शनिवार, 3 अप्रैल 2010

निरर्थकता का रिश्ता

हो सकता है मैं तुमसे कुछ सवाल करूँ -
मुझमें अनंत जिज्ञासा है।
लेकिन मैं जानता हूँ - की जब तुम,
उत्तर देने लगोगे - तो मेरे दोनों कान बहरे हो जायेंगे -
तुम्हारे समाधान कुछ भी नहीं दे पायेंगे मुझे।
जो भी खोजना है - जो भी पाना है -
जो भी घटाना है और बढ़ाना है -
सिर्फ अपने तरीके से - अपने आप।
* * * *
आँखें आधी मूँद कर देखो -
तो लगता है तमाम चीजें हैं बरकरार -
आपस में उलझती जा रही हैं, पर -
टूटती फूटती नहीं।
एकाएक वर्तमान नुकीला हो अतीत को खोदने लगता है।
एक धुंध सी बहार - भीतर मंडराती है,
लेकिन -
कुछ होता नहीं - कुछ भी नहीं।
* * * *
जिंदगी भर आदमी -
अपने ही बंद दरवाज़े खोलता है,
और,
खोलकर देखता हुआ थकता है।
दूसरों के लिए अजूबा या निरर्थक -
किन्तु -
यह निरर्थकता का रिश्ता ही वास्तविक है -
जो बदलता नहीं।
- नीहार

1 टिप्पणी:

Vikas Kumar ने कहा…

"आँखें आधी मूँद कर देखो -
तो लगता है तमाम चीजें हैं बरकरार -
आपस में उलझती जा रही हैं, पर -
टूटती फूटती नहीं।"
बहुत अच्छी लाईने हैं. पूरी कविता भी बहुत अच्छी लगी.