शाम हो रही धीरे धीरे , है डूबा सूरज नदी के तीरे।
धुंआ धुंआ जैसे अतीत को देख रहा वह आँखें मीडे।
हीरे को समझा है पत्थर, पत्थर को समझा है हीरे।
आदमी के जंगल में हम तो, रेंग रहे हैं बन कर कीड़े।
प्रगति उतर आयी कागज़ पर, जनता की हुयी दुर्गति रे।
लाशों की ढेर पर बैठे हम सब, बजा रहे हैं ढोल मजीरे।
दहेज़ की आग में जलने को, दुल्हन बैठी सही धजी रे।
पक्ष विपक्ष सब एक पेट हैं, हमारी तो मारी गयी मति रे।
फिर चुनाव के दिन में देखो, वही पुरानी धुन है बजी रे।
नेता से जनता की विनती, हमरी गर्दन काटो धीरे धीरे।
सूरज जम कर बर्फ हो गया,चांदनी देखो पिघल गयी रे।
-नीहार
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साज़े सजन लागै ,बाजे बजन लागै ,
सुनी सुनी सुनी लै, हमरी गुहरिया ।
राजे राजन लागै, लाजे लाजन लागै,
फिरि फिरि फिरि है देश की पतुरिया।
नाचे नचन लागै, राचे रचन लागै,
पीसी पीसी पीसी है गरीब औ गरिबिया।
त्याजे त्यजन लागै,माँजे मजन लागै,
फूटी फूटी फूटी है देश की किस्मतिया।
ताड़ै ताडन लागै, फाड़े फाडन लागै ,
ढाँपि ढाँपि ढाँपि दे देश की इज्जतिया।
तालै तलन लागै ,हाथे हथन लागै ,
धीमी धीमी धीमी बजे देश की ढोलकिया।
रोते रोवन लागै,सोते सोवन लागै,
हंसी हंसी हंसी रे, टाली दे सब बतिया।
देश चूल्हे में जाए,कोई लूटे कोई खाए,
अपनी तो बीनी है, झीनी रे चदरिया।
-नीहार
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