रविवार, 28 मार्च 2010

खाली हाथ

तुम सोच रहे होगे - की,
जब भी मैं आता हूँ - खाली हाथ ही आता हूँ।
इस बार भी,मैं खाली हाथ ही आया हूँ।
वैसे, आने से पहले - इस बार,
मैंने भी सोच लिया था,की -
नहीं जाऊँगा खाली हाथ मैं।
पर, हूँ ना आदत से मजबूर - ,इसलिए,
आ ही गया मैं फिर से खाली हाथ -
मैंने सोचा था - की,
तुम्हारे लिए - बचपन की धूप चुरा कर ले चलूँ,
यह भी सोचा की -
इश्किया उम्र की खुशबु को - नथुनों में भर ले चलूँ।
या वे ठहाके ले चलूँ, जो अब भी गले में अटके पड़े हैं।
बहुत कुछ - बहुत कुछ सोचा था मैंने ---
झरनों की खिलखिलाहट/पत्थरों की तमाशाई/पेड़ों की बुजुर्गिअत/
हवाओं की सरसराहट/भंवरों की गुनगुनाहट/चांदनी की आहट
उन सबके विषय में सोचता था मैं --
जो थीं गवाह हमारे बचपन की - और,
बचपन से तब्दील होती जवानी की -----
पर, - ला नहीं पाया मैं - कुछ भी तुम्हारे लिए।
पहले जब भी मैं आता था -
तो मेरा हाथ खाली होता था,
और ह्रदय भरा होता था।
मैं आज भी भरे ह्रदय और खाली हाथ ,
तुम्हारे सामने हूँ --
मैं शर्मिंदा हूँ की खाली हाथ हूँ -
पर, ऐ मेरे दोस्त -
लम्हों को मुट्ठी में जकड मैं भला कैसे लाऊं?
ख़ास कर,
वैसे लम्हों को , जिनकी खुशबु ने मेरे दिल को धड़कन दी है।
जिस क्षण मैं उन लम्हों को पकड़ने की कोशिश करूँगा -
मेरी धड़कन हो जायेगी बंद, और शायद मैं तुम्हारे पास,
कभी ना आ सकूँगा।
बस इसी लोभवश मैं आता हूँ खाली हाथ, की -
कम से कम तुमसे मिलूं तो सही - तुमसे होऊं तो सही ,
क्षण भर को तुम्हारे काँधे पर सर रख सौं तो सही(रोऊँ तो सही ) ----
जिन पर सोये ( रोये) न जाने कितने दिन / महीने/वर्ष बीत गए।
- नीहार

1 टिप्पणी:

संजय भास्‍कर ने कहा…

कई रंगों को समेटे एक खूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई