तुम्हारी आँखें-
मुझे देखती नहीं...
वरन मुझसे ही देखती हैं,
मैं तुम्हारी दृष्टि हूँ -
और तुम मेरा दृष्टिकोण।
- नीहार
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कुछ बुझे हुये दीपक ,
जले हुये पतिंगों की राख-
मेरी हथेलियों पर,
सूरज ने सुबह सुबह-
ये कविता लिख दी ।
-नीहार
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संबंध-
दिये की थरथराती लौ की तरह होते हैं...
हवा के हल्के झोंके,
उसकी लपक को -
धुँआ कर देने को काफ़ी हैं...
ज़रूरत है -
उन्हें प्रेम की ओट से बचाते रहने की अनवरत ।
- नीहार
1 टिप्पणी:
सुन्दर कविता ।
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