जब भी मैंने अपनी अभिव्यक्ति को -
शब्दों के जंगल में - निःशब्द घूमने के लिए छोड़ दिया है,
मुझे एक ही एहसास हुआ है की मैं,
एक बेजुबान आदमी - सिर्फ देख सकता , सुन सकता और,
सूंघ सका हूँ......
पर कह नहीं सकता कुछ भी।
क्युंकी, शब्दों के जंगल में,
सिर्फ और सिर्फ आदमखोर शब्द ही घूमते हैं,
और मैं जानता हूँ की मेरे सारे छौने शब्द खा लिए जायेंगे बेदर्दी से,
उन आदमखोर शब्दों के द्वारा।
इसलिए मैं अपने दांतों के जंगल से -
उन मृदु/कोमल छौनों सामान शब्दों को बहार नहीं आने देता।
मैं जानता हूँ की अपने शब्दोंका भंडार चुक जाने के बाद ,
मैं शब्दहीन , साधनहीन, पुरुषत्वहीन , अभिव्यक्तिहीन ,
यानि,
हर तरह से 'दीन' हो जाऊँगा ।
इसलिए -
वर्षों से बूढ़े सूरज के वृसभ कन्धों पर टकटकी लगाये,
मैं उस सुबह का इंतज़ार कर रहा हूँ -
जहाँ नहीं होगा कोई जंगल आदमखोर शब्दों का।
और जब मेरे शब्द भी छलांगे मरेंगे - उछ्रिन्ख्ल हो ,
उत्पात मचाएंगे नन्हे शावकों ( बच्चों) की भांति।
पर, इंतज़ार कर मैं खुद चुकता जा रहा हूँ...
मेरे शब्द दांतों के जंगल में घुट घुट कर मरते जा रहे हैं....
अभिव्यक्ति अपने मायने खोती जा रही है..... ।
और अब तो उम्मीद की हलकी किरण भी ख़त्म हो गयी है - ।
सुना है, सरकार ने किसी भी तरह के ,
जंगलों की कटाई पर लगा दी है पाबन्दी ।
और इस तरह मेरे शब्दों ( अभिव्यक्तिओं) की हो गयी है,
पूर्ण रूप से " तालाबंदी"।
- नीहार ( वर्ष १९८९)
( यूँ ही बैठे बैठे कलम उठा लिया, कुछ चित्र उकेरे, कुछ शब्दों को अभिव्यक्ति का जामा पहना छोड़ दिया अजनबी शहर के अजनबी रास्तों पर अजनबी लोगों के अजनबी बर्ताव से खुद को बचा बच कर विचरण करने को....जंगल के कट जाने क उपरांत मेरे पास कोई और चारा भी तो नहीं...)
1 टिप्पणी:
शानदार!
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