सोमवार, 23 अप्रैल 2012

उत्थान और पतन के बीच का द्वंद

उत्थान और पतन के बीच -
मनुष्य खो देता है अपने व्यक्तित्व को......
ऊंचाइयों का शौक  उसे, 
गिरने को कर देता है मजबूर -
वह हो जाता है अपनों से दूर  ,
और -
खुद से भी इतना दूर  कि, 
 आईना भी उसे पहचानने से -
 कर देता है इंकार,
एक काम का आदमी -
स्वयं को कर देता है बेकार....
इसलिए -
हे मनुष्य !
उत्थान और  पतन के द्वंद् से मुक्त हो ,
लीन रहो अपनी कर्म साधना में....
विजय और पराजय की चिंता के  बिना ,
कर्म पथ  पर निर्बाध चलते रहो....
कहीं ना कहीं -
कभी ना कभी तुम्हें,
मिल जाएगा वह चेहरा -
जिसकी खोप्ज में तुम,
रहे भटकते वर्षों से -
और जिसे पहन जब तुम,
आईने के पास जाओगे -
तो सच कहता हूँ ,
यसै वक़्त तुम -
खुद ही खुद को पाओगे। 

- नीहार 




5 टिप्‍पणियां:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

वाह.....
बहुत सुंदर....

कभी ना कभी तुम्हें,
मिल जाएगा वह चेहरा -
जिसकी खोज में तुम,
रहे भटकते वर्षों से -
और जिसे पहन जब तुम,
आईने के पास जाओगे -
तो सच कहता हूँ ,
ऐसे वक़्त तुम -
खुद ही खुद को पाओगे।

बहुत खूब............

अनु

Vaanbhatt ने कहा…

कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर ऐ इंसान
जैसे कर्म करगा वैसा फल देगा भगवान...
ये है गीता का ज्ञान...

दिगम्बर नासवा ने कहा…

आम इंसान तो इससे मुक्त नहीं हो पाता ... ये उत्थान की ही कामना करता है बस ...

Amrita Tanmay ने कहा…

निर्बाध लिखते रहें.. सुन्दर से सुन्दर रचनाओं को ..

रश्मि प्रभा... ने कहा…

beshak bahut badhiya