त,
निस दिन धन अर्जन करे,
फिर भी मन ना होये तृप्त । 
चोर उचक्के बेईमान सब,
गद्दी पे हुए हैं शोभायमान,
अपना हित साधने के लिये,
पक्ष प्रतिपक्ष हुये एक समान ।
नारी जहाँ सदा थी पूजिता,
वहाँ नित होए उनका अपमान,
फिर किस मुँह से हम कह रहे,
कि है मेरा ये भारत महान ।
सोने चाँदी का हर मन्दिर में
होता नित दिन ही व्यापार,
देश दुर्दशा पे फिर शोर क्यों,
और क्यों मचा हुआ हाहाकार ।
खंड खंड हुआ उत्तराखंड और,
क्षत विक्षत हुआ हर तीर्थस्थान,
हर घायल की गति लुटी हुई,
और लाचार हुआ है भगवान ।
सीमा पर चल रही गोलियाँ,
होता घायल हर वीर जवान,
शयनागार में सुख की नींद,
ले रहा है सारा हिन्दुस्तान ।
घोटाला जो जन  नित करे ,
वो पाये सरकार से सम्मान,
जो दुंदुभी बजा पर्दाफाश करे,
उसका नित दिन होय अपमान ।
हिन्दू मुस्लिम लड़ रहे और,
यहाँ लड़ रहे सिक्ख ईसाई,
जाति धरम के नाम पर रोज,
यहाँ खोदी जाती है नई खाई ।
बच्चों का लालन पालन करे ,
जो माँ बाप करा  दुग्ध पाण,
एक पानी की बूँद को तरस,
वो बुजुर्ग फिर तज देते प्राण ।
बिजली बिन सब सून है,
क्या शहर और क्या गाँव,
धूप भी खोज रहा है यहाँ,
अपने लिये ठंडी ठंडी छाँव ।
चोरों और बेईमानों का यहाँ,
है फलता फूलता साम्राज्य,
सत्य राह पर चलना यहाँ, 
हुआ दुष्कर और त्याज्य ।
बॅालीउड के हीरो सभी ,
फिल्मों में दिखते जैसे शेर,
रियल लाइफ में वे सभी,
पर होते हैं गीदड़ भेड़ ।
राम के नाम पर लूट है,
जो लूट सके वो है राजा,
"समय अभी" पर यह खबर,
है बिलकुल ताजा ताजा ।
निहरा करता बंद अपना,
ये निरा अनर्गल प्रलाप,
वरना आपको जगाने का,
उस पर लग जायेगा पाप ।
सोये रहिये  सुख चैन से,
बिकने दीजिये यह देश,
शून्य की खोज जहाँ हुई,
वह शून्य में हो रहा शेष ।।
- नीहार ( चंडीगढ़,अगस्त २५,२०१३)

बुधवार, 14 अगस्त 2013

इक छाँह की तलाश में


कई साल से मैं तन्हा इस शहर में रहा,
भटकता कभी रात कभी दोपहर में रहा।
मैं परिन्दों सा उडता रहा हवा में यूँ ही,
मछलियों सा तैरता मैं समन्दर में रहा।
लोग सोचते हैं जिन्दगी से मैं हँू हारा हुआ,
मेरा वज़ूद मगर ख़ुमारि ए जफर में रहा ।
उसे इश्तहार बन चिपकने की चाह थी,
वो िजस जगह भी रहा बस ख़बर मे रहा ।
सुर्खरु होते हैं लोग ठोकरें खाने के बाद,
ये सोच वो ताउम्र सबकी ठोकर में रहा ।
हैै हवा का झोंका बहना उसकी फितरत,
खुशबू बिखेरे  वो शाम ओ सहर में रहा ।
उसने सुना था कि उसकी आँख सीप है,
आँसू हो के कैद वो उसकी नजर में रहा ।
कोरे कागज़ पे लिखा था आँसू से पता तेरा,
मैं तुझको ढूँढता हर गाँव हर शहर में रहा ।
इक छाँह की तलाश में उमर भर नीहार,
तपती धूप में भटकता हुआ सफर में रहा ।
- नीहार (चंडीगढ, अगस्त १४,२०१३)


सोमवार, 12 अगस्त 2013

लचक जात हरसिंगार......

उचक उचक चलत नार,
लचक जात  हरसिंगार ।
मुसक मुसक देखि देखि,
दिल पर फिर करत वार ।
छम छम छम बरसे मेघ,
नाचत मयूर पंख पसार ।
कोकिल सी बोली सुन,
झंकृत मन का सितार ।
बैठी रही नदी के तीर,
करत पी का इंतजार ।
घँूघट से झाँकि झाँकि,
दूर करत हैं अंधियार ।
चंद्र समान मुखड़ा को,
तिल देत और निखार ।
नागिन सौं बल खात,
केश राशि कंठ हार ।
दिखला के एक झलक,
देती मेरा मन पखार ।
उसके एक दरस से ,
जीवन में आत बहार ।
 - नीहार

रविवार, 14 जुलाई 2013

फूल रंग रंग के इत उत िखल जात हैं......

अधर चुमत लट उडत इधर उधर,
हवा में जैसे साँप डोलडोल जात हैं।
नैन कजरारे तोरे काजर से लबलब,
पलक उठा के मेरी भोर लिये आत हैं।
बोली तेरी मधुर शहद सी मीठी मीठी,
कोयल भी गायन में पाये जात मात हैं।
तू जो रक्खे पाँव ज़मीन पे ओ रूपसी,
फूल रंग रंग के इत उत खिल जात हैं।

- नीहार(चंडीगढ,१३ जुलाई २०१३)

शनिवार, 11 मई 2013

उजली उजली धूप खिली है.......


उजली उजली धूप खिली है आँखों के गलियारे में,

तू जो चुप के  आन खड़ी है मेरे घर के द्वारे में।

रंग बिरंगी तितली उड़ती मेरे इर्द - गिर्द अक्सर ,

जब जब सोचा करता हूँ मैं बस तेरे ही बारे में।

फूल फूल पे शबनम हो रात बिखर जब जाती है,

ख़्वाब धुनि रूई सी हो जा मिलती चाँद सितारे में ।

कोयल की हर कूक मुझे तेरी याद दिलाया करती है,

मैं स्वतः फूट पड़ता हूँ तब झरनों सा हो फव्वारे में ।

दुनिया के उसूलों से डर डर कर वो चुप रह जाती है,

पर उसकी आँखें कह जाती हैं मुझको बात इशारे में।

गर्मी के मौसम मे अक्सर ठंडी सबा सी लगती वो,

गर्म दुशाले सी मुझ पर वो छा जाती है फिर जाड़े में।

मैं अक्सर उसकी आँखों में छल छल करता आँसू सा,

वो भी हरदम तैरती रहती मेरी आँख के पानी खारे में।

-नीहार (चंडीगढ़ , 21 अप्रैल 2013)

मंगलवार, 7 मई 2013

मेरी फैली हुयी बाहें....


ये मेरी –

फैली हुयी बाहें दो –

शाख़ पेड़ की हो,

कब से मुंतज़िर हैं तेरी.....

पतझड़ है तो क्या हुआ –

पलाश हो,

खिल तो सकते तुम –

मेरी शाखों पे.... ।

-नीहार ( चंडीगढ़, 2 अप्रैल 2013)