बुधवार, 3 मार्च 2010

मुमकिन हो तो मेरी खातिर एक बार मुस्कुराइए

मुमकिन हो तो सिर्फ मेरी खातिर एक बार मुस्कुराइये,

अपनी पलकों का वरक उठाइये और मेरी सुबह लाइये।

मैं समंदर में भटक रहा हूँ एक किश्ती की तरह ऐ दोस्त,

मुझको मौजों से बचा कर आप किनारे तक तो ले आइये।

तरस गया है ज़माना देखने को एक चौदहवीं का चाँद,

उनकी खातिर ही सही आप अपने रुख से पर्दा हटाइये।

हर तरफ ख़ामोशी है चुप सी और निःशब्द सन्नाटा है,

आप बेतकल्लुफ होइए और खुल के कुछ गुनगुनाइए।

चारों तरफ पसरा हुआ है मरुभूमि का विस्तार सा ,

आप कदम रखिये यहाँ और फूल ही फूल खिलाइए।

मैं भटकता ही रहा हूँ तलाश में खुद की अब तलक,

आईना हैं आप मेरे तो मुझको मेरा अक्स दिखलाइये।

एक अदद चाँद की आशा में चकोर बन कर भटक रहा ,

आप चाँद हैं तो आइये और अपनी चांदनी से नहलाइये।

मैं हिमालय की तरह खड़ा हूँ बिलकुल भाव विहीन सा ,

अपने प्यार की उष्मिता से आप मुझको पिघलाइये।

तेरे इंतज़ार में आँखें दरवाज़े से हैं लगी हुयी अब तक,

आप एक बार तो ऐसे आइये की आके फिर ना जाइए।

-नीहार

4 टिप्‍पणियां:

dipayan ने कहा…

बहुत शानदार कविता, ज़नाब । बधाई कबूल करे ।

Udan Tashtari ने कहा…

तेरे इंतज़ार में आँखें दरवाज़े से हैं लगी हुयी अब तक,

आप एक बार तो ऐसे आइये की आके फिर ना जाइए।

-क्या बात है!! वाह!

संजय भास्‍कर ने कहा…

भटकता ही रहा हूँ तलाश में खुद की अब तलक,आईना हैं आप मेरे तो मुझको मेरा अक्स दिखलाइये।एक अदद चाँद की आशा में चकोर बन कर भटक रहा ,आप चाँद हैं तो आइये
lajwaab panktiya........

वाणी गीत ने कहा…

आप बेतकल्लुफ होइए और खुल के कुछ गुनगुनाइए ....

अच्छी लगी ग़ज़ल ...

तेरे इंतज़ार में आँखें दरवाज़े से हैं लगी हुयी अब तक,

आप एक बार तो ऐसे आइये की आके फिर ना जाइए ..

इसमें पहली लाइन में तेरे और दूसरी में आप खटक रहा है ....