मैंने तुम्हारी खोज में -
दिग दिगंत में हवाओं को,
भेज रक्खा है....
मुझे ऐसा क्यूँ लगता है,
की मेरे ह्रदय का हर कोना,
तुम्हे ही अपने अन्दर -
छुपा के बैठा है।
हवाएं यूँ ही -
लौट आती हैं खाली हाथ ....
पर मुझे तुम्हारी कमी,
नहीं महसूस होती ....
क्यूंकि तुम मुझमें -
उसी तरह शामिल हो,
जैसे जल में घुली -
जीवनदायिनी हवा....
अलग नहीं कर सकते एक से दुसरे को -
बिना उनकी प्रवृत्ति बदले हुए हम ....
और,
हमारी प्रवृत्ति -
कोई नहीं बदल सकता...
नियति भी नहीं !
- नीहार (१५/०२/२०१२)
8 टिप्पणियां:
खोज भी जारी है और बदलना भी नहीं ... अच्छी प्रस्तुति
nice........
अलग नहीं कर सकते एक से दुसरे को -
बिना उनकी प्रवृत्ति बदले हुए हम ....
और,
हमारी प्रवृत्ति -
कोई नहीं बदल सकता...
नियति भी नहीं !
bahut khoob.....
जब खुद पर हो इतना यकीन तो किस बात का गम .. सुन्दर लिखा है..बस यूँ ही लिखते रहिये..जिसकी तलाश में हम भटकते हैं वो उतना ही हममें होता है बस रुक कर उससे सम्बन्ध बनाने की जरुरत होती है ..
मन के भावो को शब्दों में उतर दिया आपने.... बहुत खुबसूरत.....
बेहद गहन अभिव्यक्ति।
कस्तूरी कुंडली बसे...सब कुछ अपने अन्दर ही है...प्रेम भी...और नफरत भी...
बहुत सी पुरानी रचनाएँ पढ़ीं...
सभी बहुत पसंद आयीं...
एक टिप्पणी भेजें