सोमवार, 16 मार्च 2015

दृष्टिकोण

तुम्हारी आँखें-
मुझे देखती नहीं...
वरन मुझसे ही देखती हैं,
मैं तुम्हारी दृष्टि हूँ -
और तुम मेरा दृष्टिकोण।
- नीहार
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कुछ बुझे हुये दीपक ,
 जले हुये पतिंगों की राख-
मेरी हथेलियों पर,
सूरज ने सुबह सुबह-
 ये कविता लिख दी ।
-नीहार
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संबंध- 
दिये की थरथराती लौ की तरह होते हैं...
हवा के हल्के झोंके,
उसकी लपक को -
धुँआ कर देने को काफ़ी हैं...
ज़रूरत है -
उन्हें प्रेम की ओट से बचाते रहने की अनवरत ।
- नीहार

1 टिप्पणी:

Amrita Tanmay ने कहा…

सुन्दर कविता ।