मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

आओ कुछ गीत बुनें .....


आओ कुछ गीत बुनें ।

रंगों के मौसम में –

मन के आकाश पटल पे,

साँसों को कूची कर,

रंगो की बरसात करें....

आओ कुछ गीत बुनें

मन को कर निर्झर सा,

तन को कर पाषाण फिर,

व्यथा को कर संगीत सा,

धड़कन की ताल सुनें...

आओ कुछ गीत बुनें ।

बहते रहे हवाओं सा ,

चंदन की ख़ुशबू लिये,

पर्वत दर पर्वत भटक,

सूर्य-किरण मुक्ता चुनें....

आओ कुछ गीत बुनें ।

-    नीहार

सोमवार, 26 नवंबर 2012

तुम हो, तुम्हारा खयाल है....

तुम्हारी याद ने सुबह सुबह -
मुझे नहला दिया सूरज की गुलाबी रोशनी में.....
मेरी आँखें खुल गईं,
और,
उनमे तुम्हें देखने की ललक जाग गई....
मैंने अपने चारों तरफ,
पसरे मौन में तुम्हें सुनने की कोशिश की।
तुम , कोयल के गले से निकली-
कूक सी मुझमें उतरती जा रही....
तुम्हारे कोमल पाँव की छाप हर शू,
...

खिला देते हैं शत दल कमल -
और,
मैं उनकी पंखुरियों पे बिखरे अश्रु बूंद को,
अपनी उँगलियों की कोरों पे उठा -
उनसे अपनी आँखें धो लेता हूँ।
सुबह की हवा में लिपटी तुम्हारे गेसूओं की खुशबू -
मेरे मन प्राण को स्पंदित कर जाती है।
आँखें बंद करता हूँ तो तुम सामने होती हो -
और,
खुली आँखें तुम्हें तलाशती हैं बेचैन हो....
ये आँखें न खुलें तो अच्छा है -
तुम हर पल सामने बैठी तो होगी ।
तुम हो, तुम्हारा खयाल है और ये सुबह का फैला उजियारा...
कोयल ने कूका है या तुमने मुझे पुकारा ।
- नीहार

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

पलकों के झूले और ख्वाब......


मन कर रहा चाँद को बुलाने का ,

पलकों के झूले पे ख्वाब कर झुलाने का ।

नींद नहीं आती है क्यूँ,

ये हमको मालूम नहीं –

वादा था उनकी अपने ज़ुल्फों तले सुलाने का ।

मौसम भी इन दिनों न जाने,

क्यूँ भींगा भींगा रहता है –

है आरोप उसपे मेरी आँख की नमी चुराने का ।

मैं धूप को ओढ़े बाहर बैठा,

चिड़ियों को दाने चुगाता हूँ –

मन करता पाखी बन तेरे पास ही उड़ आने का ।

पीर पर्वत हो गयी न जाने,

क्यूँ इस  तमस की रात में –

शायद आया मौसम उनकी यादे चराग  जलाने का।

आँखें मेरी हो गयी देखो,

नीर भरी दुख की बदरी –

मन करता है सावन करके उनको फिर बरसाने का ।

_ नीहार ( चंडीगढ़, 28 अक्तूबर 2012)
 

सोमवार, 25 जून 2012

प्यार...


तुम लकीर के उस पार थी –
और,
मैं लकीर के इस पार...
न ही तुम सीता की तरह,
किसी लक्ष्मण के वचन से वद्ध थी –
और,
न ही मैं किसी काल के हाथों –
रावण रूपी कोई खिलौना था.....
न ही तुम्हें खुद को अपहरित करा,
किसी मर्यादा पुरुषोत्तम के विजयश्री का –
कारण बनना था....
और न ही –
मुझे किसी राम के हाथों मृत्यु का वरण कर ,
खुद को निष्कलंकित मोक्षत्व ही देना था....
हम बंधे थे अपने अपने,
परिष्कृत संस्कार से ...
और,
इसलिए तुम....ता -उम्र इंतज़ार करती रही मेरा,
की मैं कब उस लकीर को लाँघूँ...
और,
मैं इंतज़ार करता रहा तुम्हारा....
की कब तुम लकीर के इस पार आओ...
फर्क कुछ भी न था...
हमारा इंतज़ार ही हमारा प्यार था....
और-
जब हमने यह समझ लिया तो –
हमारे बीच की लकीर ,
खुद ब खुद मिट गई....
हम एकाकार हो गए....
-    नीहार (चंडीगढ़ ,जून 23, 2012)

शुक्रवार, 8 जून 2012

क्षणिकाएँ


क्षणिकाएँ
सुलग उठती हैं यादें,
जंगल में होकर पलाश –
मैं अपनी हथेलियों के बीच,
उनकी आग छुपाता फिरता।
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सोया रहा रात भर मैं,
ख़यालों की छाँव में –
याद तेरी हरसिंगार हो ,
झड़ती रही झड़ती रही।
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खुशबू जो तेरी याद की ,
आई शाम ए हवा के साथ –
तेरा  ख़त समझ के ,
मैंने पढ़ लिया उसे ।
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मुझको सुबह के उजालों ने ,
नीलाम  कर दिया –
वर्ना मैं चाँद बन के,
रातों को चमकता ।
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खुली जो आँख तेरी –
तो धूप पसरी है.....
वरना, तमस की पीड़ा –
बिखरी थी हर तरफ।
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कोई क़रीब आके मुझे -
बेनक़ाब कर गया .....
वरना, मैं ख़ुद को भी –
कभी पहचानता नहीं ।
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आओ कि आके तुम मुझे –
बाहों में भर लो आज .....
मैं हिमशिला पिघल कर ,
दरिया सा उफनना चाहूँ ।
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सुबह की धूप –
थोड़ी सी शरमा गयी.......
आपके चेहरे की रंगत ,
जब से उसने देख ली।
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खिड़कियाँ रात को,
ना खुली रखना....
मेरी याद चुपके तेरे –
सिरहाने आ बैठेगी ।
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मंगलवार, 29 मई 2012

मैं - अजल से गाता रहा ..... तुम – अजल से सुनती रही



मैं पिघल रहा था ,
उसके बदन के ताप से –
और वो रात भर लिपटी रही,
मुझको चन्दन किए हुये।
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मैं –
आकाश हूँ ....  
झुक जाता हूँ,
तुमपे हरदम .....
तुम –
पृथा हो कर ,
 हर वक़्त मुझे –
थामे रहती हो।
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यादें –
समंदर हुयी जाती हैं ,
आँखों  के अंदर......
मैं –
उन्हे पलकों पे,
आने की –
 इजाजत नहीं देता ।
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धूप –
झुलसा गयी ,
भीतर तक मुझे.....
लेकिन –
तेरी खुशबू ए याद ने,
मरहम सा संवारा मुझको......
जब भी –
मुझको सुनाई देती है,
मंदिर में बजती घंटी.....
यूं लगता है –
जैसे की ,
तुमने है पुकारा मुझको ।
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मेरे बदन का ज़र्रा ज़र्रा -
याद करता बस तुम्हें ही....
मैं - अजल से गाता रहा ,
तुम – अजल से सुनती रही ।
हर्फ़ दर हर्फ़ –
हारसिंगार हो झड़ते रहे.....
और पत्ते पत्ते पे –
गजल लिखती गयी।
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हर दिन
तुम मुझमे उतर जाती हो,
धूप सी ...
हर रात –
मैं बस तुममें ही,
बीत जाता हूँ।



 - नीहार









सोमवार, 23 अप्रैल 2012

उत्थान और पतन के बीच का द्वंद

उत्थान और पतन के बीच -
मनुष्य खो देता है अपने व्यक्तित्व को......
ऊंचाइयों का शौक  उसे, 
गिरने को कर देता है मजबूर -
वह हो जाता है अपनों से दूर  ,
और -
खुद से भी इतना दूर  कि, 
 आईना भी उसे पहचानने से -
 कर देता है इंकार,
एक काम का आदमी -
स्वयं को कर देता है बेकार....
इसलिए -
हे मनुष्य !
उत्थान और  पतन के द्वंद् से मुक्त हो ,
लीन रहो अपनी कर्म साधना में....
विजय और पराजय की चिंता के  बिना ,
कर्म पथ  पर निर्बाध चलते रहो....
कहीं ना कहीं -
कभी ना कभी तुम्हें,
मिल जाएगा वह चेहरा -
जिसकी खोप्ज में तुम,
रहे भटकते वर्षों से -
और जिसे पहन जब तुम,
आईने के पास जाओगे -
तो सच कहता हूँ ,
यसै वक़्त तुम -
खुद ही खुद को पाओगे। 

- नीहार 




मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

तमस की पीड़ा

नींद आ रही....
अधखिले पुष्प क़लियों के स्फुरण में -
उनके मुरझा के बंद होने की प्रक्रिया ,
पलकों में दुहराई जा रही.... ।
रात -
तमस की पीड़ा का  ,
विषपान करने -
मुझे अपने पास बुला रही ....
वह जानती है कि,
उसकी पीड़ा का -
मैं ही वरण कर सकता हूँ....
उसके दुख का मैं ही हरण कर सकता हूँ।
मैं -
बस अपनी आँखें  मूंदता हूँ , 
और -
रात एक ख्वाब कि तरह -
खूबसूरत हो  जाती है  ।
सुबह -
सूरज कि किरणों पे सवार ,
खुशियाँ आ जाती मेरे द्वार -
तमस कि पीड़ा हो जाती निर्विकार। 
- नीहार 





शनिवार, 7 अप्रैल 2012

यात्रा अनन्त हो....

न आदि हो और न अंत हो,
पर यात्रा अनंत हो ।
कर्म कुछ ऐसा करें कि,
गुंजायमान दिग दिगंत हो ।
रचें कुछ ऐसे चित्र कि ,
चहुँ ओर बिखरा बसंत हो ।
लेखनी में हो सामर्थ्य असीम ,
और विषय ज्वलंत हो ।
स्वप्न दर्शी हों हम सभी,
और हमारी कल्पना जीवंत हो ।
न ही झूठ कि खेती करें,
और न ही बातें मन गढ़ंत हो ।
- नीहार

गुरुवार, 29 मार्च 2012

नदी की खुशबु

उड़ते हुए पत्तों को दोनों हाथों से लपक लेता है ,
उसने मौसम की गवाही में ये खत लिखा होगा।
जैसे झड़ते हैं टूट कर शाख के पत्ते इस मौसम,
वैसे ही आँख को शाख कर वो झर गया होगा।
कहाँ से चुन लिए शब्द उसने अपने गीतों के ,
कहाँ से दर्द ला उन गीतों मे रच दिया होगा।
अपनी आवाज़ में भर ली होगी नदी की खुशबू ,
और फिर उसमें मौसम का रंग मिला दिया होगा।
शाम लाती है मेरी वो अपनी ज़ुल्फों की छाँव तले ,
अपनी आँखों को मेरे घर चराग उसने किया होगा।
लाख कोशिश करे पर मर नहीं पाता है ये ‘नीहार’,
तेरे लब से शायद अमृत कभी उसने पिया होगा।

गुरुवार, 15 मार्च 2012

नयन पलक ......

नयन पलक जब उठत हैं,
चहुँ बिखर जात हैं धूप
हर लेता मन का दुःख विषाद ,
प्रिया का अप्रतिम यह रूप
सब कुछ तो है पा लिया ,
पाय प्रिया का निश्छल प्यार
जीवन में नहीं अब कोई कमी,
जब से पायो प्रियतमा अनूप
मन से कभी मिट सका ,
तेरे दिव्य दरस की चाह
पल पल करता मन याद तुझे ,
पल पल उठती दिल में हूक
बिन तेरे सब कुछ सून है ,
ही रंग ही मधुर संगीत
तुझसे ही मुखरित वाणी मेरी,
बिन तेरे मैं तो रहता मूक
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कौन है जो याद करता है मुझे ,
कौन है जो संग मेरे गा रहा -
कौन है जो उमड़ घुमड़ कर बादलों सा ,
मेरे प्यासमन को है तरसा रहा .....
किसकी आँखें देखती हर पल मुझे ,
कौन मेरे दिल की धड़कन सुन रहा -
किसकी साँसों में महक उठता हूँ मैं ,
कौन मेरे लब से रंगत चुन रहा .....
किसकी जुल्फें रात का साया बनी ,
कौन है जो मदहोश मुझको कर रहा -
किसकी आँखों के समंदर में डूब कर,
ज़िन्दगी का मय ये शायर है पी रहा ....
क्या कहूँ तुमसे मैं तुम सब जानती हो ,
जो भी है वो उसको तुम पहचानती हो -
आईना भी देता है तेरे प्रश्न का उत्तर,
पर इस हकीकत को नहीं तुम मानती हो.....
चलो कह ही देता हूँ की तुम मेरा प्यार हो ,
मेरी कविता में प्रतिबिंबित उदगार हो -
दिल की धडकनों में गुम्फित तुम हो प्रिये,
तुम ही मेरे जीवन का अद्भुत श्रृंगार हो....

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

मैं ख्वाब की रेत बिछाता हूँ...

बहुत याद आते हो मुझे -
पलकें बंद करूँ तो,
ख्वाब सा देखूं तुम्हे मैं -
आँख खुलते ही तुम मुझे ,
हर शय में शामिल दिख रही हो....
यह प्यार मेरा प्रसश्त करता ,
आराधना का मार्ग जानम -
चल के जिसपे,
मैं पहुँच जाता हूँ तुम तक....
मेरे थके हारे मन का विश्रामस्थल,
मेरे जन्मों की तपस्या का प्रतिफल है

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मैं ख्वाब की रेत बिछाता हूँ,
और नंगे पाँव -
तुम तक भागा आता हूँ....
मेरे बदन से चूते हुए श्वेद कण ,
उस रेत पे रात के जुगनुओं की तरह -
दमक उठते हैं....
तुम उन्हें अन्जुरिओं में उठा,
अपनी आँखों में भर लेती हो -
मैंने तुम्हारी आँखों में,
अपने लिए असीम प्यार देखा है.....
मैं उस प्यार के महासागर में -
यूँ ही डूबा रहना चाहता हूँ....
हाँ ,
मैं जीना चाहता हूँ ......