रविवार, 23 नवंबर 2008

बुझी बुझी सी रात है ,खोया खोया सा चाँद,
टूट कर बिखरने लगा है मेरे सब्र का हर बाँध।
बादलों में छिप कर क्यूँ नही खेलते हो मुझसे,
हवाओं के परों पे ,क्यूँ नही मुझको हो झुलाते,
न हँसते हो दिन को, न रात तुम हो मुस्काते,
आज कल तुम मेरे गीत क्यूँ नही हो गाते,
सुरह हुआ है मद्धम, ढलने लगी है सांझ.....
बुझी बुझी सी रात है, खोया हुआ है चाँद....

3 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

संगीता पुरी ने कहा…

achha likha hai. badhai.

ghughutibasuti ने कहा…

सुन्दर !
घुघूती बासूती