अपने विषय में क्या कहूँ....लिखना मुझे अच्छा लगता है...लिखता हूँ क्यूंकि जीता हूँ...
शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010
जो तुम आ जाते एक बार ....
जो तुम आ जाते एक बार.....
मन हो जाता सागर अथाह,
हो जाती आसान मेरी ये राह,
झंकृत हो जाता मन का सितार ।
जो तुम आ जाते एक बार.....
चांदनी सित होती हरेक रात,
दिल लाता खुशबू की परात,
जीवन में हर पल होती बहार।
जो तुम आ जाते एक बार.....
खिलता हर तरफ शत दल कमल,
हिम खंड भी फिर जाता है पिघल ,
प्रकृति करती फिर नया श्रृंगार।
जो तुम आ जाते एक बार....
मन हो जाता फिर यमुना का तीर,
पावन हो जाता मेरा अधम शारीर,
मेरी बाहें हो जाती कदम्ब की डार।
जो तुम आ जाते एक बार....
- नीहार
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बारिश में घूमोगे तो फिर धूप सरीखे खिल जाओगे,
फूलों की बस्ती में तुम खुशबु सा घुल मिल जाओगे।
जब रात कटेगी तन्हा तन्हा और मेरी याद सताएगी,
हर करवट तुम मुझको अपनी आँख से बहता पाओगे।
चाँद रात की तरह भटकती खुशबु की दरिया सी तुम,
मुझसे होकर गुजरोगे तो खुद को तुम नहाया पाओगे।
मैं तेरी जुल्फों में कैद हुआ हूँ जाने कितने जन्मों से,
तुम भी जानम खुद को मेरी आँखों में बंद पाओगे।
- नीहार
गुरुवार, 16 दिसंबर 2010
तुम हो तुम्हारा ख्याल है.....
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रात भर मैं वहीँ था...शाकुंतल नगर के आस पास....मृग छौनो के पीछे भागती शकुंतला और उसे निर्निमेष देखता मैं दुष्यंत....वही पहाड़ों की श्रेणी के बीच बनी पूजा स्थली और नमन करते तुम और मैं...साथ साथ....सब कुछ भर गया मुझे सुखानुभूति से....फिर घंटों हम एक दूसरे की आँख में डूबे रहे....तलाशते रहे अपनी निजता को...मेरे काँधे पे तुम्हारा सर....तुम्हें घेरी हुयी मेरी भुजाएं...जैसे किसी वृक्ष को घेरी अमरबेल की लत्तर...अभी भी मुझको तुम्हारे घने गेसुओं की महक भिगोये हुए है....अभी भी तुम्हारी पलकों पे मेरी याद के फूल जुगनुओं से जल बुझ रहे....अभी भी हमारी सांसें एक दूसरे को जी रही.....तुम हो , तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...मुझे मिली तुम्हारे प्यार की ये अनुपम खैरात है।
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हे सुगंधे!मैं गंधमादन वन के विशाल तरुवर की विटप छांह में तुम्हारा कब से इंतज़ार कर रहा....हवाएं शूल की तरह आ के मुझे चुभ रही...मन आशंकाओं से ग्रस्त हो रहा....हयबदन और दुष्टबुद्धि राक्षसों ने तुम्हे अपहृत तो नहीं कर लिया? मैं अपने तुरंग पे चढ़ दौर के तुम्हारे पास पहुचना चाहता हूँ....पर हाय री किस्मत....तुम शार्दूल वन के वतानिकुलित कक्ष में कैद और तुम तक पहुचने के सारे मार्ग अवरुद्ध कर दिए गए......तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और उदास सी धूप है....तुम्हारी चिंता में व्यग्र मन बना अंध कूप है.
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कतरा कतरा रात गल रही,
बूँदें बूँदें बरसे ओस ,
छिटक छिटक कर बरसे चांदनी,
शीतल मलय करती मदहोश।
याद तुम्हारी आती पल पल,
दिल में होती समुद्र सी हलचल,
तुम हो तो मन मृग सा चंचल,
बिन तुम सब हो जाता खामोश।
नयन तुम्हारे मतवाले से,
कर जाते मुझ पर जादू सा,
बाहें तेरी फूल की डाली,
भर लेती मुझको अपने आगोश।
-नीहार
बुधवार, 15 दिसंबर 2010
है चिरंतन सत्य की मैं....
मंगलवार, 14 दिसंबर 2010
तुम हो तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...भींगा मन है और आँखों से होती बरसात है।
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खिड़की से बहार चाँद ज़र्द सा है...मनो किसी ने सूरज को पीला चादर उढ़ा दिया हो...तारे जुगनू बन जल बुझ रहे.....दरख्तों पे बर्फ धुनी रुई सी टंगी है....पत्ते सारे के सारे सिहर कर अपने आप में दुबके जा रहे....झील में तैरता रक्त कमल चन्द्र किरणों से अभिसार कर रहा...मेरे भीतर एक सूनापन घर कर जाता है...मुझे उस रक्त कमल में अपनी प्रियतमा के तप्त अधरों का प्रतिबिम्ब नज़र आता है....मैं बगल में रक्खे तकिये को सीने से लगा लेता हूँ....तुम मुझमे उतर जाती हो....
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है....कमरे का एकांत है और यादों की बारात है....
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मैं जानता हूँ मेरे लिए मुश्किल होगा तुम्हारे संवाद के बिना जीना...तुम्हारी आवाज़ न सुनू तो लगे जैसे जिंदगी जिया ही नहीं....तुम्हारी आँखों में जो न झाँकू तो समंदर भी सहरा सा लगे है...तुम्हारे बिना न तो कोयल गाती....न ही फूल खिलते हैं....न सागर ठाठें मारता है....और न ही हवाएं बहती हैं.....तुम्हारे बिना मेरी सांसें चलती नहीं बस एक बुझे हुए दिए की लौ की तरह थरथराती है......तुम्हारे बिना मेरी आवाज़ खामोश सी रहती है...दिन जलता हुआ अलाव और रात सर्द बर्फ सी......सूरज पिघल कर टपक जाता और चाँद जम जाता है....तुम नहीं तो जिंदगी थम सी जाती है....पर तुम्हारा ख्याल है की मुझे जिंदा रखता है....तुम्हारी बातों की खुशबु मुझे महकाती है...मैं इस उम्मीद में की तुम वापिस आओगी जिंदा रहूँगा......
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...तुम्हारी यादों के जंगल में मेरी जिंदगी से मुलाकात है...
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आँखें बंद कर लेता हूँ और तुमको छू लेता हूँ....मेरे भीतर एक ओस की बूँद मेरी प्यास को बुझाती सी बिखर जाती है....मेरी आँखें धुन्धलाई सी हैं शायद...तुम्हारी याद पलकों पे ठहर से गए हैं आंसुओं की तरह...ज़ज्ब कर लूँगा इन्हें मैं अपने भीतर.....तुम छत पे चले आना और माहताब सा खिल जाना.....मैं चाँद को आईना दिखाना चाहता हूँ। तुम जब पास होते हो तो शब् के सन्नाटे झरनों सा कल कल निनाद करने लगते हैं...सितारे कृष्ण की गोपियों सी रास रचाते और चन्द्र किरण अमृत घाट से रसवंती हो बह जाती. मैं तृप्त हो जाता उस रसवंती को पी और तुम मेरे कानो में गाती और मैं सो जाता...
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और खिली खिली सी धूप है...मेरी जागती आँखों में बस तुम्हारा ही रूप है...
रविवार, 12 दिसंबर 2010
तुम्हारी याद में ....
शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010
तुम हो तुम्हारा ख्याल है और .......
पहाड़ों से उतरती धूप ,
अलसाई हुयी सी है ।
रात की आँखों के आंसू अभी भी फूलों को नहलाये हुए हैं ,
पाखी अपने घोंसलों में दुबके हुए से हैं ।
हर तरफ सिर्फ एक ख़ामोशी है....
सर्द सी ....जर्द दी....बर्फ सी ....भींगी हुयी सी।
दुशाला ओढे हुए तुम्हारी यादों का मैं,
बंद आँखों से तेरी तस्वीर देख रहा ,
मौसम ए मोहब्बत की ताबीर देख रहा।
मंदिर में बजती घंटियों में तुम्हारी पाजेब की रुनझुन सुनाई देती है.....
ऐसा लगता है मुझे ,
की तुम मेरी साँसों के संतूर छेड़ रही।
मैं तुम्हें पूरी तरह महसूस रहा ....
तुम हो...मेरे वजूद में समायी हुयी सी,
मुझमे ही हो....तुम।
तुम हो,तुम्हारा ख्याल है और यमुना का तीर है....
कदम्ब की छांह,बंशी की धुन और मन हुआ फ़कीर है।
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तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...
आकाश की सूनी सड़क,
तारों की रोशन कतारें...
टिमटिमाते जुगनुओं की बारिश,और...
सामने वाले घर के मुंडेर से झांकता,
पीला पीला ज़र्द सा चाँद...
मनो अभी पाक कर तापाक जाएगा।
ख्वाब हैं की आँख में पंख ले चुके......
होठों पे आंसुओं का नमक बिखर सा गया....
एक चिराग कहीं पे जल रहा बुझ रहा...
और मेरे कानो में हवाओं ने,
चुपके से है ये कहा कि,
तुम यहीं हो....यहीं हो तुम,
मेरे पास....मुझमे उतरती हुयी...
मुझमे पिघलती हुयी....
मुझमे तुम्हारी धड़कने रवानगी पाती।
एक नदी है जो मेरे भीतर तुम्हारी तरह मचल रही...
तुम्हारे स्पर्श ने मुझे पारा कर दिया,और...
मैं चुपचाप अपनी आँखों से ढलक कर तुम्हारे होठों पे जज़्ब हो गया।
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और आँखें हैं पुरनम...
तुम्हारा चेहरा है मेरे हाथों में जैसे फूलों पे शबनम।
- नीहार
शनिवार, 20 नवंबर 2010
कुछ खुशबु जैसी बातें....(४)
तेरी आँखों में जो लरजता है,वो कुछ नहीं बस प्यार है....मेरी आँखों में लरजता मेरे जीवन का ही सार है...धडकनें जो गीत गाती हैं रात दिन , उनमे महकती तेरी साँसों की खुशबु का विस्तार है...मैं तो फिरता था आकाश में सरफिरे बादल की तरह...तेरी जुल्फों में उलझ कर मिला मुझे मेरा संसार है...
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तुमने कभी आँखों में नाचते हुए मोर देखें हैं..नहीं न?देखना चाहोगी?...आ जाओ.....आके मेरी आँखों के जंगलों में झांको....उफनते हुए दर्द के बादलों के झमाझम बरस जाते ही ,मेरी आँखों में तुम्हारी यादों के मोर पंख पसारे नाचने लगते हैं...तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है.....मेरा भींगा सा मन है और आँखों से होती बरसात है।
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खिड़की से बहार चाँद ज़र्द सा है, मनो किसी ने सूरज का पीला चादर उसे उढ़ा दिया हो...तारे जुगनू बन कर जल बुझ रहे....दरख्तों पे बर्फ धुनी रुई सा टंग से गए....पत्ते सारे के सारे सिहर कर अपने आप में दुबकी जा रही...झील में तैरता रक्त कमल चन्द्र किरणों से खेल रहा....मेरे भीतर एक सूनापन घर कर जाता है.....मुझे उस रक्त कमल में अपनी प्रियतमा के तप्त अधरों का प्रतिबिम्ब नज़र आता है...मैं बगल में रक्खे तकिये को अपने सीने से लगा लेता हूँ....तुम मुझमे समा जाती हो .....तुम हो,तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है....कमरे का एकांत है और यादों की बारात है....
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बुधवार, 17 नवंबर 2010
कुछ खुशबु जैसी बातें(३)
जिसकी बातें खुशबु जैसी,जीवन में जिससे जश्न ए बहारा,
वो तुम हो, तुम हो , तुम हो, तुम!!!
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तुम हो , तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है....
झील पे ठहरी चांदनी का विस्तार है और उसकी लहरों में घुली तारों की झिलमिल करती रौशनी,कल कल निनाद करती नदी की धर मन के पटल पर जलतरंगों सा बज रही....अपने कमरे की खिड़की से टिका मैं आकाश के चाँद को अपलक निहार रहा ......मुझे उसमे तुम दिख रही....सिर्फ तुम...ख्वाब नींद के दरवाज़े दस्तक दे रही....तुम्हारे आने की आहट आ रही....और मैं आँखों के ताल कटोरों में बंद कर तुम्हे अपने भीतर पाता हूँ । इस तरह मैं जी जाता हूँ।
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...नींद है ,ख्वाब है और तुम्हारा साथ है।
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एक अजनबी सा शहर और मेरी शाम उदास सी....कहीं चिरियोंके कलरव में खोया सा मेरे मन के अन्दर का शोर......आँखों में किसी के इंतज़ार की आहट जलते दिए सी थरथराती हुयी .....दूर मस्जिद से आती हुयी अज़ान की आवाज़ .....सड़क सुनसान और रातें लम्बी....पलकों पे टिकी नींद अपने सिंदूरी ख्वाब के गुलाल उड़ाती .....मुझे तुम्हारा इंतज़ार अच्छा लगता है....पलकें नींद से भारी हो रही....अश्रु की अजश्र धार मेरी आँखों से चुपचाप निकल कर मेरे तप्त होठों तक जाकर काफूर हो जा रही....ये अश्रु मेरे जिंदा होने का एहसास कराती हैं...
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...नींद है,ख्वाब है और ख्वाब में तुमसे मुलाकात है....
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जानती हो जानम,तुम्हारी हर बात मुझे याद रहती है.....जब तुम नहीं होते मेरे पास तो हवाएं उन्हें मेरे कानो में गुनगुनाती है.....तुम्हारी साँसे हैं की देवदार के घने जंगलों से गुज़रती हुयी हवा....तुम्हारी मुस्कराहट जैसे चीड की फुनगियों पे टिकी चांदनी...तुम्हारी आँखें हैं या जादू जगाती समंदर का अथाह विस्तार ....तुम्हारे लब हैं या दहकते हुए पलाश...तुम्हारी आवाज़ से खिल जाते हैं शत दल कमल...तुम्हारी बाहें हैं या लचकती फूलों की डाली , जो मुझे अपने आगोश में ले खुशबु से तर ब तर कर देती हैं...तुम्हारी मुस्कुराहट बहारों का आमंत्रण है ....तुम जो सांस लेती हो तो मेरी धड़कन रवानी पाती है...
तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और सरसों सी धूप है ....सोती और जागती आँखों में बस तुम्हारा ही रूप है....
- नीहार
शुक्रवार, 12 नवंबर 2010
कुछ खुशबु जैसी बातें (२)
जानती हो जानम, मेरे कमरे के हर कोने में तुम्हारी खिलखिलाहट बसी हुयी है....गुलदान मुझसे यूँ बातें करते हैं ज्यूं उनमे सजे गुलाब तुम्हारे होंठ बन गए हों....मेरे लिए तुम नगमा हो...गीत हो....संगीत हो....चित्र हो....तस्वीर हो...स्केच हो.....और उन सबमे बिखरा हुआ रंग भी तुम्ही हो...तुम मेरे लिए कुरान की आयत हो...मेरी इबादत हो....मेरी हर खुबसूरत आदत और मुझ पर खुदा की बेइंतहा इनायत हो....तुम मेरे दिल का सुकून हो....मेरा चैन हो और आराम हो ....तुम मेरी जिंदगी का पूर्णविराम हो....तुम हो, तुम्हारा ख्याल है ओर चाँद रात है....
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तुम्हारी आँखें हैं या कमल की नशीली पंखुरियाँतुम्हारी जुल्फें हैं या मेरे चेहरे पर बिखरी धूप को ढंकती हुयी बदली......बाहें हैं या फूलों से लदे झूले...तुम्हारा बदन है जैसे मेरी अराधना का मंदिर और तुम्हारी खनकती आवाज़ है जैसे उस मंदिर में बजती हुयी सुरीली घंटियाँ...मैं तुम्हारा पुजारी, बस तुमही पूजा में तल्लीन...मेरी पूजा स्वीकार करो हे देवी!
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जानती हो जानम,यहाँ एअरपोर्ट पे बैठा हुआ मैं आँखें बंद कर तुम्हे ही देख रहा...धुले केश तकिये के पीछे बिखरे परे हैं और चाँद से चेहरे पे एक ग़ज़ब का मोहक सौंदर्य अपना रंग मुस्कराहट के गुलाल में घोल बिखरा रहा है...गुलाब की नाज़ुक पंखुरिओं से तुम्हारे अधर पर अभी भी मेरे नाम की ओस बूँद नमी पसारे हुए है...तुम्हारे काजल से कारे अंखियों में पिया मिलन की आस द्रवीभूत हो रही.....लगता है आज फिर बरसात होगी....तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...तुम हो तो हर दिन होली और हर रात शब् ए बरात है....
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तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...हवा गुनगुना रही....तेरी याद के हरसिंगार मेरे मानस के पटल पर बिखर कर मुझे अपनी खुशबु से नहला रहे .....कहीं मयूरपंखी ख्वाब आँख के किनारे बस जाना चाह रहे.... कहीं कोई मंद मदिर सी हवा जैसे गुज़ारिश कर रही हो की तुम्हारी जुल्फों में उसे गुम होने दिया जाए।
जानती हो जानम, तुम्हारी खिलखिलाहट कौंधती धनक सी रात की तारीकी को रौशनी का ज़खीरा भेंट करती है....तुम जो दबे पाँव आती हो ख्यालों के चिराग टिमटिमा जाते हैं और जब मैं तुम्हारी बाहों के अमरबेल में जाकर जाता हूँ तो वो जकरन मुझे बंधन मुक्त करती है जिंदगी की हरेक परेशानी से.......तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है....
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तुम हो, तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है....चारों तरफ सुबह का उजाला अपनी छटा बिखेर रहा, नन्ही सुकोमल सूर्य किरने किसी अबोध बच्चे की खिलखिलाहट की तरह पसर रही बिना किसी देश,जाति,धर्म,उम्र,समाज की परवाह किये बगैर....खिड़की के बाहर पक्षियों का शोर सुबह को आमंत्रण देता हुआ.....ऐसे में मेरा मन....ढूंढें तुम्हे जंगल,आकाश,वन....मैं पूछ रहा इस शहर की हर गली से.....की हे गलियां...हे चौबारा...हे मंदिर मस्जिद और गुरुद्वारा....हे अट्टालिकाएं हे ईमामबारा ....कहीं तुमने देखी मेरी दिलदारा...मेरी जान ऐ अदा....मेरी जहाँआरा...उसके बदन की खुशबु अभी भी यहीं है......उसके सुकोमल क़दमों के निशाँ अब भी यहीं हैं....उसके मन के उदगार अब भी यहीं गुंजायमान हैं.....रुई के फाहों से नाज़ुक मुलायम उसके खयालात अभी भी बादलों सा तीर रहे हैं....तुम वह सब मुझे वापिस दे दो....वह सब मेरा है....सिर्फ मेरा....उसके एहसास मेरे, उसकी व्यथा मेरी,उसकी खिलखिलाहट और दर्द दोनों की कथा मेरी....उसके बदन को छू कर गुजरी हर हवा मेरी.....उसकी सांस मेरी,उसकी आस मेरी....उसके थरथराते होठों के पलाश मेरे,उसकी आँखों के समंदर की तलाश मेरी...उसके दिल में धड़कन मेरी ,उसकी जुल्फों में उलझन मेरी.....वो है तो मैं हूँ जिंदा....उसकी जिंदगी की हर चुभन मेरी...मुझे वो सब लौटा दो जो वो छोड़ गयी थी कुछ साल पहले मेरी ही तलाश में भटकती हुयी यहाँ.....तुम हो ,तुम्हारा ख्याल है और खिली कनेर के फूल सी धुप है....मेरी आँखों में बंद तुम्हारा बस तुम्हारा ही अप्रतिम रूप है....
- नीहार
बुधवार, 10 नवंबर 2010
कुछ खुशबु जैसी बातें....(१)
तब तक कुछ खुशबु जैसी बातें....कुछ उधरे हुए पल...कुछ अतीत का लिहाफ...और कुछ मन के सूने आँगन में उमर कर लरजते हुए बादल सी यादें...
मेरी हर सोच में तुम हो...हर रोच में तुम...मेरी हर कल्पना में तुम ही हो...मैं जो भी बुनता हूँ वह तुम्हारे ही यादों के धागों से बुना होता है...जो भी चित्र मैं उकेरता हूँ, उसमे रंग तुम्ही से भरता हूँ मैं...मेरी हर शाम पहाड़ से उतरती है बादलों की तरह जिनमे चांदनी के रंग से घुली होती हो तुम...मेरी हर सुबह तुम्हारी पलकों से चुरायी हुयी खुशबु को भर देती है फूलों में और वो खिल से जाते हैं...मेरा जंगल सा मन और देवदार सरीखे वृक्षों की श्रेणी....तुम्हारे साथ से जैसे बोलने लगे हों...गाने लगे हों...उनमे से गुज़रती हुयी हवा मुझे सदायें देती हैं....मुझे पास बुलाती हैं...एक सुरीली सी आवाज़ मुझे कहती है....जाएँ तो जाएँ कहाँ....
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तुम्हारी याद है की नशे की तरह मुझ पर छाई रहती है...मैं जो भी पढता हूँ, वहां हर हर्फ़ किताबों के पन्नो से उठकर तुम्हारा अक्स बन जाता है और फिर मेरी आँखों के सामने नाचने लगता है। मैं जो भी लिखता हूँ उनमे तुम ख्वाब के हकीकत की तरह शामिल हो जाती हो...तुम हो , तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है....
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जानती हो, मैं तुम्हे अजंता की भित्तियों मे ढूंढता हूँ...खुसरो की रुबाईयों मे ढूंढता हूँ...चांदनी की बिखरी किरणों मे ढूंढता हूँ...मंदिर मे महकते हुए लोबान की खुशबु मे ढूंढता हूँ....मैं तुम्हे जंगल, पहाड़, वन,फूल,वृक्ष,नदी,आकाश,धरती,समंदर,चाँद,सूरज,धनक,बादल और न जाने कहाँ कहाँ ढूंढता हूँ...मैं तुम्हे हर जगह,हर समय,हर तरफ, हर तरह से ढूंढता हूँ...और पाता हूँ तुम्हे अपने दिल की गहराईयों मे....तुम मेरे दिल मे हो।
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जानती हो राधिके, बस दो आँखें हैं कँवल जैसी, जिनमे लहराता हुआ सागर का विस्तार है...कपोलों की थरथराहट मे मदिरा का शुमार है....पाकीज़ा चाँद से चेहरे से बरसती चांदनी की धार....ये ही हैं मेरे सपने और यही मेरा संसार।
एक मुस्कुराती सी सुबह...एक खिलखिलाता सा दिन...एक मदहोश सी शाम और एक कसमसाती हुयी रात...ये सब मिल कर मेरे जीवन मे प्यार की बरसात करती हैं....तुम हो , तुम्हारा ख्याल है और चाँद रात है...मैं हूँ, मेरी आँखें हैं और आंसुओं की बरसात है।
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रविवार, 26 सितंबर 2010
तुम
गुरुवार, 23 सितंबर 2010
उसने मुझको ख़त लिखा था ....
और उसमे लिखा था आने को ।
वो नील गगन की चाँद सरीखी,
बन जाती मुझे ललचाने को।
जब झम झम बारिश होती है,
तब मन मेरा करता गाने को।
उनको अपने भीतर रख लूँ,
मन करता मेरा उन्हें पाने को।
बर्फ सा पिघला जाता हूँ मैं जब
सूरज आता है मुझे जलाने को।
मैं टुकड़े टुकड़े कट कट जाता ,
तन्हाई जब मुझे आती खाने को।
मैं नीहार बन जब बिखर सा जाता ,
वो पलकों पे आती उसे उठाने को।
- नीहार
बुधवार, 22 सितंबर 2010
सीप बन कर उसन मुझे सागर किया होगा.
सीप बन कर उसने मुझे सागर किया होगा।
मैं नशे में झूमता रहता हूँ रात दिन ऐ दोस्त ,
शायद मैंने उसकी आँखों से मय पिया होगा।
फूल फूल पे 'नीहार' बन कर बिखर गयी है वो,
मैंने हौले से जो उनको छू के हिला दिया होगा।
खुदा मुझसे नाराज रहता है आज कल शायद,
मैंने उनको जो 'खुदा' का दर्ज़ा दे दिया होगा।
वो बारिश सा तापस में मेरे मन को भिंगो दे,
मैंने प्यार से बर्फ को जो पिघला दिया होगा।
जो छू लिया उनको तो हो गया मैं पारिजात,
खुशबु सा उनपर खुद को मैंने लुटा दिया होगा।
-नीहार
शनिवार, 4 सितंबर 2010
गं गणपतये नमः
शुक्रवार, 3 सितंबर 2010
ओउम श्री प्रभु नेताय नमः
गुरुवार, 2 सितंबर 2010
कुछ चित्र कुछ विचार
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"वह लड़ता रहा ,
समय से -
और कभी ना
जीता -
और इसलिए वह,
असमय ही -
बूढा हो गया।
लड़ते लड़ते वह ,
अपना अर्थ खो गया।"
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रविवार, 29 अगस्त 2010
ख्याल और उनसे उभरते चंद सवालात
यूँ ही ख्याल आता है मुझको की जो तू मेरा कुछ भी नहीं तो फिर आँखें तुम्हे हर जगह तलाशती क्यूँ हैं,क्यूँ पत्तों की सरसराहट में मुझे तुम्हारे क़दमों की चाप सुनायी देती है,क्यूँ शाम के आईने में मुझे तुम्हारा अक्श चाँद सा उभरता दिखाई देता है....क्यूँ तुम्हारे साँसों की खुशबु मेरे इर्द गिर्द बुनती है एक घेरा जो मुझे हर वक़्त किसी मंदिर में जल रहे लोबान की खुशबु का एहसास कराती है....
एक निःशब्द आवाज़ है जो मुझसे कहती है की कहीं हो तुम मेरे आस पास , खिलखिलाती धुप सी....मचलती सागर की लहरों सी....बरसती सावन की बूंदों सी....उमरती घटाओं सी....हर वक़्त मेरे आस पास हो तुम...मुझमे ही कहीं हो गुम।.....
तुम्हारी सुगबुगाहट में मुझे सूरज के निकलने का अन्देशा होता है....तुमहारी जुल्फें जब बिखरती हैं तो शाम उतर आती है....तुम्हारी आँखों की पुतलियाँ जब नृत्य करती हैं तो मेरे दिल की धडकनों में संगीत के सुर सजाती हैं.....बस जो तुम हो तो सब है....जो तुम नहीं तो कुछ भी नहीं।
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अपने आप से अपेक्षाएं रखना बुरी बात नहीं, पर शायद उनका पूरा न होना कहीं तोड़ता है भीतर ही भीतर....शनैः शनैः ....आदमी का मेरुदंड धीरे धीरे गलत जाता है....उसका खुद पर से विश्वास कह्तं होता सा जाता है और वह हो जाता है गूंथे हुए आटे की माफिक , जिसे जो जैसा चाहे वैसा रूप देकर, नाम देकर , पका डालता है वक़्त के गर्म तवे पर.....अपने ही हिसाब से।
इसलिए अपेक्षाएं रक्खे बिना ही जीना ज्यादा अच्छा है। न तो मेरुदंड गलता है ... न ही विश्वास ख़त्म होता है खुद पर से , और न ही वह आदमी गूंथे हुए आटे में तब्दील हो जाता है।पर ऐसा नहीं होता...आदमी तो आदमी ही है...खुद से वह अपेक्षाएं रक्खेगा ही....प्रयासरत रहेगा ही और एक मकड़ी की तरह धीरे धीरे ऊपर चढ़ेगा ही...जाल बुनेगा ही।
और....फिर एक दिन ....इतनी मिहनत और मशक्कत के बाद जब वह मकड़ी नुमा आदमी अपने फैलाये मकड़ जाले में जब चैन की नींद सो रहा होगा , तो सदियों से इंतज़ार करते किसी गिरगिट(काल) की लपलपाती जिह्वा के गोंद्जाल से चिपक उदरस्थ हो जाता है वह अदना सा आदमी।
मुझको जला के खुशबु की वो बारिश सा कर गया
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
प्रश्न और उत्तर
यूँ सपने पकड़ना बुरी बात नहीं - पर,
असफल होने पर रोना या दुखी होना बुरी बात है।
मैंने बचपन से अपने तसव्वुर में कई सपने पाल रक्खे थे...
कुछ रंगीन... कुछ सफ़ेद... कुछ गीले...कुछ सूखे...
जवानी का सूरज चढ़ता गया - सपनो की बर्फ गलती गयी।
पर मुझे न तकलीफ होना था... न हुआ।
मुझे लगा ही नहीं की दुक्खों ने मुझे छुआ।
मुझे सदा ये लगता रहा की दुःख मुझे माँज रहे हैं,
या - फिर मैं ही दुक्खों को माँज रहा हूँ।
पर, शायद मैं यह नहीं जान पाया
की -
मांजने और मंज्वाने की इस क्रिया प्रक्रिया में -
कहीं न कहीं मैं -
भीतर से दरक रहा था - टूट रहा था।
मेरा संग खुद से ही छूट रहा था।
और, अचानक जब दर्द की एक लहर - मुझे सर से पाँव तक चीर गयी
तो लगा -
कि इन सबसे मुक्ति पाने की कगार पर हूँ -
मुक्ति?
और किस से ?
प्रश्न बहुत सारे हो सकते हैं - और उत्तर भी।
उत्तर मेरे प्रश्नों को बहरा कर सकते हैं- या,
मेरे प्रश्न - उत्तरों को नंगा कर सकते हैं।
पर, सच तो यही है - कि,
चाहे प्रश्न कि जीत हो या उत्तर की ,
दरकेगा - कसकेगा - रिसेगा ,
मेरा ही कोई कोना - मेरे ही अन्तः का कोई एक भाग।
और, इसलिए अपने को हार जीत की सीमा से ,
परे मैं रखता हूँ और रखना चाहता हूँ।
और ,
इस कोशिश में -
कुछ न कुछ - कहीं न कहीं से दरकता हूँ।
टूटता हूँ - छूटता हूँ - खुद ही खुद को लूटता हूँ।
रविवार, 22 अगस्त 2010
कुछ उदगार
मुझे तो लगता है की व्यक्ति और व्यक्ति - परक सोचों से हर व्यक्ति को - या व्यक्ति विशेष को मतभेद होना स्वाभाविक है। तो क्या मतभेदों की वजह से या उनके कारण रिश्तों का अस्तित्व खत्म हो जाए। कभी नहीं - रिश्ते जितने मुलायम होते हैं - रिश्तों की नींव उस से भी ज्यादा मजबूत होनी चाहिए।
- पर पता नहीं क्यूँ - सारे प्रश्न अधूरे होते हैं - उत्तर भी होते हैं - पर अधूरे ही। - रिश्ते भी अधूरे ही रह जाते हैं शायद - पूर्णता की हद किसने जानी है?
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प्रश्न और उत्तर ? समस्या और समाधान ? - बहुत बडी उलझनें हैं। अस्तित्वहीनता के बोझ से दब जाता हूँ - डर जाता हूँ और फिर उस डर से उबरने की कोशिश में लड़खड़ा भी जाता हूँ। कुछ नहीं सूझता - मन भटकता रहता है , जंगल आकाश वन .... भागता रहता है मीलों नंगे पाँव ,रेत - पानी - कंकडों के ऊपर - नंगे पाँव - लहूलुहान पाँव से भागता मन थक सा जाता है - दूर कहीं शायद कोई बोलता है - अभी तो शुरुआत है - और मन की आँखें भर आती हैं - मन रोता है... शांति खोता है.... सो जाना चाहता है थक कर - आराम से - वो नींद जहाँ जगने की नौबत ही न आये...
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कभी कभी मन अजीब से दहशतों की कैद हो जाता है। अगर मैं जो तेरा कुछ भी नहीं- तो ......!!!!पूरा अस्तित्व हवा हो जाता है - जिस्म में किरचें खराश सी उग आती हैं...जीस्त को ये एहसास छेद डालते हैं। ..... कितना बेबुनियादी है ये एहसास - पर बेबुनियादी क्यूँ?.....जिंदगी के फैसले आप से आप नहीं होते - उनकी धाराओं को समयानुसार मोड़ने की ताकत हमारे बाजुओं में होनी चाहिए - पर 'गर बाजू ही न हों? या हों भी तो मजबूत न हों...या मजबूत हों तो टूट गए हों....तो ये सारे डर एक साथ मिलकर मेरी मानसिकता पर सर्प का दंश करते हैं ...... कहाँ हो त्रिलोचन? क्यूँ नहीं पी लेते सारा विष मेरे मानस का और कर देते मुझे विषमुक्त? आ जाओ त्रिलोचन और इस नागदंश से मुझे मुक्त तो करो।
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कभी कभी मुझे ऐसा लगता है की मैं एक ऐसे अंधे मोड़ पर खड़ा हूँ , जहाँ सिवाय मौत के और कोई रास्ता नहीं खुद के बचाव का.....अकेलापन ....ठंडी चेतना को जड़ बनता है,मन को ताप दे तन को साध जाता है - यही अकेलापन है जो मुझे सर से पाँव तक या पाँव से सर तक , निःशब्द काटता है....धीरे धीरे ....जैसे सूखी लकड़ी को टुकड़ों में बांटती आरा मशीन।
यह अकेलापन का जो अभिशाप है- वह मेरे लिए ही है...सर्वथा मेरे लिए ....जंगल में रहूँ या भीड़ में ...अकेला ही रहना होता है। नियति ही यही है....इसे झेलना ही है....किसी न किसी तरह।
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शून्य का विकल्प क्या हो?ओर शून्य का प्रयोजन क्या है? क्या है आखिर इस शून्य का चरित्र?और क्या है इसका प्रारब्ध?.....सच पूछो तो इन अनुत्तरित प्रश्नों के दायरे के भीतर रह कर भी मैं - दायरे से बाहर हूँ - इसलिए नहीं की इस शून्यता को मैं नहीं झेलता, वरन इसकी तो मुझे आदत सी हो गयी है।
सोचता हूँ की जिस दिन धरती काँप उठेगी उसी क्षण हम सबको अपना सर लेकर भागना होगा, उस आकाश के नीचे, जो गिर चुका हो।
मैं तो हर उस जगह अपने आप को पाता हूँ जहाँ शून्यता का एहसास गाता है राग गान्धार और भीड़ की भीड़ मांदर की थाप पर राग भैरव की अहीरी तान सुनती है - ( नाराज तो नहीं हो कृष्ण?)...मन कैसे शांत हो ... मन की पीड़ा क्या वृथा है? ओर अगर है, तो फिर उसकी शान्ति का उपाय क्या है?
मृत्यु!!!!! शायद यही उत्तर हो....शायद.....
- नीहार
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सोमवार, 16 अगस्त 2010
बिखर जाता हूँ जब टूट के पत्तों पे मैं नीहार.......
तुम्हारी खिली सी हसीं हर पल मेरी पीडाओं को हरती हैं।
मैं सागर की लहरों सा हर पल बस साहिल से टकराता हूँ,
मैं चीड वनों की मदमाती सी झुंडों में बस गुम हो जाता हूँ,
मैं स्वप्न लोक में विचरण करता हूँ तुमको अपने संग लिए,
तेरी यादें फूलों सी मुझ पर फिर बिखर बिखर कर झरती हैं।
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मुक्त हो आकाश में मन मेरा कर रहा विचरण प्रिये,
सांझ की बेला में मैं करता नित पी का सुमिरन प्रिये।
चक्र है बस समय का जो चल रहा देखो पल पल प्रिये,
सांस तेरी घुल गयी है मुझमें जैसे घुली धड़कन प्रिये।
तुम खिली हुयी चांदनी बन छिटकी हुयी हो इस समय,
मैं हुआ विस्तृत तुझको समेटे जैसे हो नील गगन प्रिये।
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बिखर जाता हूँ जब टूट के पत्तों पे मैं 'नीहार' ,
कुछ लोग मोती समझ उठा लेते हैं मुझको।
लेते ही हाथों में जो हो जाता हूँ मैं बस पानी ,
फिर धीरे से हथेली से गिरा देते हैं मुझको।
मैं बादल बन भटकता रहा मन के गगन में,
कोई भी हवा अपने संग उड़ा लेती है मुझको।
मैं नदी की पवित्र धार सा बहता रहा अविरल,
वक़्त जहाँ चाहे वहां से मुड़ा देती है मुझको।
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-नीहार (जमशेदपुर , अगस्त १२)
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
बुधवार, 28 जुलाई 2010
स्वप्न फूल सा झर झर जाते,झरनों सा वो कल कल गाते
रविवार, 18 जुलाई 2010
मन बैरी सावन भया
सांस भाई लोबान सरीखी, जीवन भया अनूप।
मन गूंजे संगीत सदा , तन भया नाचता मोर,
धड़कन में है प्रिया बसी, जो करती रहती शोर।
पलक उठे तो सुबह सोना बन कर खिल जाती,
पलक झुके तो आ जाती है बिरहनी रात कठोर।
उन बिन जीवन मरू हुआ,ज्यूँ गरम रेत की ढेर,
तन बियाबान जंगल बना,मन भया आदमखोर।
मन लिपटा उनसे इस तरह ,जैसे चन्दन से हो सर्प ,
हर घडी सोचे उनको ही ,उन बिन कहीं नहीं है ठौर।
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अधर धरत हैं अधर पे,और अमृत रस हैं पीत,
भ्रमर सलोना श्याम करे ,राधा पुष्प से प्रीत।
मन जब से मंदिर हुआ, मंत्र हुआ सब भाव,
जो राधा राधा रट लिया,भर जाए मन के घाव।
मन तडपे राधा दरस को,तन होय दहकती आग,
श्याम रचाते रास जब, मन खेले रंग संग फाग।
तन जैसे ब्रिन्दावन हुआ, मन जैसे ब्रज की धूल,
सोच हुआ यमुना तट पे, खिला कदम्ब का फूल।
मन के अन्दर बज रहा, ज्यूँ घड़ी घंट घड़ियाल,
इन्द्रियां हुयी राधा समान , देती बंशी धुन पर ताल।
सांस हुयी है बावरी, कभी इत और कभी उत जाए,
श्याम बंशी की धुन पर ज्यूँ प्यारी राधा बहकी जाए।
-नीहार
बुधवार, 14 जुलाई 2010
कुछ बात करो मुझसे तुम.....एवं कुछ अन्य रचनाएं
शुक्रवार, 25 जून 2010
मैं हवा हूँ चन्दन में घुला जाता हूँ
बहता हूँ तो जगतों को सुला जाता हूँ।
वक़्त ने मुझको बनाया है कुछ ऐसा ,
की आँख में चुभता हूँ तो रुला जाता हूँ।
मन करता है तो बदली को उड़ा देता हूँ,
मन हो तो फिर मैं उसको बुला लेता हूँ।
बारिश की बूँदें जब भिगो देती है मन को,
में ख्याल बन के सावन में झुला देता हूँ।
सोमवार, 31 मई 2010
गनीमत है की दिन के बाद रात होती है
गनीमत है की दिन के बाद रात होती है,
उनसे कुछ पल ही सही मेरी बात होती है।
ख्वाब में ही दिखते हैं आजकल वो अक्सर ,
उनसे यूँ ही हर दिन मेरी मुलाकात होती है।
भींगी जुल्फों को जब भी जोर से झटकती हैं
मेरे घर बिन बादल ही फिर बरसात होती है।
उनसे मिलता हूँ तो बातें चेहरे पे आ जाती हैं,
वो भी मुझसे मिल कर खुली किताब होती है।
मेरे हाथों में जब भी वो चाँद बन उतर आता है,
ज़िन्दगी मेरी तब सबसे ज्यादा नायाब होती है।
रविवार, 18 अप्रैल 2010
खामोश दर्द
चुप चुप रह कर चुपके चुपके,घुल घुल कर मर जाए है।
हूक सी उठती है दिल में तो आँखें खून रुलाती हैं,
प्यास अगर जन्मों की हो तो प्यासी ही रह जाती है,
समझ के सब कुछ भी न समझे,न समझ के भी समझाए है।
कांच के किरचों सी आँखों में तन्हाई भी चुभती है,
जीवन रेख के अगल बगल से मृत्यु रेख उभरती है,
मर के भी हम जिंदा होते हैं, और जिंदा ही फिर मर जाए है।
गीली लकड़ी की तरह हम अन्दर अन्दर धधक रहे,
कमरे के एकांत में हम तो घुट घुट कर हैं फफक रहे,
धुआं धुआं हुआ मेरा अतीत है, और अब भविष्य भी धुधुआये है।
-नीहार
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तुम -
कर्म जीवी
साध्वी नारी हो
मैं रूप भोग्य धरा
से चिपका एक प्रेत हूँ
बंद मुट्ठी से सरकती रेत हूँ।
तुम अपने बहिश्त में खुश हो
मैं अपने जहन्नुम में खुश
ख़ुशी ही सच्ची है
बाकि सब तो
सिर्फ झूठ
है।
-नीहार
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( ये दोनों कवितायेँ मेरी प्रयोगवादी कविताओं की कड़ी में ही १९८८ से १९९० के बीच लिखी गयी थी। )
रविवार, 11 अप्रैल 2010
तुम्हारे लिए
रात चाँद बन उतरे अंखियन ,सूरज पलकन पे है जागे।
तेरे अलकों में बंध कर हम , खोज रहे हैं खुद को कब से,
तेरे स्नेह में पिरो गए हम , जैसे पिरोई हो सूई में धागे।
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एक गुडिया मुझसे है कहती , क्यूँ इतने अच्छे हो तुम,
मैं कहता मैं अच्छा हूँ क्यूंकि, तुम मुझमे हो गयी हो गुम।
तुम सर्दी की धूप सुनहरी , तुम तापस की शीतल छांह ,
मृगछौनो सी चंचल चपला और खरहों सी निर्मल हो तुम।
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ज़िन्दगी मेरी कुछ इस तरह गुज़र जाए,
की मैं गीत लिखता रहूँ और वो गुनगुनाये।
जहाँ जहाँ भी पड़े उनके इस पाँव धरती पर ,
फूल ही फूल उस जगह पे जैसे खिल जाए।
बिन पिए ही हरदम नशे में रहते हैं हम यारब ,
उनके बदन की खुशबु हर सू बिखर बिखर जाए।
उनकी मुस्कराहट जैसे बच्चे की हो मासुमिअत,
उनका क्रंदन जैसे आकाश को भी रुला रुला जाए।
उनकी जुल्फों में छिप जाती है सावन की बदलियाँ ,
उनके होठों से गुलाब अपनी रंगत चुरा चुरा लाये।
उनकी आवाज़ जैसे बज रही हो मंदिर की घंटियाँ,
कोयल भी उनके सुर में हर सुबह है सुर मिलाये।
मैं सूरज बन कर जब भी उनपे छाता हूँ ऐ दोस्त ,
वो चाँद बन कर मेरे घर आँगन निखर निखर जाए।
-नीहार
सूरज जम कर बर्फ हो गया........
शाम हो रही धीरे धीरे , है डूबा सूरज नदी के तीरे।
धुंआ धुंआ जैसे अतीत को देख रहा वह आँखें मीडे।
हीरे को समझा है पत्थर, पत्थर को समझा है हीरे।
आदमी के जंगल में हम तो, रेंग रहे हैं बन कर कीड़े।
प्रगति उतर आयी कागज़ पर, जनता की हुयी दुर्गति रे।
लाशों की ढेर पर बैठे हम सब, बजा रहे हैं ढोल मजीरे।
दहेज़ की आग में जलने को, दुल्हन बैठी सही धजी रे।
पक्ष विपक्ष सब एक पेट हैं, हमारी तो मारी गयी मति रे।
फिर चुनाव के दिन में देखो, वही पुरानी धुन है बजी रे।
नेता से जनता की विनती, हमरी गर्दन काटो धीरे धीरे।
सूरज जम कर बर्फ हो गया,चांदनी देखो पिघल गयी रे।
-नीहार
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साज़े सजन लागै ,बाजे बजन लागै ,
सुनी सुनी सुनी लै, हमरी गुहरिया ।
राजे राजन लागै, लाजे लाजन लागै,
फिरि फिरि फिरि है देश की पतुरिया।
नाचे नचन लागै, राचे रचन लागै,
पीसी पीसी पीसी है गरीब औ गरिबिया।
त्याजे त्यजन लागै,माँजे मजन लागै,
फूटी फूटी फूटी है देश की किस्मतिया।
ताड़ै ताडन लागै, फाड़े फाडन लागै ,
ढाँपि ढाँपि ढाँपि दे देश की इज्जतिया।
तालै तलन लागै ,हाथे हथन लागै ,
धीमी धीमी धीमी बजे देश की ढोलकिया।
रोते रोवन लागै,सोते सोवन लागै,
हंसी हंसी हंसी रे, टाली दे सब बतिया।
देश चूल्हे में जाए,कोई लूटे कोई खाए,
अपनी तो बीनी है, झीनी रे चदरिया।
-नीहार
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शनिवार, 10 अप्रैल 2010
कविता की प्रासंगिकता
पर यह सच है - और, मैं इससे अच्छी तरह वाकिफ हूँ,
की मेरी कविता -शब्दों की नंगी दौड़ नहीं है।
यह सिर्फ 'खुलेपन' को फैशन के तौर पर नहीं देखती,
वरन जीती है उस अहसास को खुलकर।
मेरी कविताओं की अपनी प्रासंगिकता है - अपनी सार्थकता है,
अपना रंग है, अपना ढंग है, अपना रूप है।
और कुछ भी नहीं तो -
मेरी कविता आज के युगबोध की सुनहरी धूप है।
मैं जो भी लिखता हूँ - दिल की गहराई से लिखता हूँ,
और भोगे हुए यथार्थ को -
कागज़ के सफ़ेद सफ़ेद पन्नों पर,
दिल के लाल लाल खून से चित्रित करता हूँ -
यह जानते हुए भी की,
यथार्थ या सच कड़वा होता है,
जो गले के नीचे जल्दी नहीं उतरता,
और इसलिए मैं , अपनी कविता को माध्यम बनता हूँ,
वह सब लिखने के लिए,
जिसकी प्रासंगिकता अछूती है।
मैं - शब्दों के व्यामोह में नहीं फंसता, मैं - अर्थों के दिशाभ्रम में नहीं उलझता।
मैं - खुद को उस चक्रव्यूह में ले जाता हूँ - जहाँ ,
व्यक्त करने की कला अर्थवान हो जाती है, और-
अपने को अपने को हर रूप में उद्भाषित पाती है।
मेरे मन में जो भी ईंट - पानी - आग - धतूरा आता है,
सब का सब मेरी कविता में अपनी जगह पाता है।
मेरी कवितायेँ "सोफिस्तिकेटेड ट्रेंड" से जुडी नहीं होती हैं -
इसलिए कहीं सीधी और कहीं अष्टावक्र की तरह मुड़ी होती हैं।
कवितायेँ मेरे द्वारा जीवन में खाई गयी ठेस हैं -
सीधी हैं , सच्ची हैं यानी बिलकुल भदेस हैं।
मैं जब भी किसी बच्चे को मुस्कुराता देखता हूँ,
मुझे भविष्य की सुनहरी झांकी नज़र आती है।
जब भी किसी बूढ़े की खांसी सुनता हूँ,
भय से ग्रसित हो काँप जाता हूँ।
जब भी किसी कमसिन/हसीं लड़की की आँखों में,
सुनहरे ख्वाब ठाठें मारते देखता हूँ,
खुद को हैरान , परेशान पाता हूँ ।
मैं - यानी मैं, हर घडी अपने होने का एहसास भोगता हूँ।
हर लम्हे को पूरा का पूरा जीता हूँ,
और समय से अलग हुए टुकड़े को ,
टुकड़े टुकड़े सीता हूँ ।
मेरी कवितायें मेरा भोग हुआ यथार्थ हैं,
और, यथार्थ कभी नश्वर नहीं होता।
मैं भोगे यथार्थ में जीता हूँ, यानि सच को जीता हूँ।
खुद ही कविता लिखता हूँ , खुद ही कविता पढता हूँ,
खुद को मनुष्य के रूप में गढता हूँ।
-neehar