मुटुठियाँ तन गयी हों,
तो फिर -
समझो क्रांति बेला आ गयी है ।
नसों में खून -
लगा है खौलने ...
अपने को दधीचि कर,
हड्डियाँ गलाने का समय आ गया है।
भूख पेट की,
और पेट से नीचे की-
मायने खो देती है ...
जो मायने रखता है,
वह है क्रांति की भूख ।
पर,
यह भूख लगती कब है -
और किसे ?
तनी हुयी मुट्ठी को खोल कर,
भीख के लिये -
उसे फैलाने की कोशिश -
हर शासन का पहला प्रयास होता है ।
और,
जिसकी मुट्ठी नहीं खुलती -
उसके पीछे ...
शासन के विषाक्त दंत वाले कुत्ते,
छोड़ दिये जाते हैं...
उसकी अंतड़ियों के नुच जाने तक ।
भागना होगा सिरफिरे सा..
क्यूँकि गोलियाँ लाश बना देती हैं,
और लाशें बोला नहीं करती ।
और क्रांति शब्दों से होती है -
गोलियों से नहीं ...
शब्द को जिन्दा रखने के लिये,
भाषा के कवच में,
भाव की जु़बान बचा के रखनी होगी ।
एक हुंकार काफी होती है,
हजारों गोलियों की गूँज को -
दबाने को .....
एक तनी हुयी मुट्ठी काफी है -
विद्रोह की हुंकार के लिये ।
तुम्हारी धधकती आँखें,
भस्माभूत कर देंगी सारे जंगल को ...
और अपने नंगेपन को लिये,
एक गाँव -
धुआँ पहन सोया रहेगा किसी सभ्यता के अवशेष सा।
यहाँ जागना मना है ...
साँकलें मत बजाओ घर की,
कोई दरवाजा नहीं खोलेगा -
यहाँ आवाजों पे भी पहरे लगे हैं ।
भूख से उपजी आग ही तुम्हारे काम आयेगी यहाँ,
सुलगने दो उस आग को -
जिसको बुझाने के लिये,
तुम्हें किसी अमीर की थाली -
झपटने का सामर्थ्य रखना होगा ।
जगाओ भूख क्यूँकि,
पेट के अंदर की आग,
दाँतों के बीच से निकले शब्दों को,
धारदार बनाती है -
जो मिटा देती है ,
हर शासक का वजूद...
इस आग को,
जलने दो।
शासन भूख की थाली में,
परोसेगा भीख की रोटी -
जो सिंकी होगी ,
राजनीति के चूल्हे पर चढ़े -
मककारी के तवे पर ।
मत खाना उसे -
तुम्हें उस आग में,
झुलसाना है उनका चेहरा -
और उसपर ओढ़ा गया नकाब़ ,
जो बना है ,
गरीबों के चर्म से -
जो उतारी गयी है,
शासन द्वारा बड़ी बेरहमी से ।
क्रांति सिर्फ चीखने चिल्लाने से नहीं होती,
क्रांति होती है,
जो है उसे बदल देने से।
बदल डालो खुद को -
सहनशीलता उखाड़ फेंको ,
और व्यवस्था की किताब़ का हर एक पन्ना -
फाड़ कर फेंक दो ।
नये विहान के लिये,
नये कागज़ और कलम उठा लो -
क्रांति का नया सूरज,
अंधेरे की छाती
चीर निकलने का इंतजार कर रहा है ।
उठो... जागो...
मुट्ठियाँ तान लो ...
और क्रांति का उद्घोष करो।
-नीहार ( चंडीगढ़,१५ मार्च २०१४)