मन कर रहा चाँद को बुलाने
का ,
पलकों के झूले पे ख्वाब कर
झुलाने का ।
नींद नहीं आती है क्यूँ,
ये हमको मालूम नहीं –
वादा था उनकी अपने ज़ुल्फों
तले सुलाने का ।
मौसम भी इन दिनों न जाने,
क्यूँ भींगा भींगा रहता है
–
है आरोप उसपे मेरी आँख की
नमी चुराने का ।
मैं धूप को ओढ़े बाहर बैठा,
चिड़ियों को दाने चुगाता
हूँ –
मन करता पाखी बन तेरे
पास ही उड़ आने का ।
पीर पर्वत हो गयी न जाने,
क्यूँ इस तमस की रात में –
शायद आया मौसम उनकी यादे
चराग जलाने का।
आँखें मेरी हो गयी देखो,
नीर भरी दुख की बदरी –
मन करता है सावन करके उनको
फिर बरसाने का ।
_ नीहार ( चंडीगढ़, 28 अक्तूबर 2012)