रविवार, 22 सितंबर 2013

वो मेरे ख्वा्ब की ख्वाहिश में सोयी रहती ......

मैं  उसके कर्ब की ख्वाहिश में जागा करता,
वो मेरे ख्वा्ब की ख्वाहिश में सोयी रहती ।
उसकी फितरत है कि वो चुप रहा करती है,
मैें ये समझा कि वो मुझमें ही खोयी रहती ।
मैेंनें जितना भी दिया दर्द उसे उन सबको,
वो अपनी आँख में मोती सा पिरोयी रहती ।
मुझ पे जब भी उछाला है कीचड़ किसी ने,
अश्कों से मेरे जीस्त को वो धोयी रहती ।
मैं भटकता हूँ तपी धूप सा होकर जब भी,
प्यार बरसा के वो मुझको भिंगोयी रहती ।
किर्चों में टूट के जब भी बिखरता है नीहार,
वो उन्हें चुन चुन के फिर से संजोयी रहती ।

- नीहार

2 टिप्‍पणियां:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

वाह...
बेहतरीन ग़ज़ल...
मुझ पे जब भी उछाला है कीचड़ किसी ने,
अश्कों से मेरे जीस्त को वो धोयी रहती ।

लाजवाब शेर...

सादर
अनु

Vijuy Ronjan ने कहा…

सराहना के लिये और समय निकालने के लिये धन्यवाद अनु ।