अपने विषय में क्या कहूँ....लिखना मुझे अच्छा लगता है...लिखता हूँ क्यूंकि जीता हूँ...
रविवार, 18 अप्रैल 2010
खामोश दर्द
चुप चुप रह कर चुपके चुपके,घुल घुल कर मर जाए है।
हूक सी उठती है दिल में तो आँखें खून रुलाती हैं,
प्यास अगर जन्मों की हो तो प्यासी ही रह जाती है,
समझ के सब कुछ भी न समझे,न समझ के भी समझाए है।
कांच के किरचों सी आँखों में तन्हाई भी चुभती है,
जीवन रेख के अगल बगल से मृत्यु रेख उभरती है,
मर के भी हम जिंदा होते हैं, और जिंदा ही फिर मर जाए है।
गीली लकड़ी की तरह हम अन्दर अन्दर धधक रहे,
कमरे के एकांत में हम तो घुट घुट कर हैं फफक रहे,
धुआं धुआं हुआ मेरा अतीत है, और अब भविष्य भी धुधुआये है।
-नीहार
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तुम -
कर्म जीवी
साध्वी नारी हो
मैं रूप भोग्य धरा
से चिपका एक प्रेत हूँ
बंद मुट्ठी से सरकती रेत हूँ।
तुम अपने बहिश्त में खुश हो
मैं अपने जहन्नुम में खुश
ख़ुशी ही सच्ची है
बाकि सब तो
सिर्फ झूठ
है।
-नीहार
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( ये दोनों कवितायेँ मेरी प्रयोगवादी कविताओं की कड़ी में ही १९८८ से १९९० के बीच लिखी गयी थी। )
रविवार, 11 अप्रैल 2010
तुम्हारे लिए
रात चाँद बन उतरे अंखियन ,सूरज पलकन पे है जागे।
तेरे अलकों में बंध कर हम , खोज रहे हैं खुद को कब से,
तेरे स्नेह में पिरो गए हम , जैसे पिरोई हो सूई में धागे।
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एक गुडिया मुझसे है कहती , क्यूँ इतने अच्छे हो तुम,
मैं कहता मैं अच्छा हूँ क्यूंकि, तुम मुझमे हो गयी हो गुम।
तुम सर्दी की धूप सुनहरी , तुम तापस की शीतल छांह ,
मृगछौनो सी चंचल चपला और खरहों सी निर्मल हो तुम।
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ज़िन्दगी मेरी कुछ इस तरह गुज़र जाए,
की मैं गीत लिखता रहूँ और वो गुनगुनाये।
जहाँ जहाँ भी पड़े उनके इस पाँव धरती पर ,
फूल ही फूल उस जगह पे जैसे खिल जाए।
बिन पिए ही हरदम नशे में रहते हैं हम यारब ,
उनके बदन की खुशबु हर सू बिखर बिखर जाए।
उनकी मुस्कराहट जैसे बच्चे की हो मासुमिअत,
उनका क्रंदन जैसे आकाश को भी रुला रुला जाए।
उनकी जुल्फों में छिप जाती है सावन की बदलियाँ ,
उनके होठों से गुलाब अपनी रंगत चुरा चुरा लाये।
उनकी आवाज़ जैसे बज रही हो मंदिर की घंटियाँ,
कोयल भी उनके सुर में हर सुबह है सुर मिलाये।
मैं सूरज बन कर जब भी उनपे छाता हूँ ऐ दोस्त ,
वो चाँद बन कर मेरे घर आँगन निखर निखर जाए।
-नीहार
सूरज जम कर बर्फ हो गया........
शाम हो रही धीरे धीरे , है डूबा सूरज नदी के तीरे।
धुंआ धुंआ जैसे अतीत को देख रहा वह आँखें मीडे।
हीरे को समझा है पत्थर, पत्थर को समझा है हीरे।
आदमी के जंगल में हम तो, रेंग रहे हैं बन कर कीड़े।
प्रगति उतर आयी कागज़ पर, जनता की हुयी दुर्गति रे।
लाशों की ढेर पर बैठे हम सब, बजा रहे हैं ढोल मजीरे।
दहेज़ की आग में जलने को, दुल्हन बैठी सही धजी रे।
पक्ष विपक्ष सब एक पेट हैं, हमारी तो मारी गयी मति रे।
फिर चुनाव के दिन में देखो, वही पुरानी धुन है बजी रे।
नेता से जनता की विनती, हमरी गर्दन काटो धीरे धीरे।
सूरज जम कर बर्फ हो गया,चांदनी देखो पिघल गयी रे।
-नीहार
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साज़े सजन लागै ,बाजे बजन लागै ,
सुनी सुनी सुनी लै, हमरी गुहरिया ।
राजे राजन लागै, लाजे लाजन लागै,
फिरि फिरि फिरि है देश की पतुरिया।
नाचे नचन लागै, राचे रचन लागै,
पीसी पीसी पीसी है गरीब औ गरिबिया।
त्याजे त्यजन लागै,माँजे मजन लागै,
फूटी फूटी फूटी है देश की किस्मतिया।
ताड़ै ताडन लागै, फाड़े फाडन लागै ,
ढाँपि ढाँपि ढाँपि दे देश की इज्जतिया।
तालै तलन लागै ,हाथे हथन लागै ,
धीमी धीमी धीमी बजे देश की ढोलकिया।
रोते रोवन लागै,सोते सोवन लागै,
हंसी हंसी हंसी रे, टाली दे सब बतिया।
देश चूल्हे में जाए,कोई लूटे कोई खाए,
अपनी तो बीनी है, झीनी रे चदरिया।
-नीहार
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शनिवार, 10 अप्रैल 2010
कविता की प्रासंगिकता
पर यह सच है - और, मैं इससे अच्छी तरह वाकिफ हूँ,
की मेरी कविता -शब्दों की नंगी दौड़ नहीं है।
यह सिर्फ 'खुलेपन' को फैशन के तौर पर नहीं देखती,
वरन जीती है उस अहसास को खुलकर।
मेरी कविताओं की अपनी प्रासंगिकता है - अपनी सार्थकता है,
अपना रंग है, अपना ढंग है, अपना रूप है।
और कुछ भी नहीं तो -
मेरी कविता आज के युगबोध की सुनहरी धूप है।
मैं जो भी लिखता हूँ - दिल की गहराई से लिखता हूँ,
और भोगे हुए यथार्थ को -
कागज़ के सफ़ेद सफ़ेद पन्नों पर,
दिल के लाल लाल खून से चित्रित करता हूँ -
यह जानते हुए भी की,
यथार्थ या सच कड़वा होता है,
जो गले के नीचे जल्दी नहीं उतरता,
और इसलिए मैं , अपनी कविता को माध्यम बनता हूँ,
वह सब लिखने के लिए,
जिसकी प्रासंगिकता अछूती है।
मैं - शब्दों के व्यामोह में नहीं फंसता, मैं - अर्थों के दिशाभ्रम में नहीं उलझता।
मैं - खुद को उस चक्रव्यूह में ले जाता हूँ - जहाँ ,
व्यक्त करने की कला अर्थवान हो जाती है, और-
अपने को अपने को हर रूप में उद्भाषित पाती है।
मेरे मन में जो भी ईंट - पानी - आग - धतूरा आता है,
सब का सब मेरी कविता में अपनी जगह पाता है।
मेरी कवितायेँ "सोफिस्तिकेटेड ट्रेंड" से जुडी नहीं होती हैं -
इसलिए कहीं सीधी और कहीं अष्टावक्र की तरह मुड़ी होती हैं।
कवितायेँ मेरे द्वारा जीवन में खाई गयी ठेस हैं -
सीधी हैं , सच्ची हैं यानी बिलकुल भदेस हैं।
मैं जब भी किसी बच्चे को मुस्कुराता देखता हूँ,
मुझे भविष्य की सुनहरी झांकी नज़र आती है।
जब भी किसी बूढ़े की खांसी सुनता हूँ,
भय से ग्रसित हो काँप जाता हूँ।
जब भी किसी कमसिन/हसीं लड़की की आँखों में,
सुनहरे ख्वाब ठाठें मारते देखता हूँ,
खुद को हैरान , परेशान पाता हूँ ।
मैं - यानी मैं, हर घडी अपने होने का एहसास भोगता हूँ।
हर लम्हे को पूरा का पूरा जीता हूँ,
और समय से अलग हुए टुकड़े को ,
टुकड़े टुकड़े सीता हूँ ।
मेरी कवितायें मेरा भोग हुआ यथार्थ हैं,
और, यथार्थ कभी नश्वर नहीं होता।
मैं भोगे यथार्थ में जीता हूँ, यानि सच को जीता हूँ।
खुद ही कविता लिखता हूँ , खुद ही कविता पढता हूँ,
खुद को मनुष्य के रूप में गढता हूँ।
-neehar
शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010
खामोश अदालत अभी जारी है
आज की रात बहुत ही भारी है, मेरी गर्दन है और उनकी आरी है।
बोया था फूलों का बीज हमने , जो उगी है वो कैक्टस की झारी है।
गरीबी, भूख ,हिंसा बढ़ रही, देश की कागज़ी प्रगति फिर भी जारी है।
डब्बे में बंद लोग बढ़ते जा रहे हैं, ढलान पर इस देश की गाडी है।
हर जगह विज्ञापनों का शोर है, साडी में नर है और पैंट में सजी नारी है।
बाढ़ और सूखे के दौर में हम सबने , जीत कर भी अपनी बाज़ी हारी है।
कुछ लोगों को कल मौत आयी थी, आज न जाने आयी किसकी बारी है।
खाने को मिलता कुछ भी नहीं यहाँ, आश्वासन खाना सबकी लाचारी है।
लोगों की भीड़ ज्यूँ ज्यूँ बढ़ रही , बढती हुयी यहाँ गरीबी है और बेकारी है।
वो जो लड़की कल गहनों से लदी थी ,उसके तन पे आज सिकुड़ी साडी है।
भूख और गरीबी से अगर बच गए,तो निगलने को तैयार फिर महामारी है।
समस्याएँ गंभीर होती जा रही हैं,आगे पहाड़ है और पीछे अंधी खाड़ी है।
आशा की किरण कहीं भी नहीं दिख रही ,रौशनी ने अँधेरे से जंग हारी है।
कान बहरे हो गए हैं सबके लेकिन, नेताओं का भाषण अभी भी जारी है।
प्रजातंत्रात्मक शासन में बिचारी जनता, नेताओं की कसी सवारी है।
न्याय मांगो यहाँ तो कहा ये जाता है,खामोश अदालत अभी भी जारी है।
देख समझ कर भी हम कहते कुछ नहीं,सांप छुछुंदर सी हालत हमारी है।
-नीहार
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
निरर्थकता का रिश्ता
मुझमें अनंत जिज्ञासा है।
लेकिन मैं जानता हूँ - की जब तुम,
उत्तर देने लगोगे - तो मेरे दोनों कान बहरे हो जायेंगे -
तुम्हारे समाधान कुछ भी नहीं दे पायेंगे मुझे।
जो भी खोजना है - जो भी पाना है -
जो भी घटाना है और बढ़ाना है -
सिर्फ अपने तरीके से - अपने आप।
* * * *
आँखें आधी मूँद कर देखो -
तो लगता है तमाम चीजें हैं बरकरार -
आपस में उलझती जा रही हैं, पर -
टूटती फूटती नहीं।
एकाएक वर्तमान नुकीला हो अतीत को खोदने लगता है।
एक धुंध सी बहार - भीतर मंडराती है,
लेकिन -
कुछ होता नहीं - कुछ भी नहीं।
* * * *
जिंदगी भर आदमी -
अपने ही बंद दरवाज़े खोलता है,
और,
खोलकर देखता हुआ थकता है।
दूसरों के लिए अजूबा या निरर्थक -
किन्तु -
यह निरर्थकता का रिश्ता ही वास्तविक है -
जो बदलता नहीं।
- नीहार
शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010
उनके जाने से मौसम रंगत बदल रहा है.
गुरुवार, 1 अप्रैल 2010
मैं और मेरा एहसास.....
एक दिन राख हो जाऊँगा श्मशान में -
या, गाड दिया जाऊँगा कब्रिस्तान में -
या, किसी ऊंची मीनार पे रख दिया जाऊँगा,
ताकि मरने के बाद भी मैं काम आ सकूँ,
उन पक्षियों के , जो मुझे पचा सकें।
पर, -
फिर भी, मैं जीवित रहूँगा -
एक एहसास बन, उन दिलों में -
जिन्हें मैंने प्यार किया था।
एक अलफ़ाज़ बन, उन होठों पे -
जिन्हें मैंने चूमा था।
यादगार बन , उन फिजाओं में -
जहाँ मेरी सांस घुला करती थी -
और(याद बन) घुलती रहेगी।
दुनिया पहले भी बसती थी-
अब भी बसती है -
और, कल भी बसेगी।
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शून्य हूँ - या कुछ और -
कह नहीं पाता।
मन ही मन रह जाता है अव्यक्त -
कुछ कुछ /कुछ न कुछ
जो भरा था - कब भरा था?
जो हरा था - कब हरा था?
पर जो डरा था - अब भी डरा है।
मन है की अब भी मारता है ठाठें,
तोड़ता है वह बाँधें -
कहता है क्यूँ बाँधें वह खुद को -
क्यूँ सहमे वह खुद से -
क्यूँ सहे वह अपना प्रहार / अपने से हार।
चुक जाऊँगा मैं / फुँक जाऊँगा मैं -
धीरे धीरे - आँखें मीडे -
चलते चलते रुक जाऊँगा मैं।
रुक जायेगी तब ये धरित्री -
रुक जायेगी चलती हवा भी -
रुक जाएगा सब चल अचल।
देह का पिंजर पड़ा सोता रहेगा ।
अश्रु अमृत चरण को धोता रहेगा। ।
और रहेगा शब्द होता - निःशब्द सा।
पारा पारा रात चांदी हो रहेगी।
स्वप्न आँखों में चुबे जो अश्रु बन कर,
धरती पर गिरते ही वो आग होंगे।
मूक मेरे स्वर कभी तो एक दिन,
किसी गन्धर्व या जोशी के गले के राग होंगे।
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मेरे भीतर एक स्वर्ग है -
और बाहर एक नरक का विस्तार।
दोनों के बीच एक मजबूत दरवाज़ा है -
मैं, उस दरवाज़े की चौखट पे खड़ा ,
स्वर्गी आनंद में आकंठ डूब -
नार्किक सौंदर्य का दृश्यावलोकन कर रहा हूँ।
और इसी अवस्था में -
ना जाने कब,मेरे पाँव दरवाज़ा पार कर -
अपनी स्वर्ग सी दुनिया से बाहर आ जाते हैं।
सच - स्वर्ग के बंद घटते एकांत से,
बेहतर है - भली है - नरक की खुली हवा।
-नीहार