मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

हरी आँख का समंदर

(वर्ष १९८८,मई की तपती धूप और उनकी याद..बस खींच दी कागज पे चाँद लकीरें और लिख दी दिल की बात यूँ एक कविता के रूप में जो आपके लिए नीचे प्रस्तुत है।)
सपनो की चादर ओढ़ जब भी सोता हूँ -
तुम्हारे बदन की गर्मी मुझे नहलाती है,
दिन भर की थकान हवा में गुम हो जाती है ,
बाल उड़ कर चेहरे से अठखेलियाँ करते हैं ,
आँख के आंसू वाष्प बन तिरोहित हो जाते हैं,
कई दिनों की गुम हंसी वापिस लौट आती है।
पर, मेरे हाथ ज्यूँही तुम्हे पकड़ने को होते हैं ,
आँखें खुल जाती हैं और सब कुछ शांत हो जाता है,
दाढ़ी की चुभन खुद ही हाथों में काँटों सी फंसती है,
आँखें भीतर तक शर्म-ओ-हया के गर्त में धंसती है,
वो जो सपनो का दौर था - ठाठें मारता है मेरे अन्दर,
सूख जाता है बस यूँ ही मेरे मन का वो हरा समंदर,
न कुछ बाहर बचता है और न ही कुछ बचता है अन्दर।
सिर्फ और सिर्फ एक बे आवाज़ खामुशी होती है,
सिर्फ और सिर्फ एक पसरा हुआ सन्नाटा होता है,
सिर्फ और सिर्फ मेरा क्रंदन कहीं चुपके से दस्तक देता है....
मुझे तुम्हारी आँखों का हरा समंदर बुलाता है...
- नीहार, मई १९८८

2 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।

Udan Tashtari ने कहा…

सुन्दर रचना!