आज की रात बहुत ही भारी है, मेरी गर्दन है और उनकी आरी है।
बोया था फूलों का बीज हमने , जो उगी है वो कैक्टस की झारी है।
गरीबी, भूख ,हिंसा बढ़ रही, देश की कागज़ी प्रगति फिर भी जारी है।
डब्बे में बंद लोग बढ़ते जा रहे हैं, ढलान पर इस देश की गाडी है।
हर जगह विज्ञापनों का शोर है, साडी में नर है और पैंट में सजी नारी है।
बाढ़ और सूखे के दौर में हम सबने , जीत कर भी अपनी बाज़ी हारी है।
कुछ लोगों को कल मौत आयी थी, आज न जाने आयी किसकी बारी है।
खाने को मिलता कुछ भी नहीं यहाँ, आश्वासन खाना सबकी लाचारी है।
लोगों की भीड़ ज्यूँ ज्यूँ बढ़ रही , बढती हुयी यहाँ गरीबी है और बेकारी है।
वो जो लड़की कल गहनों से लदी थी ,उसके तन पे आज सिकुड़ी साडी है।
भूख और गरीबी से अगर बच गए,तो निगलने को तैयार फिर महामारी है।
समस्याएँ गंभीर होती जा रही हैं,आगे पहाड़ है और पीछे अंधी खाड़ी है।
आशा की किरण कहीं भी नहीं दिख रही ,रौशनी ने अँधेरे से जंग हारी है।
कान बहरे हो गए हैं सबके लेकिन, नेताओं का भाषण अभी भी जारी है।
प्रजातंत्रात्मक शासन में बिचारी जनता, नेताओं की कसी सवारी है।
न्याय मांगो यहाँ तो कहा ये जाता है,खामोश अदालत अभी भी जारी है।
देख समझ कर भी हम कहते कुछ नहीं,सांप छुछुंदर सी हालत हमारी है।
-नीहार
3 टिप्पणियां:
आज की रात बहुत ही भारी है, मेरी गर्दन है और उनकी आरी है
kya baat kahi hai..
bahut khoob......
khan sahab apki kai rachnaye mughe bahut hi pasand hai unhe main apne blog par parkasit karna chahta hoon.
agar apki izajat ho to..
plz vist nihar khan ji..
maine apki kavita
मुझको मेरी तन्हाईयाँ अक्सर बुलाती हैं
apne blog par blost ki thi apke ke naam aur blog link ke sath
blogers mitro ne khoob saraha hai..
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