याद आ गया हमें भी,
वो गुजरा हुआ ज़माना -
एक संग जमीं पे बैठ कर,
लिट्टी व चोखा खाना -
फिर बैंक और देश की,
पालिटिक्स पे बातें करना-
मन का सारा विकार यूँ,
हँसते हुये निकालना ...
वो बच्चों की खिलखिलाहट,
वो गृहणियों की चहचहाहट-
हम उसमें सुन लिया करते,
सपनों की गुनगुनाहट ....
चलो पीछे ले चलें हम,
समय को जरा घुमाकर -
शायद ये हम जान पाएँ,
कि हम कितना बदल गये हैं...
ओढ़ रक्खें हैं हमने चेहरे,
अपने चेहरे पे न जाने कितने -
कि आईना भी हमसे अक्सर,
हमारा पता पूछता है ।
पलट लो जरा ये अल्बम,
जो हमें हमारे होने का -
है सबूत पेश करता ।
चलो उतार दें हम ये चेहरा,
जिसने मशींदोज़ हमें किया है -
हमें सुविधा भोगी करके,
हमसे छीनी है हमारी पहचान....
चलो फिर से उस जहाँ में,
जहाँ रोटी नमक भी हमको -
देती थी अगाध खुशियाँ....
जहाँ बच्चों की धमाचौकड़ी,
में सुनते थे झरनों की झर झर-
जहाँ पत्नियों के उलाहने में,
रहता था प्यार का ही तेवर ....
वही थी हमारी दनिया,
जहाँ दीवार न थी कोई-
हम आदमी से मिलते थे,
बस आदमी ही होकर ।
ये तस्वीर मुझसे कहती,
चल आ के मुझसे तू मिल ...
मैं तुझे मिला दूँ तुझसे,
जिसे तू कब से ढूँढ़ता था ।
- नीहार ( एक चित्र को देखकर अचानक उमड़े भावनाओं का ज्वार काव्य रूप में- आभार विकास रंजन । एवं सुशील प्रसाद )
2 टिप्पणियां:
इस पल-पल बदलती सूरत की यही है कीमत..
धन्यवाद अमृता ....आपकी सराहना माने रखती है...
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