सोमवार, 25 जनवरी 2010

और मेरा खून खौल उठता है...

तुमने कभी सोचा है -
की, कैसा लगता होगा -
मलमल के कपड़ों में सज, खादी की विशेषताओं पे बोलना।
या, विदेशी 'बो" बंधे कंठ से स्वदेशी अंग वस्त्रं पहनने की सलाह।
या, फ्रेंच अतर में नहा कर देशी दुर्गंधी पर एक अभिभाषण।
या, मुर्गे की एक पूरी साबुत टांग अपनी दांत से नोचते हुये,
गरीबी और भुखमरी पर अश्रुपात।
या, मखमली बिस्तर पर इम्पोर्टेड मछरदानी में लेट कर ,
मलेरिया से बचने का उपाय सोचना । ..... । ....... ।
तुम नहीँ सोच पाओगे....मैं भी नहीं सोच पाता था।
मैं सोचता था की ये बातें सिर्फ बातें ही होंगी,
हमारे देश के कर्णधार इतिहास से सबक ले चुके होंगे -
उन्हें याद होगा -
भूख से बिलबिलाते हुये फ्रांसीसियों ने रोटी के बदले( मांगे जाने पर),
केक खाने की सलाह सुन - पूरी व्यवस्था को पलट डाला था -
एक क्रांति के ज़रिये।
पर, मुझे यह देख कर अचम्भा होता है , कि -
हमारे देश के लोग -अब भी सोये पड़े हैं, ओर
हर रोज़ उन्हें सपने बेचे जाते हैं और वो,
उन सपनो को हकीकत समझ कर उस अंधकूप में खोये पड़े हैं।
मेरा खून खौल उठता है....
हर रोज़ टेलीविजन पर , गरीबी और भूख से मरते बच्चों को,
जब संतरे के जूस और न जाने क्या क्या पिलाने कि सलाह दी जाती है,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ जब मैं , गरीब जनता के पैसों को ,
तथाकथित ' कल्याणकारी कार्यों" में हवा होते देखता हूँ ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ जब मैं ' स्लम्स ' से गुज़रते कीचड उछालते कार में बैठे,
नेताओं कि नाक पे रुमाल और आँख में घृणा देखता हूँ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ जब अस्पताल में मजबूरी और गरीबी का बिका खून,
किसी अमीर कि नसों में चढ़ता देखता हूँ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ जब मैं भूख से बिलबिलाती ,बाढ़/सूखा पीड़ित जनता कि,
कटोरियों को मंत्रियों/संतरियों द्वारा दान की गयी ,
सड़ी पाँवरोटी से भरी देखता हूँ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ जब मैं अस्पतालों में ज़िन्दगी के बदले,
मौत का खुला व्यापार देखता हूँ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
जब मैं शिक्षण संस्थानों में नैतिक व चारित्रिक शिक्षा दले,
हड़ताल कि साजिश देखता हूँ ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ मैं जब राशन में अनाज के दानो के बदले ,
नेताओं के भाषण के अंश पाता हूँ,
तब मेरा खून खौल उठता है।
हर रोज़ जब मैं अपनी इस मजबूर व्यवस्था को,
पल पल क्षण क्षण हर घडी यूँ
मरते तब मेरा खून खौल उठता है।
सच तो ये है कि, मेरा खून हर जगह, हर बात पर खौलता है...,
कभी वोह देश के हर हिस्से में हो रही खूनी वारदातों पे खौलता है ,
कभी आतंक के नाम पर निरीह लोगों कि मौत पर,
तो कभी मराठी, तो कभी मद्रासी ,तो कभी पंजाबी और
कभी अन्य भाषाओँ में बटे लोगों कि मानसिकता पर,
कभी असाम और कश्मीर कि जनता कि अस्तित्व विहीन झगडे पर,
कभी आंध्र, कभी कर्नाटक, कभी गुजरात , कभी दिल्ली कि लूट
और कभी बिहार और उत्तरप्रदेश कि अस्मिता को तिरस्कृत करती राजनीती पर,
कभी मस्जिद , कभी मंदिर, कभी चर्च तो कभी गुरुद्वारा,
कभी राम , कभी रहीम और कभी संत समाज द्वारा
टुकड़े टुकड़े होते हुये इस देश पर,
मेरा खून खौल उठता है....
हर जगह...हर घड़ी...हर पल.... पर होता कुछ नहीं....कुछ भी नहीँ....
मेरे खून को जैसे खौलने की आदत पड़ गयी है... ।
उसके खौलने से कुछ फर्क नहीं पड़ता ....न ही कुछ बदलता है...
सच तो ये है की मेरे खून का खौलना भी ,
मेरी रूटीन का एक अंग हो गया है....
और मेरा सोचने का दायरा तंग गया है।
सच पूछो तो दोस्त - मैं एक भ्रम की स्थिति में जीता रहा हूँ,
सपनो के चीथड़ों को ख्यालों के धागे से सीता रहा हूँ।
जब भी मेरी साँसों ने गर्मी दी, या मेरे नथुनों ने गर्म हवा छोड़ी ,
या मेरी आँखें जलने लगी ,मैं सोचने लगा की मेरा खून खौल रहा है।
पर ये धुआं ,ये गर्म हवा ,ये आँख का जलना ....खून के खौलने से नहीं...
दरअसल मेरा खून इतना बर्फ हो गया है,
की उस से भाप उठने लगा...आँखें जलने लगी, और
मैं इस भ्रम में जीता रहा की मेरा खून खौल रहा है।
दरअसल हम ठन्डे पड़ चुके हैं - हमारी इक्षाएं जम चुकी हैं,
हमारे सोचने की शक्ति बर्फ हो चुकी है .....हमारी क्रांति अभिलाषा ख़त्म हो गयी है।
और, हम एक बड़े से बर्फ के टुकड़े की मानिंद,
अपने भीतर की गर्मी को पीकर -
एक दुसरे से चिपके जा रहे हैं,
और यूँ ही चिपकते रहेंगे।
तकलीफ सहते रहे हैं और तकलीफ सहते रहेंगे...
व्यवस्था के खिलाफ चुप रहते रहे हैं और चुप ही रहेंगे... ।
अगर कहीं आपस का ' एडजस्टमेंट' बिगड़ता है तो हम,
एक बड़े हिमखंड की तरह समस्या से भाग खरे होते हैं...
और 'आइसबर्ग' कहला कर गौरवान्वित होते हैं।
दरअसल हम खुद एक साजिश के तहत जीते रहे हैं ,
हमने अपने चेहरे पे पहन रक्खा है एक नकाब,
हमने अपनी आँखें फोड़ डाली है...और,
कानो में पिघला शीशा उड़ेल रक्खा है ,
हमने अपने नाक कान सब बंद कर रक्खे हैं...
हमारे दिमाग की बत्ती हो गयी है गुल...
हम कैद में फंसे हैं जैसे कोई बुलबुल।
सचमुच हम प्रजातंत्र के षड़यंत्र का एक अभिन्न अंग हैं,
राजनीतिज्ञों/अधिकारीयों के जीवन का राग रंग हैं,
हाथ पाँव सही सलामत , फिर भी हम अपंग हैं ।
-- निहार ( वर्ष १९९० की रचना)

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

इस रचना को लिए २० साल हो गये और अब भी वही हालात हैं..कुछ बदलता क्यूं नहीं.