मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

पलकों के झूले और ख्वाब......


मन कर रहा चाँद को बुलाने का ,

पलकों के झूले पे ख्वाब कर झुलाने का ।

नींद नहीं आती है क्यूँ,

ये हमको मालूम नहीं –

वादा था उनकी अपने ज़ुल्फों तले सुलाने का ।

मौसम भी इन दिनों न जाने,

क्यूँ भींगा भींगा रहता है –

है आरोप उसपे मेरी आँख की नमी चुराने का ।

मैं धूप को ओढ़े बाहर बैठा,

चिड़ियों को दाने चुगाता हूँ –

मन करता पाखी बन तेरे पास ही उड़ आने का ।

पीर पर्वत हो गयी न जाने,

क्यूँ इस  तमस की रात में –

शायद आया मौसम उनकी यादे चराग  जलाने का।

आँखें मेरी हो गयी देखो,

नीर भरी दुख की बदरी –

मन करता है सावन करके उनको फिर बरसाने का ।

_ नीहार ( चंडीगढ़, 28 अक्तूबर 2012)