मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

जादू सा छा रहा है,कोई मुझमे समा रहा है

जादू सा छा रहा है ,कोई मुझमे समा रहा है।

जुल्फों में कैद बादलों को, सावन बना रहा है।

चलने से उसके हर शू , आ जाती है बहारें,

मरुभूमि में भी चल कर,मौसम बदल रहा है।

पलकें उठा के अपनी, देखो ले आता है सहर वो

पलकें गिरा ली उसने तो, बस तारीक छा रहा है।

आवाज़ है उसकी जैसे, मिसरी घुली हुयी सी,

कानो में मेरे जैसे वो जलतरंग सा बजा रहा है।

मेरी प्यास बुझाने की खातिर घूमे दर बदर वो,

फूलों की पंखुरियों से,ओस की बूंदे चुरा रहा है।

है वो स्नेह का सागर , है वो प्यार का दरिया,

वो चाँद बन कर मुझको , लहर सा बना रहा है।

मैं लिखता हूँ गीत उस पर, मैं भरता हूँ रंग उसमे,

इन्द्रधनुषी रंगों के वो मुझे सपने दिखा रहा है।

वो वर्षों से गुनगुना रहा है मेरे लिखे हुए गाने,

देखो सात सुरों में ढल कर वो मुझमे उतर रहा है।

उसको साँसों में घुली है , चन्दन वन की खुशबु,

वो हवा है उन वनों का , देखो मुझ पे गुज़र रहा है।

- नीहार

3 टिप्‍पणियां:

dipayan ने कहा…

"वो वर्षों से गुनगुना रहा है मेरे लिखे हुए गाने,

देखो सात सुरों में ढल कर वो मुझमे उतर रहा है।"

खूबसूरत कविता । बधाई ।

संजय भास्‍कर ने कहा…

खूबसूरत कविता । बधाई ।

संजय भास्‍कर ने कहा…

कविता तो बहुत लाजवाब लगी भईया