गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

कविता की प्रासंगिकता

(अप्रैल २०१० में प्रस्तुत यह कविता मुझे अपनी लेखनी का चरम सुख देता है । इसे पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ उन लोगों के लिए जिन्होंने शायद इसे पढ़ा न हो)

मैं किनका कवि हूँ -

यह मुझे नहीं मालूम,

पर यह सच है -

और,

मैं इससे अच्छी तरह वाकिफ हूँ,

की मेरी कविता -

शब्दों की नंगी दौड़ नहीं है।

यह सिर्फ 'खुलेपन' को फैशन के तौर पर नहीं देखती,

वरन जीती है उस अहसास को खुलकर।

मेरी कविताओं की अपनी प्रासंगिकता है -

अपनी सार्थकता है,

अपना रंग है,

अपना ढंग है,

अपना रूप है।

और कुछ भी नहीं तो -

मेरी कविता आज के युगबोध की सुनहरी धूप है।

मैं जो भी लिखता हूँ -

दिल की गहराई से लिखता हूँ,

और भोगे हुए यथार्थ को -

कागज़ के सफ़ेद सफ़ेद पन्नों पर,

दिल के लाल लाल खून से चित्रित करता हूँ -

यह जानते हुए भी की,

यथार्थ या सच कड़वा होता है,

जो गले के नीचे जल्दी नहीं उतरता,

और इसलिए मैं ,

अपनी कविता को माध्यम बनता हूँ,

वह सब लिखने के लिए,

जिसकी प्रासंगिकता अछूती है।

मैं -

शब्दों के व्यामोह में नहीं फंसता,

मैं -

अर्थों के दिशाभ्रम में नहीं उलझता।

मैं -

खुद को उस चक्रव्यूह में ले जाता हूँ -

जहाँ ,

व्यक्त करने की कला अर्थवान हो जाती है,

और-

अपने को अपने को हर रूप में उद्भाषित पाती है।

मेरे मन में जो भी ईंट - पानी - आग - धतूरा आता है,

सब का सब मेरी कविता में अपनी जगह पाता है।

मेरी कवितायेँ "सोफिस्तिकेटेड ट्रेंड" से जुडी नहीं होती हैं -

इसलिए कहीं सीधी और कहीं अष्टावक्र की तरह मुड़ी होती हैं।

कवितायेँ मेरे द्वारा जीवन में खाई गयी ठेस हैं -

सीधी हैं , सच्ची हैं यानी बिलकुल भदेस हैं।

मैं जब भी किसी बच्चे को मुस्कुराता देखता हूँ,

मुझे भविष्य की सुनहरी झांकी नज़र आती है।

जब भी किसी बूढ़े की खांसी सुनता हूँ,

भय से ग्रसित हो काँप जाता हूँ।

जब भी किसी कमसिन/हसीं लड़की की आँखों में,

सुनहरे ख्वाब ठाठें मारते देखता हूँ,

खुद को हैरान , परेशान पाता हूँ ।

मैं -

यानी मैं,

हर घडी अपने होने का एहसास भोगता हूँ।

हर लम्हे को पूरा का पूरा जीता हूँ,

और समय से अलग हुए टुकड़े को ,

टुकड़े टुकड़े सीता हूँ ।

मेरी कवितायें मेरा भोग हुआ यथार्थ हैं,

और,

यथार्थ कभी नश्वर नहीं होता।

मैं भोगे यथार्थ में जीता हूँ,

यानि सच को जीता हूँ।

खुद ही कविता लिखता हूँ ,

खुद ही कविता पढता हूँ,

खुद को मनुष्य के रूप में गढता हूँ।

6 टिप्‍पणियां:

Arti Raj... ने कहा…

sahi kha aapne aapne jo jia hai usi ko likha hai..or jitni gehrai se likha hai kabile tarif hai wo...bhut sundr lagi aapki kavita..likhte rahie....

विभूति" ने कहा…

मैं किनका कवि हूँ -

यह मुझे नहीं मालूम... bhut hi sarthak sawal hai...

विशाल ने कहा…

मैं भोगे यथार्थ में जीता हूँ,
यानि सच को जीता हूँ।
खुद ही कविता लिखता हूँ ,
खुद ही कविता पढता हूँ,
खुद को मनुष्य के रूप में गढता हूँ।

मेरी कविता ही मैं हूँ,
मैं ही मेरी कविता है.

Amrita Tanmay ने कहा…

Aap kavita gadhate hain aur kavita aapko...ek-dusare ke purak. hriday se nikli hui..hriday ko chhuti hui...sundar abhivyti..shubhkamna

Suman ने कहा…

bahut sunder...

बाबुषा ने कहा…

mazaa aaya iss kavita ko parhkar..