ख़ामोशी भी दर्द से रिश्ता जोड़े है पछताए है,
चुप चुप रह कर चुपके चुपके,घुल घुल कर मर जाए है।
हूक सी उठती है दिल में तो आँखें खून रुलाती हैं,
प्यास अगर जन्मों की हो तो प्यासी ही रह जाती है,
समझ के सब कुछ भी न समझे,न समझ के भी समझाए है।
कांच के किरचों सी आँखों में तन्हाई भी चुभती है,
जीवन रेख के अगल बगल से मृत्यु रेख उभरती है,
मर के भी हम जिंदा होते हैं, और जिंदा ही फिर मर जाए है।
गीली लकड़ी की तरह हम अन्दर अन्दर धधक रहे,
कमरे के एकांत में हम तो घुट घुट कर हैं फफक रहे,
धुआं धुआं हुआ मेरा अतीत है, और अब भविष्य भी धुधुआये है।
-नीहार
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तुम -
कर्म जीवी
साध्वी नारी हो
मैं रूप भोग्य धरा
से चिपका एक प्रेत हूँ
बंद मुट्ठी से सरकती रेत हूँ।
तुम अपने बहिश्त में खुश हो
मैं अपने जहन्नुम में खुश
ख़ुशी ही सच्ची है
बाकि सब तो
सिर्फ झूठ
है।
-नीहार
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( ये दोनों कवितायेँ मेरी प्रयोगवादी कविताओं की कड़ी में ही १९८८ से १९९० के बीच लिखी गयी थी। )
4 टिप्पणियां:
dono hi rachnayein atyant sundar...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
सुंदर पोस्ट
beautiful.......
तुम -
कर्म जीवी
साध्वी नारी हो
मैं रूप भोग्य धरा
से चिपका एक प्रेत हूँ...
इतनी निर्मम इमानदारी से स्वीकार्य एक कवि का ही हो सकता है ...!!
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