मंगलवार, 9 सितंबर 2014

गज़ल

दर्द जब हद से गुजर जाता है,
आँख में बादल उतर आता है।

मुसाफिर है नहीं बसर उसका,
थक जाता है तो घर जाता है ।

उसकी आँखों में झाँक देखो,
लहराता समंदर नजर आता है।

धूप में तप के सोना हो गया,
इस तरह वो निखर जाता है ।

हरसिंगार सा है खिला लेकिन,
हल्के हवा में भी झड़ जाता है।

दिन में सूरज सा जीता लेकिन,
शाम होते ही वो मर जाता है ।
- नीहार

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

गजल

गुनगनाती शाम तू मेरा पता न पूछा कर,
मैं वहीं होता हूँ जहाँ चाँद की परछाँई है ।

अब तो तालाब का पानी भी उफन पड़ा,
उसने अपने चेहरे से जुल्फ जो हटायी है।

आज मौसम फिर से गरम हो गया लगता,
आज मेरी बाँहों में वो फिर सिमट आयी है।

सुर्ख लब,नमनाक आँखें और ये घने गेसू 
ये सब हैं मेरे खयाल में और मेरी तन्हाई है।

मैं निभाता हूँ हर रिश्ते को बड़ी संजीदगी से,
फिर भी लोग कहते हैं कि ये बड़ा सौदायी है।

आज कई साल बाद है भींग गयी मेरी आँखें,
आज उसकी चिट्ठी मेरे हाथ फिर लग आयी है।

फिर खनकी है पाजेब उसकी रुनझुन रुनझुन,
सुना है मेरे ख्वाब में वो नंगे पाँव चली आई है।

सोने दो 'नीहार' को उसे तुम आज मत जगाओ,
सुना है कई साल के बाद उसे ये नींद आई है ।

- नीहार ( चंडीगढ़, २१ मार्च २०१४)


सोमवार, 14 अप्रैल 2014

गज़ल

इमारत तोड़ने की ये साजिशें हैं,
सियासत की यही तो रिवायतें हैं।

गरीब की आँख में तुम देख लो,
वहाँ भी उगी हुयी कुछ चाहतें हैं।

यहाँ हर इन्सान की किस्मत में ,
लिखी कुरान की कुछ आयतें हैं।

मैं  अधिकार की करता हूँ बातें,
तुम कहते हो कि ये शिकायतें हैं।

अपने दम बनने का भरम मत रख,
ये सब तेरे माँ बाप की इनायतें हैं।

आज भी हर जगह  हमारे देश में,
लड़कियों के लिये ही हिदायतें हैं।

- नीहार








शुक्रवार, 28 मार्च 2014

क्रांति बेला

मुटुठियाँ तन गयी हों,
तो फिर -
समझो क्रांति बेला आ गयी है ।
नसों में खून -
लगा है खौलने ...
अपने को दधीचि कर,
हड्डियाँ गलाने का समय आ गया है।
भूख पेट की,
और पेट से नीचे की-
मायने खो देती है ...
जो मायने रखता है,
वह है क्रांति की भूख ।
पर,
यह भूख लगती कब है -
और किसे ?
तनी हुयी मुट्ठी को खोल कर,
भीख के लिये -
उसे फैलाने की कोशिश -
हर शासन का पहला प्रयास होता है ।
और,
जिसकी मुट्ठी नहीं खुलती -
उसके पीछे ...
शासन के विषाक्त दंत वाले कुत्ते,
छोड़ दिये जाते हैं...
उसकी अंतड़ियों के नुच जाने तक ।
भागना होगा सिरफिरे सा..
क्यूँकि गोलियाँ लाश बना देती हैं,
और लाशें बोला नहीं करती ।
और क्रांति शब्दों से होती है -
गोलियों से नहीं ...
शब्द को जिन्दा रखने के लिये,
भाषा के कवच में,
भाव की जु़बान बचा के रखनी होगी ।
एक हुंकार काफी होती है,
हजारों गोलियों की गूँज को -
दबाने को .....
एक तनी हुयी मुट्ठी काफी है -
विद्रोह की हुंकार के लिये ।
तुम्हारी धधकती आँखें,
भस्माभूत कर देंगी सारे जंगल को ...
और अपने नंगेपन को लिये,
एक गाँव -
धुआँ पहन सोया रहेगा किसी सभ्यता के अवशेष सा।
यहाँ जागना मना है ...
साँकलें मत बजाओ घर की,
कोई दरवाजा नहीं खोलेगा -
यहाँ आवाजों पे भी पहरे लगे हैं ।
भूख से उपजी आग ही तुम्हारे काम आयेगी यहाँ,
सुलगने दो उस आग को -
जिसको बुझाने के लिये,
तुम्हें किसी अमीर की थाली -
झपटने का सामर्थ्य रखना होगा ।
जगाओ भूख क्यूँकि,
पेट के अंदर की आग,
दाँतों के बीच से निकले शब्दों को,
धारदार बनाती है -
जो मिटा देती है ,
हर शासक का वजूद...
इस आग को,
जलने दो।
शासन भूख की थाली में,
परोसेगा भीख की रोटी -
जो सिंकी होगी ,
राजनीति के चूल्हे पर चढ़े -
मककारी के तवे पर ।
मत खाना उसे -
तुम्हें उस आग में,
झुलसाना है उनका चेहरा -
और उसपर ओढ़ा गया नकाब़ ,
जो बना है ,
गरीबों के चर्म से -
जो उतारी गयी है,
शासन द्वारा बड़ी बेरहमी से ।
क्रांति सिर्फ चीखने चिल्लाने से नहीं होती,
क्रांति होती है,
जो है उसे बदल देने से।
बदल डालो खुद को -
सहनशीलता उखाड़ फेंको ,
और व्यवस्था की किताब़ का हर एक पन्ना -
फाड़ कर फेंक दो ।
नये विहान के लिये,
नये कागज़ और कलम उठा लो -
क्रांति का नया सूरज,
अंधेरे की छाती
चीर निकलने का इंतजार कर रहा है ।
उठो... जागो...
मुट्ठियाँ तान लो ...
और क्रांति का उद्घोष करो।
-नीहार ( चंडीगढ़,१५ मार्च २०१४)






शुक्रवार, 21 मार्च 2014

तेरा चेहरा किताब़ है जाना....

तेरा चेहरा किताब़ है जाना,
हर सवाल का जवाब है जाना।
होंठ हिलते हैं तो यूँ लगता है,
जैसे खिलता गुलाब है जाना ।
सीप सी तेरी आँखों से जैसे ,
हर सू छलके शराब है जाना ।
बिखरी हुई है जुल्फ़ इस तरह,
जैसे चेहरे पे नकाब़ है जाना ।
जिससे भी पूछो वो ये कहता है,
तू तो बस लाजवाब है जाना ।
हजार चाँद के जल जाने पर ,
बना तू एक आफताब है जाना ।
पाँव न हो जायें मैले कहीं तेरे,
हाथों को किया रकाब़ है जाना ।
उसके सज़दे झुका है सर मेरा,
जिस पे आया  शबाब है जाना ।
पंख उनका कतर तुम न पाओगे,
हौसला जिनका उकाब है जाना।
नीहार को छिपा के रक्खो सबसे ,
लोग कहते हैं वो नायाब है जाना ।
- नीहार ( चंडीगढ़, १० मार्च, २०१४)






रविवार, 23 फ़रवरी 2014

मदभरे नैन तोरे.....

मद भरे नयन तोरे कारे हैं कजरारे हैं ।
देखे जो इनको वो अपना सब हारे हैं।
श्वेत श्याम रतनार छलक जाय रसधार,
लटपटात चलत जो चितवत इक बारे हैं।
अधर गुलाब की खिली हुयी दो पंखुड़ी,
देख देख जिसको सब होय मतवारे हैं ।
चाँद जैसे मुखड़े पे बिंदिया लगे है ज्यूँ ,
रक्त वर्णी सूरज ज्यूँ सागर में उतारे हैं।
जित जित रक्खे पाँव जमीं पे वो सुन्दरी,
हरसिंगार ने उत उत सारे फूल झाड़े हैं ।
एक झलक जिसे भी जी भर वो देख ले,
उसके जीवन से होय दूर अंधियारे हैं ।
जादू सा करे है रूप रंग उसका नीहार,
उसकी ही खुशबू में सब कुछ बिसारे हैं।
-नीहार ( चंडीगढ़ की ठिठुरती शाम और एक बेसाख्ता खयाल , दिनांक 15 फरवरी 2014)

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

गिद्ध ....

गिद्ध -
हो कहाँ तुम  ?
क्यूँ और कैसे,
हो गये गुम ?
यहाँ बहुत सड़ाँध है....
गिद्ध बोला -
क्या करूँ मेरे भाई,
बीत गयी तरुणाई -
कट गये सब वृक्ष...
जितने जवान गिद्ध थे ,
वे सब बसे विदेश -
बदल गया ,
उनका परिवेश...
बदल गयी उनकी भाषा,
बदल गया उनका खान पान -
अब तो वो मेहमान सरीखे आते हैं,
हमारा ही पीते खाते ,
और,
हमें ही फिर गरियाते हैं ।
हमारी कमाई का ,
लेते हैं हिसाब,
पर,
हाल चाल भी नहीं -
पूछते जनाब़ ।
अब हम बूढ़े गिद्ध,
कितनी सफाई करें -
लाशों की ।
पहले सिर्फ जानवरों की 
करनी होती थी,
अब तो मनुष्यों के भी अंबार लगे हैं ।
इसलिये ,
कयी सालों से - 
हमने ये काम मनुष्यों को ही,
आउटसोर्स कर दिया है ।
पर आप मनुष्य की जात को,
अच्छी तरह जानते हो ....
अंग प्र्त्यंग नोंच कर निकाल,
बेच देते बाजार में -
और लाशोंको यूँ ही,
छोड़ देते सड़ाँध फैलाने को।
हमने बीच में सोचा भी,
काम दुबारा शुरु करें -
आखिर रिटायरमेंट के बाद ,
भी तो जिन्दगी है -
पर सच बताऊँ, 
वितृष्णा हो गयी....
जब मनुष्य 
के हृदय को,
घृणा द्वेष से भरा पाया -
उसके जिगर में,
बेईमानी का खून देखा ।
उसके गुर्दे में अनाचार की पथरियाँ पायी,
उसकी अँतरियों में,
शोषित मनुजों की ही -
रक्त और मज्जा का अवशेष पाया ।
जब तुम -
पूछ ही रहे तो बता दूँ ,
कि मैंने संतों के अंतस् में भी,
झूठ, फरेब, व्यभिचार,लोभ,मद,मोह -
यानि की सारी विकृतियाँ पायी....
यहाँ तक की,
ब्रम्हचर्य धर्म का पालन करने की ,
घोषणा करने वाले -
देव समान पूजे जाने वाले,
स्वयं को ईश का अवतार मान ने वाले -
अधिकांश लोगों के गुप्तांग पर,
भोली भाली बच्चियों के साथ -
किये गये बलात्कार की ,
दुर्गंध मयी निशानी भी पायी है।
मेरा मन सिहर गया यह सब देख कर....
अब हमसे,
अपना कर्म किया नहीं जाता -
न ही अपना धर्म निभाया जाता है ।
इस सभ्य समाज का यही भविष्य है,
कि गिद्ध अदृश्य है -
उसके लिये सब असपृश्य है ।
हर व्यक्ति यहाँ मदाँध है,
हर तरफ बस सड़ाँध ही सड़ाँध है ।
- नीहार( यूँ ही सोचते सोचते - चंडीगढ़,17 फरवरी,2014)



मंगलवार, 28 जनवरी 2014

ख्वाब ओ खयाल ........

सुबह - 
आँख के कोरों को नम पाया....
तुम -
बिना किसी आहट के,
ख्वाब सी उन्हें छू के -
वापिस लौट गयी थी ..
कई साल हो गये...
इन आँखों को,
यूँ ही खिड़कियाँ बने हुये-
और ,
कई साल हो गये...
तुम्हें -
फाख़्ता की तरह ,
आ के कुछ पल -
बैठना... गुटर गँू करना...
और फिर उड़ जाना -
खिड़कियों के पल्ले हिलते ही ।
मैंने -
न तो कभी ,
भूले से भी....
तुम्हें पकड़ने की कोशिश की -
और , न ही तुमने कभी ....
मेरी आँखों को -
अपना दड़बा करने की कोशिश की ...
यूँ ही -
हम रोज मिलते हैं ख्वाबों में,
और यूँ ही हम -
उजाले के फूटते ही,
बिछड़ जाते हैं....
मैं जानता हूँ -
जब जब मेरी आँखें ,
नम होती हैं -
तुम्हारे तकिये की नियति में,
भींगना लिखा होता है ।
मैं- 
अभी अभी तुम्हारे ख्वाबों में ....
तुम्हें छू कर,
वापिस लौटा हूँ ...
अपनी नम आँखें बन्द मत करना,
आँसू ही हैं-
ढ़लक जायेंगे ।
- नीहार ( चंडीगढ़,28 जनवरी 2014 - तुम हो, तुम्हारा खयाल है और चाँद रात है )

शनिवार, 4 जनवरी 2014

शुभकामना

तम हरे जो दीप उसका भविष्य है जलना,
बर्फ की नियति है उसका पानी हो गलना ।
बहती हुयी सलिला पतित पावनी कहलाती है,
हर नदी के भाग्य में है बस अनवरत चलना ।
सूरज की फितरत है कि वह दे रौशनी सबको,
खुद ही तप कर हर किसी के तमस को हरना ।
प्रगतिवादी व्यक्ति कभी पीछे मुड़ नहीं देखता ,
उसकी नियति में है लिखा सिर्फ आगे ही बढ़ना।
जो साल बीत गया उससे ये सबक तुम सीख लो,
'गर चलना हो तो बस तुम सन्मार्ग पे  ही चलना।
अगर हो आस्था भारत के संविधान में तुमको , 
तो सांसद के रूप में हर एक लायक को चुनना ।
आनेवाला साल हर्ष और उल्लास से हो भरा ,
काँटे में भी रह कर सदा तुम फूल सा खिलना ।
शुभकामना शुभकामना शुभकामना शुभकामना ,
शुभकामना शुभकामना शुभकामना ।।
- नीहार (चंडीगढ़, ३०/१२/२०१३ )