सोमवार, 25 जनवरी 2010

मौन की समिधा


हैं दिशाएं चुप की बस अब मौन की समिधा जलेगी,

मनुष्य के अंतःकरण में समय की दुविधा पलेगी,

ज़िन्दगी का अर्थ कोई जान पाया है कहाँ तक,

ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बन कर छलेगी ।

जल रहे हैं सभ्यता के गरिमामयी अवशेष सारे,

टूट कर गिरने लगे हैं संस्कृति के पुंज तारे,

खून की फेनिल नदी से देखो कोई है पुकारे,

घृणा और विद्वेष में क्या यूँ ही ये धरती जलेगी?

ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बन कर छलेगी ।

पशु वृत्ति को ओट ले देखो हम सब जी रहे हैं,

नीर के बदले मनुष्य का रुधिर देखो हम पी रहे हैं,

चीर कर खुद का ही सीना खुद ही उसको सी रहे हैं,

मौत की खेती यहाँ पर खूब फूलेगी और फलेगी,

जिंदगी ही जिंदगी को जिंदगी बन कर छलेगी।

थे खुले दरवाज़े सब अब बंद हो कर रह गए हैं,

घुप्प अँधेरे अपनी किस्मत में हमीं तो गह गए हैं,

मनुष्यत्व की लाश हम काँधे पे ढोते रह गए हैं ,

अब नहीं हिम की शिला गंगा बनी फिर से गलेगी,

ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बन कर छलेगी।

हम सभी उद्दाम वासना के द्वार पर देखो खड़े हैं,

"अहम्" की परछाईयों में जी रहे हम सब अड़े हैं,

भाई भाई भाईचारा भूल कर देखो कैसे लड़े हैं,

ऐसे में किसकी चली है और किसकी है चलेगी,

जिंदगी ही ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बन कर छलेगी।

गर दिखे कोई किरण तो तुम बढ़ के उसको रोक लो ,

मुट्ठियों में जकड उसको तुम जाओ अपनी कोख लो,

और प्यासी जीभ से तुम उसकी तरलता सोख लो,

जिंदगी शायद तुम्हारे कोख में फिर से पलेगी,

जिंदगी फिर जिंदगी को ज़िन्दगी बन कर मिलेगी।
_ निहार ( अप्रकाशित नाद ध्वनि संकलन वर्ष १९९० से )

2 टिप्‍पणियां:

अनिल कान्त ने कहा…

badi hi sashakt kavita hai Bhai Jaan

सदा ने कहा…

बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द लिये हुये अनुपम प्रस्‍तुति ।