मंगलवार, 7 मई 2013

मेरी फैली हुयी बाहें....


ये मेरी –

फैली हुयी बाहें दो –

शाख़ पेड़ की हो,

कब से मुंतज़िर हैं तेरी.....

पतझड़ है तो क्या हुआ –

पलाश हो,

खिल तो सकते तुम –

मेरी शाखों पे.... ।

-नीहार ( चंडीगढ़, 2 अप्रैल 2013)

5 टिप्‍पणियां:

ओंकारनाथ मिश्र ने कहा…

बहुत सुन्दर.

Amrita Tanmay ने कहा…

भावों को खूबसूरत शब्दों में गूंथा है .

Vijuy Ronjan ने कहा…

धन्यवाद निहार ।मुझे लगता है शायद आप भी बनगाँव के ही हैं।

Vijuy Ronjan ने कहा…

धन्यववाद अमृता....आपके द्वारा की गयी प्रशंसा अछि लगती है....

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

साधुवाद योग्य लाजवाब अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...