गुरुवार, 4 मार्च 2010

है रौशनी का कतरा मेरी मुट्ठी में बंद

है रौशनी का कतरा मेरी मुट्ठी में बंद,मन के भीतर मच गया है एक द्वन्द ।

वो मेरा जो कुछ भी नहीं तो ऐ दोस्त, याद उसकी आ आ के क्यूँ करती है तंग।

जब भी मैं खींचता हूँ लकीर कागज़ पे,वो हो जाती है पूर्णतया उसमें जीवंत।

लिखता हूँ उसको ख़त जब अपने हाल का,पढ़ के वो कहता है ये सब है मनगढ़ंत।

मेरे लिए तो वो है एक मंदिर प्रेम का,उसके लिए बन बैठा हूँ मैं एक महंत।

पलकें उठायीं तो सुबह ले आती है वो,पलकें झुका ली तो रात उतर आती तुरंत।

उनका चेहरा खिलता हुआ माहताब है,उनकी खुशबु में तर बतर है दिग-दिगंत।

उनसे ही जीवन बना है मधुमास मेरा , उनसे ही पतझड़ में भी छाया है बसंत।

- नीहार

कोई टिप्पणी नहीं: