मुतमईन हूँ बहुत –
सांस लेता नहीं ,
चलता रहता हूँ पर -
मैं हूँ जीता नहीं....
पढ़ लिया सारी दुनिया के,
वेद औ’
क़ुरान –
जिंदगी की किताब ,
मेरी कोई गीता नहीं......
मेरे भीतर धधकती है,
ज्वाला सी जो –
उसमें चिंगारियाँ हैं,
पर पलीता नहीं ...
मुट्ठियों में लिए हूँ –
खुद के चिता की मैं राख़,
है सजने सँवरने का –
मुझको सलीका नहीं।
- नीहार
10 टिप्पणियां:
बहुत खुबसूरत एहसास पिरोये है अपने......
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति....
सादर
अनु
तृप्त हृदय ...अच्छा लिखा है ...!!
शुभकामनायें ...
बहुत ही सुन्दर ....
अनुपमा जी, सराहना के लिए हृदय से धन्यवाद....
अनु जी, अभिव्यक्तियाँ प्रशंसा पा कर खिल उठती हैं...आभारी हूँ....
धन्यवाद सुषमा जी सराहना के लिए...अनुगृहीत हूँ....
शिव जी धन्यवाद ...उपकृत हुआ...
कमाल..
अनुगृहीत हूँ तारीफ के लिए अमृता ....
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